राजेश बादल का ब्लॉगः भारतीय सियासत में चिंतन शिविरों की भूमिका महत्वपूर्ण
By राजेश बादल | Published: April 13, 2022 04:25 PM2022-04-13T16:25:41+5:302022-04-13T16:26:04+5:30
ऐसे चिंतन शिविर में उदारतापूर्वक विचार- विमर्श हो तो लाभ मिलता है। करीब 25 साल पहले कांग्रेस का पचमढ़ी चिंतन शिविर कई मायनों में ऐतिहासिक है।
भारत में अपनी कमजोरियों पर सामूहिक चिंतन और मंथन पुरानी परंपरा है। समाज और सियासत को अपने भीतर झांकने का अवसर मिलता है। इसका लाभ यह है कि पुराने मूल्य और सरोकार बचे रहते हैं और नए बदलावों के लिए खुद को बदलने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। इसमें नई पीढ़ियों को भी पूर्वजों की इस विरासत को समझने का मौका मिल जाता है। इस नजरिए से कांग्रेस गुजरात के द्वारका में एक और चिंतन शिविर करने जा रही है। हालिया पांच प्रदेशों में पार्टी का कमजोर प्रदर्शन ऐसे शिविर की निश्चित रूप से मांग करता है।
ऐसे चिंतन शिविर में उदारतापूर्वक विचार- विमर्श हो तो लाभ मिलता है। करीब 25 साल पहले कांग्रेस का पचमढ़ी चिंतन शिविर कई मायनों में ऐतिहासिक है। इस शताब्दी के शुरू होने से ठीक पहले सोनिया गांधी ने इस बुजुर्ग पार्टी की कमान हाथ में ली थी। उससे पहले सीताराम केसरी अध्यक्ष थे। यह ठीक है कि वे कांग्रेस को कोई चमत्कारिक परिणाम नहीं दे सके थे। लेकिन उनके रहते सोनिया गांधी के लिए ठोस आधार बन चुका था। प्रधानमंत्री पी। वी। नरसिंहराव के कार्यकाल में सरकार तो पूरे पांच साल चली थी, मगर पार्टी छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। जब 1996 के आम चुनाव हुए तो सारे बड़े नेता कांग्रेस से बाहर थे। केसरी ने उनका पुनर्वास कराया।
इसके बाद सोनिया गांधी ने 1998 में अध्यक्षी संभाली तो पचमढ़ी चिंतन शिविर में खुले मंच पर संगठन की एक एक अंदरूनी कमजोरी पर विचार किया गया। उन्हें दूर करने के उपाय खोजे गए और सारे बड़े नेता मोर्चे पर डट गए। एकला चलो रे की नीति अपनाते हुए चुनाव लड़ना शिविर का निचोड़ था। इसका 1999 के चुनाव में खास फायदा नहीं मिला और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। इसके बाद 2003 में शिमला के चिंतन शिविर में पचमढ़ी में लिए गए एकला चलो रे का निर्णय छोड़ने का फैसला लिया गया। इसका अगले पांच साल में ही नतीजा मिल गया। अटल बिहारी वाजपेयी की ठोस छबि के बाद भी एनडीए को बहुमत नहीं मिल सका और यूपीए की सरकार बन गई। दस साल तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार ने काम किया। चला चली की बेला में 2013 में राजस्थान के जयपुर में चिंतन शिविर हुआ। उस शिविर में कुछ अच्छे सुझाव आए थे। लेकिन मुख्य रूप से राहुल गांधी को आगे लाने का काम हुआ। वे पार्टी के उपाध्यक्ष बनकर उभरे और उनका भाषण भी चर्चित रहा। पर, पार्टी की कमजोरियां दूर करने की कोशिशें कामयाब नहीं हो सकीं। दल का सूरज अस्ताचल की ओर जाता रहा। कांग्रेस चुनाव दर चुनाव कमजोर होती रही।
असल में चिंतन शिविर की अवधारणा पार्टी के नीति निर्धारक निर्णयों से अलग है। पार्टी अधिवेशनों के विषय, कार्यसमिति की बैठकों के मुद्दे और संगठन की रणनीति पर विचार करने वाले काम मेरी दृष्टि में चिंतन शिविर के काम नहीं हैं। इन शिविरों का मकसद वास्तव में देश की मौजूदा रफ्तार, वैश्विक आर्थिक, सामाजिक परिदृश्य और उसमें भारत की भूमिका पर विचार होना चाहिए। इसके अलावा पार्टी उसमें क्या सहायता कर सकती है, इस पर भी खुलकर चर्चा होना चाहिए। यदि दल की आंतरिक दुर्दशा पर ही बात करनी हो तो फिर एक पूरा दिन उसमें स्थानीय, जिला, संभाग और प्रादेशिक नेताओं की बात गंभीरतापूर्वक सुनने पर देना चाहिए। उसमें न केंद्रीय या अन्य बड़े नेताओं की स्तुति होनी चाहिए और न जबरिया ठूंसे गए सफलता के आंकड़े होने चाहिए। केवल पार्टी की दुर्बल काया के कारणों को खुलकर सुनना चाहिए। हर चिंतन शिविर का दस्तावेजीकरण होना चाहिए। उसके निष्कर्ष किताब की शक्ल में प्रकाशित होना चाहिए। पार्टी के प्रति वैचारिक आधार पर रु झान रखने वाले समाज के अन्य वर्गों के प्रतिनिधियों को भी चिंतन शिविरों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। किसी जमाने में लगभग हर दल में व्यापार, डॉक्टर, शिक्षा, वकील, चार्टर्ड एकाउंटेंट, खिलाड़ी, पूर्व सैनिकों, किसानों, मजदूरों और सेवानिवृत्त लोगों के प्रकोष्ठ होते थे।
ये प्रकोष्ठ समय-समय पर सामाजिक सोच-विचार की धारा से सियासी पार्टी को जोड़कर रखने का काम करते थे। धीरे-धीरे ये प्रकोष्ठ सभी पार्टियों से एपेंडिक्स की तरह निरर्थक हो गए। करीब-करीब सभी दलों में अब यह प्रकोष्ठ विलुप्त से हैं। सिर्फ भाजपा इनका भरपूर लाभ ले रही है।आप कह सकते हैं कि कांग्रेस ही नहीं, सभी पार्टियों में साल में कम से कम दो शिविर करने की परिपाटी होनी चाहिए।