राजेश बादल का ब्लॉग: संकट के काल में छात्रों के लिए मापदंड अलग-अलग क्यों?

By राजेश बादल | Updated: May 18, 2021 12:36 IST2021-05-18T12:36:30+5:302021-05-18T12:36:30+5:30

कोरोना महामारी ने शिक्षा तंत्र पर भी गहर असर डाला है. कई किशोरों और नौजवानों के दो अहम साल मिट्टी में मिल गए हैं. इसके बीच आधी-अधूरी व्यवस्था ने भी छात्रों के लिए मुश्किल खड़ी की है.

Rajesh Badal blog: Why different criteria for students in times of coronavirus crisis | राजेश बादल का ब्लॉग: संकट के काल में छात्रों के लिए मापदंड अलग-अलग क्यों?

कोरोना का शिक्षा तंत्र पर भी दिखा बड़ा असर (फाइल फोटो)

यह लगातार दूसरा साल है, जब भारतीय शिक्षा तंत्र तमाम परीक्षाओं को चरमराते देख रहा है. कोरोना काल ने स्कूली, महाविद्यालयीन, पेशेवर पाठ्यक्रमों और प्रतियोगी इम्तिहानों में शामिल होने वाले करोड़ों किशोरों और नौजवानों के दो बरस मिट्टी में मिला दिए हैं. उनके भविष्य के सपने बुनने के ये लम्हे बरबाद हो चुके हैं. 

कोई नहीं जानता कि यह सिलसिला कितने महीने या कितने साल चलेगा, लेकिन यह तय है कि दुनिया के सबसे युवा लोकतंत्र की धड़कनें इन दिनों मंद पड़ गई हैं. विडंबना है कि हिंदुस्तान के सारे राज्य परीक्षाओं के मामले में अलग-अलग नीतियां अपना रहे हैं. यह रवैया बेहद खतरनाक है और अखिल भारतीय सेवाओं तथा रोजगार चाहने वाले नौजवानों के साथ न्याय नहीं करता. यह एक तरह से शिक्षा के समान अवसर की संवैधानिक भावना से भी खिलवाड़ है.

मध्यप्रदेश में छात्रों के लिए अलग-अलग व्यवस्था

उदाहरण के तौर पर एक बड़े राज्य मध्यप्रदेश ने अपने यहां दसवीं और बारहवीं परीक्षा के छात्रों को जनरल प्रमोशन देकर उनका एक साल बर्बाद होने से बचा लिया. मगर इसी राज्य ने कॉलेजों में ऑनलाइन तथा कक्षाओं में आकर बैठने की छूट भी छात्रों को दी. कोरोना की दूसरी लहर के ठीक पहले तक यह व्यवस्था चलती रही. 

कॉलेजों में प्राध्यापक और गैर शिक्षण कार्य में लगे कर्मचारी नियमित रूप से अपनी संस्थाओं में जाते रहे. छात्रों की भीड़ प्रवेश के लिए पहुंचती रही और दोनों पक्ष कोरोना संक्रमित होते रहे. प्रदेश में अब तक स्कूलों और कॉलेजों के सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. अजीब सी बात है कि जो महामारी बारहवीं कक्षा के छात्र को अपना शिकार बना सकती है, क्या वह स्नातक के छात्र को छोड़ देगी? यह समझ से परे है. 

यही नहीं, इस राज्य के महाविद्यालयीन छात्रों को रियायत दी गई है कि वे सालाना परीक्षा के लिए घर से किताबों से नकल टीप कर उत्तर पुस्तिकाएं कॉलेज ले आएं और कॉलेज में जमा कराएं. अर्थात कॉलेज में ये छात्र संक्रमण का खतरा उठाते हुए जाएंगे. उस महाविद्यालय में उत्तर पुस्तिकाओं को एकत्रित करने और उनका मूल्यांकन करने वाले प्राध्यापकों को दैहिक रूप से पहुंचना होगा. यह कोरोना संक्रमण के विस्तार की आशंका को बढ़ाता ही है. 

सरकार की इस सोच पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाने चाहिए. कोरोना की दूसरी लहर का शिकार तो अधिकतर हमारे युवा ही हो रहे हैं. अब राज्य के नागरिक यह मांग कर रहे हैं कि कॉलेज में भी जनरल प्रमोशन दिया जाना चाहिए. निश्चित रूप से यह अनुरोध न्यायसंगत है. कुछ राज्यों ने ऐसा निर्णय लिया भी है. 

मध्यप्रदेश कांग्रेस ने मुख्यमंत्री से कहा है कि प्रदेश में कोरोना संक्रमण से जनता त्रस्त है. लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं. छात्र अपने परिवार और रिश्तेदारों की चिंता में तनावग्रस्त हैं और परीक्षाओं के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं. वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाएंगे. इम्तिहान कोराना खतरे से खाली नहीं है. इसलिए जनरल प्रमोशन के सिवा कोई विकल्प नहीं है. 

हालांकि जनरल प्रमोशन की भी अपनी एक दुविधा है. उसमें छात्रों को साल भर उनके आंतरिक मूल्यांकन यानी सेमेस्टर या अंतराल में होने वाली सैद्धांतिक और प्रायोगिक परीक्षाओं में प्राप्त अंकों के आधार पर ग्रेड या डिवीजन देने का सिद्धांत अपनाया जाता रहा है. 

बीते बरस लगातार लॉकडाउन, कोरोना कफ्यरू, अकाल मौतों और घर-घर में भयावह शोकाकुल माहौल के कारण आंतरिक परीक्षाएं ढंग से नहीं हो पाईं. यदि किसी तरह हो भी गईं तो छात्रों की मानसिक अवस्था इस लायक नहीं थी कि वे सामान्य हालत में कोई इम्तिहान दे पाते. जाहिर है कि जनरल प्रमोशन भी अनेक विसंगतियों से भरा होगा.    

कई राज्यों में परीक्षाओं को लेकर अलग फैसले

अब एक स्थिति उन राज्यों की देखिए, जहां परीक्षाएं कराई गईं अथवा कराई जा रही हैं. इन राज्यों की परीक्षाओं में छात्र अपनी योग्यता के अनुसार प्रदर्शन करते हैं. इनमें अनेक अनुत्तीर्ण भी होते हैं. उन्हें स्नातक अथवा स्नातकोत्तर पास करने के लिए एक साल और इंतजार करना पड़ेगा, लेकिन जनरल प्रमोशन पाने वाले छात्रों के साथ ऐसा नहीं होगा. 

वे प्रतियोगी परीक्षाओं और रोजगार के साक्षात्कारों में शामिल होने के पात्र हो जाएंगे. अनुत्तीर्ण छात्र शिक्षा और रोजगार के समान अवसर पाने के संवैधानिक हक से वंचित हो जाएंगे. राष्ट्रीय आपदा की स्थिति में यदि कोई फैसला लिया जाए तो यह देखा जाना चाहिए कि उससे किसी भारतीय के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन न हो. 

संघ लोक सेवा आयोग को भी जागने की जरूरत

इसी क्रम में संघ लोक सेवा आयोग की प्रवेश परीक्षाओं की स्थिति भी देखी जानी चाहिए. पिछले साल भी महामारी के चलते प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा की तारीख बढ़ानी पड़ी थी और इस साल भी मई से बढ़ाकर जून और अब अक्तूबर कर दी गई है. लाखों छात्र इस परीक्षा में शामिल होते हैं. कोई नौकरी छोड़ कर तैयारी करता है तो किसी के लिए यह अंतिम अवसर होता है. किसी की उमर ज्यादा हो रही होती है तो वह आइंदा के लिए अपात्र हो जाने वाला है. 

संघ लोक सेवा आयोग ने हालात से वाकिफ होते हुए भी कोई संशोधित चयन प्रणाली विकसित नहीं की. वह इसे त्रिस्तरीय प्रक्रिया की जगह द्विस्तरीय भी कर सकता था. इसके अलावा ऑनलाइन परीक्षा की कोई तरकीब खोजी जा सकती थी. यह भी नहीं किया गया. जो समाज यथास्थितिवाद को अपनाता है और सामान्य स्थिति होने तक हाथ पर हाथ धरे बैठता है, वह जड़ता को जन्म देता है. 

इक्कीसवीं सदी में भागते विश्व में एक जड़ हिंदुस्तान को कौन स्वीकार करेगा. जो समाज बदलते हालात में अपने को विवेकशील और सार्थक ढंग से बदलता है, वही वक्त के साथ कदमताल कर सकता है. क्या इस मामले में हम पश्चिम और यूरोप से कुछ सीखेंगे?

 

Web Title: Rajesh Badal blog: Why different criteria for students in times of coronavirus crisis

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे