राजेश बादल का ब्लॉग: कृषि कानूनों की वापसी पर सियासी दांव-पेंच
By राजेश बादल | Published: December 1, 2021 09:36 AM2021-12-01T09:36:21+5:302021-12-01T09:36:21+5:30
किसानों के लिए बनाए गए कानूनों के बारे में अभी तक केंद्र सरकार ने खुलकर यह नहीं माना है कि उससे गलती हुई थी. प्रधानमंत्री की ओर से यही कहा गया है कि उनकी तपस्या में कहीं कोई कमी रह गई है.
तीनों विवादास्पद कृषि कानून आखिरकार केंद्र सरकार ने वापस ले लिए. जिस तरह सदन में इन कानूनों को पारित कराया गया था, उस तरीके पर सवाल उठे थे और जब इनकी विदाई हुई तो उस ढंग की भी तीखी आलोचना की गई.
कानूनों के विरोध में साल भर से चल रहा किसान आंदोलन, साढ़े सात सौ से ज्यादा कृषकों की आंदोलन के दौरान अकाल मौत, दुनिया भर में भारत सरकार की किरकिरी, बंगाल चुनाव में करारी हार, लखीमपुर खीरी हादसे और पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव ने सरकार को विवश कर दिया था. लेकिन प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद भी किसान मोर्चे पर डटे हुए हैं.
इससे साफ हो गया है कि केंद्र सरकार तथा भाजपा ने बहुत कुछ खोया है. साल भर बाद इस यूटर्न से कितना नुकसान होगा, नहीं कहा जा सकता लेकिन तय है कि जो सियासी लाभ सरकार लेना चाहती थी, वह नहीं मिला है. आने वाले विधानसभा चुनावों में इसकी भरपाई आसानी से संभव नहीं दिखती. चौबीसों घंटे चुनावी मूड में रहने वाली संसार की सबसे बड़ी सियासी पार्टी के लिए यह बड़ी चेतावनी है.
सवाल यह है कि गंभीर संसदीय मामलों में केंद्र सरकार और भाजपा ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? इन कानूनों को लाते समय और लौटाते समय सदन में चर्चा होती तो उसका लाभ सरकार को अधिक होता नुकसान कम. लेकिन संसद में बिना बहस विधायी कार्य संपन्न कराने से देश के नागरिकों को यह धारणा बनाने का मौका मिला कि महत्वपूर्ण और राष्ट्रहित के मसलों पर सरकार चर्चा का सामना नहीं करना चाहती, जो धड़कते लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है.
यह भी स्पष्ट हो गया कि सरकार राष्ट्रीय हित के गंभीर मामलों में प्रतिपक्ष से राय-मशविरा भी नहीं करना चाहती. यह घातक परंपरा की शुरुआत है. नहीं भूलना चाहिए कि अगर लोकसभा चुनाव में बहुमत के लायक मत सत्ताधारी दल को मिले हैं तो विपक्ष के पास भी करोड़ों मतों का बैंक है और उन मतों के सहारे जनप्रतिनिधि संसद में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. वे अपनी उपस्थिति को शून्य बनाने के लिए नहीं चुने जाते.
यह बात सत्तापक्ष को हरदम ध्यान में रखनी चाहिए. नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सरकार तक ने प्रतिपक्ष से संवाद-सम्मान का गरिमापूर्ण रिश्ता बनाकर रखा है. मौजूदा दौर में यह भाव नदारद है.
किसानों के लिए बनाए गए कानूनों के बारे में अभी तक केंद्र सरकार ने खुलकर यह नहीं माना है कि उससे गलती हुई थी. प्रधानमंत्री की ओर से यही कहा गया है कि उनकी तपस्या में कहीं कोई कमी रह गई है. यानी जब करोड़ों किसान, कृषि के जानकार, निर्वाचित सांसद और विधायक तथा अंतरराष्ट्रीय बिरादरी कह रही हो कि इन कानूनों में गड़बड़ है और ये उनका भला नहीं करते तो भी उनके पक्ष को दरकिनार करना एक किस्म की जिद है.
इससे अगर यह निष्कर्ष निकाला जाए कि कानून वापस लेने का निर्णय पूरी तरह सियासी था और उत्तर प्रदेश तथा पंजाब समेत अन्य प्रदेशों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर लिया गया है तो इसमें क्या गलत है. संसद के दोनों सदनों में चर्चा कराई जाती तो कुछ अत्यंत संवेदनशील बिंदु भी उसमें शामिल हो जाते. मसलन साढ़े सात सौ से अधिक किसानों की मौतों के लिए जिम्मेदार कौन है?
यदि बाद में सरकार ने मान लिया कि कृषि विधान अन्नदाता के हित में नहीं थे तो कृषक-मौतों का आरोप भी सरकार पर लगता. संविधान का अनुच्छेद-21 जीवन का अधिकार देता है. इसमें स्पष्ट कहा गया है कि किसी व्यक्ति को लगातार अमानवीय दशा में रहने के लिए मजबूर करना भी उसके प्राण लेने के बराबर है.
लाखों किसानों ने आंदोलन के अपने संविधान प्रदत्त अधिकार का उपयोग किया तो उन्हें सर्दी, गर्मी और बरसात में सड़क पर डटे रहने के लिए बाध्य किया गया. संविधान रक्षा की यह जिम्मेदारी सरकार की है. संसद में चर्चा के दौरान यह बिंदु भी रिकॉर्ड में आता, जो स्थायी दस्तावेज बन जाता.
यदि दोनों सदनों में चर्चा होती तो यह बात भी उठाई जाती कि अगर सरकार कानूनों को वापस ले रही है क्योंकि वे किसानों के हित में नहीं हैं तो आखिर वे किसकी भलाई के लिए बनाए गए थे. उनसे किसको फायदा पहुंचने वाला था. क्या वे चंद कारोबारी घरानों के लिए बनाए गए थे, जो चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टियों को चंदा भी देते हैं तो यह अंर्तसबंध भी संसद के रिकॉर्ड में दर्ज हो जाता. इसका लाभ विपक्ष को ही मिलता.
इसके अतिरिक्त आंदोलन के कारण राष्ट्र के कृषि उत्पादन में गिरावट के आंकड़े सरकार को जुटाने पड़ते, जो शायद वह नहीं देना चाहती. कृषि उत्पादों के निर्यात में भी गिरावट का आंकड़ा सरकार नहीं देती. यह तथ्य भी संसद की कार्यवाही के रिकॉर्ड में आ जाता. इन मुख्य वजहों से प्रतिपक्षी दलों को सरकार को घेरने का भरपूर अवसर मिलता. पांच प्रदेशों में चुनाव के मद्देनजर हुकूमत यह जोखिम भी नहीं लेना चाहती.
एक तथ्य श्रेय लेने का भी है. जब सरकार ने कानून बनाकर अप्रिय स्थितियों का सामना किया है तो वापसी के लिए वह विपक्ष को यह श्रेय क्यों लेने देना चाहती कि उसके दबाव में सरकार झुक गई और कानून वापस ले लिए गए. चुनावी मौसम में कोई भी हुकूमत विरोधी दलों को ऐसी स्थितियों का लाभ उठाने का मौका नहीं देती चाहे वह एनडीए की सरकार हो अथवा यूपीए की.