राजेश बादल का ब्लॉग: संसद के सम्मान पर जनप्रतिनिधि कितने गंभीर?

By राजेश बादल | Published: August 11, 2021 10:23 AM2021-08-11T10:23:24+5:302021-08-11T10:25:17+5:30

सरकार को समझना होगा कि गंभीर मसलों पर चर्चा नहीं होने से उसकी छवि भी उज्ज्वल नहीं बनती. संसदीय जानकारों के लिए यह स्थिति हैरान कर देने वाली है.

Rajesh Badal blog: Parliament Monsoon Session ruckus how serious are public representatives | राजेश बादल का ब्लॉग: संसद के सम्मान पर जनप्रतिनिधि कितने गंभीर?

हंगामों के बीच संसद का मानसून सत्र (फाइल फोटो)

मानसून सत्र की विदाई बेला आ पहुंची है. लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर की उपेक्षा का एक और शर्मनाक अध्याय लिखा गया. निर्वाचित प्रतिनिधि और सियासी पार्टियां मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहीं. सिर्फ 19 बैठकों वाले सत्र में 100 घंटे शोर और गतिरोध में बह जाएं तो अवाम को पूछने का हक है कि क्या संसद को नक्कारखाना बनाने के लिए ही उन्हें चुनकर भेजा गया है? 

संसद की कार्यवाही पर लगभग 12 करोड़ रुपए रोज के हिसाब से 225 करोड़ रुपए बर्बाद हो गए. आम नागरिकों के खून-पसीने की कमाई इस तरह उड़ाने का जनादेश माननीयों को नहीं मिला है. पांच साल के लिए संसद चलाने की जिम्मेदारी पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों की है. लेकिन नियामक के रूप में सरकार इसकी जवाबदेह है. 

सरकार को समझना होगा कि गंभीर मसलों पर चर्चा नहीं होने से उसकी छवि भी उज्ज्वल नहीं बनती. संसदीय जानकारों के लिए यह हतप्रभ कर देने वाली स्थिति है. वे हैरान हैं कि 2019 में सत्रहवीं संसद की सरकार गठित हुई तो पहले सत्र में लोकसभा और राज्यसभा ने चमत्कारिक प्रदर्शन किया था. 

दोनों सदनों ने सौ फीसदी से अधिक काम किया था. डेढ़ महीने तक चले सत्र की 37 बैठकों में एक भी दिन गतिरोध नहीं हुआ. लोकसभा ने 137 प्रतिशत और राज्यसभा ने 103 प्रतिशत रिकॉर्ड कार्य किया. लोकसभा ने 32 और राज्यसभा ने 37 विधेयक पास किए. सभी पर चर्चा हुई. यह भावना कहां गायब हो गई ?

किसी भी संसदीय लोकतंत्र में यह जवाबदेही बिजली की तरह कौंधे और विलुप्त हो जाए तो दो अर्थ ही निकलते हैं. एक तो यह कि भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में कोई दोष है. दूसरा यह कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि अब गणतंत्र में भरोसा नहीं रखते. बीते कुछ दशकों में संसदीय अराजकता ने देश को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि राष्ट्रीय हितों से जुड़े मुद्दों पर भी विधायिका और कार्यपालिका संवेदनशील नहीं हैं. 

दो बरस पहले अच्छा नमूना पेश करने का कारण मनोवैज्ञानिक है. पूर्ण बहुमत से भारतीय जनता पार्टी ने अपने दम पर सरकार बनाई थी. उसे गठबंधन के सहयोगियों की भी जरूरत नहीं थी. विजेता की मुद्रा में वह खामोश रही. सदन की कार्रवाई चलते रहने में उसका कोई नुकसान नहीं था. इससे उसकी छवि बेहतर ही होनी थी कि वह परिपक्वता से भूमिका निभा रही है. 

दूसरी ओर सामने बैठा विपक्ष अत्यंत दुर्बल था. वह अपने ही मर्ज की दवा नहीं खोज पा रहा था कि आखिर इतनी शर्मनाक पराजय क्यों हुई. पहला संसदीय सत्र अपने-अपने इसी सुख और दु:ख के अहसास में डूबे रहने के कारण निकल गया. गड़बड़ तो शानदार शुरुआत के बाद पारी के बीच में लड़खड़ाने से हुई. 

दूसरे कार्यकाल में अचानक चुनौतियों के गोले बरसने लगे. कश्मीर के लिए संवैधानिक व्यवस्था के रूप में मौजूद अनुच्छेद-370 हटाने से इसकी शुरुआत हुई. देखा जाए तो यह केवल ढांचे के रूप में ही उपस्थित था. उसके अधिकतर प्रावधान तो कांग्रेसी सरकारों ने नेहरू के जमाने से ही हटाने शुरू कर दिए थे. लेकिन जिस तरह से इसे हटाया गया उससे प्रतिपक्ष आहत था. जब संवैधानिक व्यवस्था में कोई संशोधन किया जाए तो विपक्ष को भरोसे में लेना लोकतंत्र का तकाजा है. 

यकीनन यह प्रतिपक्ष का अनादर था. इसके बाद गलवान घाटी में चीन के साथ खूनी संघर्ष हुआ. यह हालत कई दशक बाद बनी थी. बड़ी संख्या में फौजी शहीद हुए. तब से आज तक चीन सीमा पर तनाव है. अनेक सवालों के जवाब अनुत्तरित हैं. इसी दरम्यान किसान कानून पास कराए गए. समूचे देश ने प्रक्रिया परदे पर देखी. मतदाता के मन में इन कानूनों के बारे में बना संदेह अभी तक साफ नहीं हुआ. 

शांतिपूर्ण किसान आंदोलन से निपटने में एक के बाद एक गलतियां हुईं. फिर एक बार प्रश्न खड़ा हुआ कि शानदार बहुमत प्राप्त सरकार को आखिर किससे खतरा है. इसी बीच कोरोना का आक्रमण हुआ. उसने रही-सही कसर पूरी कर दी. केंद्र और अनेक प्रदेश सरकारों की नाकामियां उजागर हो गईं. विफलता का संदेश ठेठ अंदरूनी ठिकानों तक पहुंचा. मुद्दों के चक्रव्यूह में घिरी सरकार ने पूरब-पश्चिम के दो बड़े मोर्चे खो दिए. 

महाराष्ट्र और बंगाल में साम, दाम, दंड, भेद के बावजूद हार मिली. अब उत्तर प्रदेश का किला बचाने की चुनौती है. अफसोस कि इस विराट महादेश में भी पांसे उल्टे पड़ रहे हैं. उधर, उत्तर पूर्व में असम और मिजोरम शत्नु देशों की तरह लड़ रहे हैं. दोनों प्रदेशों के बीच तनाव से त्रिपुरा भी अशांत हो गया है. आजादी के बाद कभी ऐसी स्थिति नहीं बनी.

हाल यह है कि जिस हुकूमत ने पारी का आगाज शानदार किया था, वह अचानक बैकफुट पर आ गई है. ऐसे में सवालिया निगाहों का सामना वह संसद में कैसे करे ? यदि प्रतिपक्ष पेगासस मामले पर संसद नहीं चलने दे रहा है तो इसमें सरकार की भलाई है. अनगिनत यक्ष प्रश्न आते और उनके उत्तर संसद का दस्तावेज बन जाते. 

लब्बोलुआब यही है. चुनाव किसी भी सरकार का लिटमस टेस्ट होते हैं. सियासी समीकरण संतुलित करने में व्यस्त सांसद-सरकार-विपक्ष भूल जाते हैं कि उनके रवैये से उस मंदिर की नींव कमजोर हो रही है, जो आजादी के बाद रखी गई थी. संसद की सामान्य कामकाज समिति ने 1955 में 100 दिन अनिवार्य कामकाज पर जोर दिया था. समिति की सिफारिशों पर नेहरू सरकार ने अमल किया. 

लोकसभा की 677 और राज्यसभा की 565 बैठकें हुईं. कुल 3784 घंटे काम हुआ. पहली संसद का औसत 135 दिन निकलकर आया. इंदिरा गांधी के जमाने में 1971-1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे काम हुआ. उस समय आबादी सिर्फ 41 करोड़ थी. जीरे की तरह की समस्याएं ऊंट के बराबर हो चुकी हैं. 

आबादी डेढ़ सौ करोड़ तक पहुंच रही है. चुनौतियों का पहाड़ विकराल है. ऐसे में संसद को कम से कम छह महीने काम करना चाहिए. सांसद जब पूरे महीने का वेतन लेते हैं तो मुल्क उनसे परिणाम की अपेक्षा भी करता है. इसमें अनुचित क्या है.

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