ब्लॉग: छवि चमकाने की बेशर्म कोशिश! किस्सा नेताजी के बर्थडे और कोरोना गाइडलाइंस को ठेंगा दिखाते कार्यकर्ताओं का

By राजेश बादल | Published: June 2, 2021 12:14 PM2021-06-02T12:14:15+5:302021-06-02T12:14:15+5:30

आज के संकट के दौर में राजनीति में छवि चमकाने का कोई मौका कई नेता नहीं छोड़ रहे हैं. सवाल ये भी है कि जब लोकतंत्र में सामूहिक नेतृत्व ही सबकुछ है तो किसी एक व्यक्ति को महिमामंडित करने की परंपरा कितनी उचित है.

Rajesh Badal Blog: Shameless attempt to shine images by political parties and leaders | ब्लॉग: छवि चमकाने की बेशर्म कोशिश! किस्सा नेताजी के बर्थडे और कोरोना गाइडलाइंस को ठेंगा दिखाते कार्यकर्ताओं का

कोरोना महामारी के बीच भी छवि चमकाने की कोशिश (प्रतीकात्मक तस्वीर)

दुनिया भर में कोरोना महामारी एक भयावह त्रासदी की शक्ल में सामने है. डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, राजनेताओं, प्रशासकों और कारोबारियों से लेकर आम आदमी तक मौत के इस विकराल हरकारे से थर्रा उठे हैं. लेकिन सियासी जमातों को इससे शायद अधिक अंतर नहीं पड़ता. वे उसी ढर्रे पर जिंदगी जी रहे हैं और इस देश को चला रहे हैं. 

यहां तक कि उनके अपने निजी उत्सवों पर भी कोई शोक या मातम की छाया नहीं दिखाई देती. अवाम के बीच वे अपनी छवि चमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं. लोकतांत्रिक राजनीति में दबे पांव दाखिल हो गई इस सामंती मनोवृत्ति को इरादतन क्रूरता की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाना चाहिए?

हाल ही में एक हिंदी भाषी प्रदेश में जाना हुआ. उस दिन सत्ताधारी पार्टी के एक तीसरी पंक्ति के युवा नेता का जन्मदिन था. पूरी राजधानी बड़े-बड़े कटआउट और बैनरों से पटी पड़ी थी. उस नेता के समर्थकों ने शहर भर में अपनी जेब से खर्च करके यह आडंबर किया था. यह एक व्यक्ति को जम्हूरियत का पर्याय बनाने का भौंडा उपक्रम था. 

उससे भी अधिक बेशर्म प्रदर्शन नेताजी के घर के सामने था. एक ढोल पर चंद नौजवान नाच रहे थे. किसी के चेहरे पर मास्क नहीं. सामाजिक दूरी का पालन नहीं. यानी कोरोना से बचाव का कोई बंदोबस्त नहीं. पास में चार -छह पुलिसकर्मी खड़े थे. वह नेता मुस्कुराते हुए डिब्बे में लड्डू लेकर बाहर आया. स्थानीय चैनलों के पेड कैमरामैन और पत्रकार दौड़ पड़े. बाइट ली, फुटेज बनाया, लड्डू खाए और चल दिए. 

किसी भी संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रतीक, व्यक्ति अथवा संस्था को उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा. यह तस्वीर कमोबेश सारी राजनीतिक पार्टियों की है. देखने में बहुत छोटी, मगर अत्यंत गंभीर. किसी सियासी संगठन में कोई पदाधिकारी बन जाए, नियुक्ति के बाद पहली बार शहर में आए, किसी का जन्मदिन आ जाए और केंद्रीय नेता प्रदेश के दौरे पर आए- इस तरह के बैनर, पोस्टर, समर्थक समूहों या फैंस क्लबों के नारों से सार्वजनिक स्थान पट जाते हैं. 

कई क्विंटल गुलाब और अन्य फूलों का छिड़काव हो जाता है. न केंद्रीय नेता को कुछ एतराज होता है और न संगठन की ओर से कोई कार्रवाई होती है. बल्कि कभी-कभी तो केंद्रीय नेता खुद ही ऐसा करने के निर्देश देते हैं. ऐसे आयोजनों की इन विद्रूपताओं पर समाज की तरफ से भी कोई नोटिस नहीं लिया जाता. 

लोकतंत्र में किसी को महिमामंडित करने की परंपरा कितनी सही?

गंभीर सवाल यह है कि जब लोकतंत्र में सामूहिक नेतृत्व ही सबकुछ माना जाता है तो किसी एक व्यक्ति को महिमामंडित करने की परंपरा किसी राष्ट्र के लिए कितनी उचित है. क्या हम मध्यकाल की राजा या बादशाह-पूजन की मानसिकता पर फिर लौट रहे हैं, जिसमें महाराजा या सुल्तान को ईश्वर की तरह माना जाता था. 

उस धारणा के पीछे यही मंशा होती थी कि राजा कभी गलत कर नहीं सकता तथा हर मामले में वही अधिनायक निर्णय लेगा. भले ही वह देश के हित में हो या नहीं. इस  दूषित मानसिकता की वापसी भारत के लिए बेहद गंभीर चेतावनी है.

इस मानसिकता की पुनस्र्थापना के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? स्वतंत्रता के बाद हिंदुस्तान पर हुकूमत करने वाले लीडर आजादी के आंदोलन से निकले खरे-खरे नेता थे. चाहे वे पक्ष के रहे हों या प्रतिपक्ष के. लोग उनके आचरण पर भरोसा करते थे. उन नेताओं के चरित्र पर शंका नहीं होती थी. 

बाद की सियासी पीढ़ियों ने कुछ इस तरह गुलगपाड़ा किया कि राजशाही को संवैधानिक रूप से दफनाने के बाद भी भारत की मिट्टी से सामंती अंकुरण निकल आए. नवोदित नेताओं ने अपने महिमामंडन को राज करने की शैली का ही एक हिस्सा मान लिया. वे अपनी छवि चमकाने के लिए फैंस क्लब बनाने लगे. 

अब तो रैलियों में जाने के लिए मिलती है 'दक्षिणा'

काली कमाई से प्राप्त धन का इस्तेमाल इस तरह का प्रोपेगंडा करने में होने लगा. जिस देश में गांधी, नेहरू, लोहिया और अटलबिहारी वाजपेयी को सुनने के लिए लोग कई किमी दूर से पैदल चलकर आया करते थे, उसी देश में रैलियों के लिए एक ही पार्टी के नेता अपने-अपने अनुयायियों को बसों और ट्रैक्टरों में ढोकर ले जाने लगे. भले ही पार्टी एक है, पर आजकल उसकी रैली में बसों या ट्रैक्टरों पर उस नेता की तस्वीर के साथ बैनर लगे होते हैं, जो उन्हें भरकर लाता है, उन्हें लंच पैकेट देता है और सौ से पांच सौ रु. की दक्षिणा भी देता है. 

विडंबना है कि यही राजनीतिक दल अपने नेताओं की करतूत का बचाव यह कहते हुए करते हैं कि असल लोकतंत्र तो यही है, पार्टी के भीतर सबको स्थान मिलना चाहिए. कह सकते हैं कि सामंतशाही का युग फिर लौट रहा है. जिस क्षेत्नीय राजा की जितनी बड़ी सेना और समर्थक, उसका उतना ही बड़ा लोकतांत्रिक आधार. इस पर हम गर्व करें या शर्म!

गणतंत्र के खोल में पनपते इन विषाक्त नमूनों को नियंत्रित नहीं किया गया तो दिन दूर नहीं, जब भारतीय लोकतंत्न किसी अधिनायक के कब्जे में होगा और फिर हम हाथ मलते रहेंगे. यह संघर्ष तो हमारी जमीन से निकले सियासतदानों के खिलाफ होगा. इसके लिए बरतानवी सत्ता को दोषी नहीं ठहरा सकेंगे. फिर जहरीली मानसिकता के इस उभार को दबाने का तरीका क्या हो- यह यक्ष प्रश्न है.

Web Title: Rajesh Badal Blog: Shameless attempt to shine images by political parties and leaders

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