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राजेश बादल का ब्लॉग: पहली बार मानसून सत्र के लिए अनूठी चुनौतियां

By राजेश बादल | Updated: September 9, 2020 14:09 IST

कोरोना संकट के इस दौर में संसद चलाना एक मुश्किल चुनौती है. हालांकि, इसके बावजूद पक्ष और प्रतिपक्ष एक मंच पर खड़े नजर आ रहे हैं, ये अच्छी बात है. प्रश्नकाल और शून्यकाल को लेकर कुछ विवाद जरूर उठे हैं.

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ठळक मुद्देकोरोना संकट के बीच 14 सितंबर से शुरू हो रहा है संसद का मानसून सत्रकम समय में अधिक काम का होगा लक्ष्य, शनिवार और रविवार को भी काम करने पर सांसद सहमत

संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं सोचा होगा कि लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद में कामकाज भी कभी मुश्किल भरा हो सकता है. इतने कठिन हालात तो जंग जैसे आपातकाल में भी नहीं बने थे. यह सकारात्मक है कि इस असाधारण परिस्थिति में पक्ष और प्रतिपक्ष एक मंच पर साथ खड़े नजर आ रहे हैं. 

आंतरिक कार्यशैली से परिचित लोग जानते हैं कि अनेक अवसरों पर राज्यसभा और लोकसभा के सचिवालय आमने-सामने आ जाते हैं और एक तरह से टकराव की नौबत आ जाती है, लेकिन इस बार कोरोना - काल का मुकाबला दोनों सदन बेहद संजीदगी से कर रहे हैं. लेकिन प्रश्नकाल नहीं रखने के फैसले पर सवाल भी उठाए जा रहे हैं.  

हालांकि इसको लेकर विपक्ष के विरोध के बाद संसदीय मामलों के मंत्री प्रहलाद जोशी ने कहा है कि लोकसभा स्पीकर से अनुरोध किया गया है कि सत्र के दौरान सांसदों को अतारांकित प्रश्न की अनुमति दी जाए. प्रश्नकाल वास्तव में सदन के कार्य संचालन के नियम 41 ( 2 ) के तहत निर्धारित किया गया था. यह सरकार के काम का मूल्यांकन करने का अवसर चुने गए जनप्रतिनिधियों को देता है. 

प्रश्नकाल पर रार

स्वतंत्रता से पहले हिंदुस्तान में गोरी हुकूमत के तहत निर्वाचित परिषदें काम करती थीं. उनमें सदस्यों के अनेक श्रेणियों की जानकारी हासिल करने पर पाबंदी थी. यह व्यवस्था जनप्रतिनिधियों को जानने के हक से वंचित करती थी. 

इसके अलावा सरकार के लिए असुविधाजनक मसलों को सदन में उठाने से भी रोकती थी. आजादी के बाद यह अधिकार बहाल किया गया. मानसून सत्र के लिए इस बार जिस तरह अभूतपूर्व इंतजाम किए जा रहे हैं, तो सत्र की अवधि बढ़ाकर सांसदों को इस खास अधिकार का उपयोग करने दिया जा सकता था.

कमोबेश इसी तरह का मामला शून्यकाल का समय एक घंटे से घटाकर आधा घंटे करने का है. शून्यकाल में सदस्य बिना पूर्व सूचना के लोकहित और देशहित से जुड़ा मामला उठाते हैं. यह भी स्वीकार किया गया था कि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जिनके मुद्दे संसद की कार्यसूची में शामिल होने के लिए तरसते  रहते हैं. कुछ सांसद या तो पहली बार निर्वाचित होने के कारण अथवा संसदीय प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने से अपने विषय नहीं उठा पाते. 

शून्यकाल की व्यवस्था का यह भी एक कारण था. इसमें जरूरी मुद्दे को दस दिन की पूर्व सूचना का नोटिस दिए बिना उठा सकते हैं. आम तौर पर यह प्रश्नकाल के बाद एक घंटे की अवधि का होता रहा है. एक संसद सदस्य को आम तौर पर तीन मिनट में बात समाप्त करनी होती है.

बहुत कम मौकों पर हुई है प्रश्काल या शून्यकाल से छेड़छाड़

दरअसल 1952 में पहले आम चुनाव के बाद संसद का औपचारिक गठन होने से लेकर आज तक सिर्फ पांच या छह बार प्रश्नकाल और शून्यकाल के साथ छेड़छाड़ की गई है क्योंकि इन दोनों व्यवस्थाओं को एक तरह से संसद सदस्य को प्राप्त विशेष अधिकार भी माना जाता रहा है. सभी निर्वाचित और मनोनीत सदस्य इनके मार्फत मुल्क के किसी अनछुए विषय को उठा सकते हैं और अपने इलाकों के लंबित मसलों पर संबंधित मंत्री, मंत्रलय और अधिकारियों को प्रश्नों के घेरे में ला सकते हैं. 

अनुभव बताता है कि स्थानीय स्तर का सवाल जैसे ही संसद में प्रश्नकाल के लिए स्वीकार किया जाता है तो उस क्षेत्र की अफसरशाही के हाथ-पांव फूल जाते हैं. संसद से चाही गई जानकारी का गलत उत्तर उनकी नौकरी के दामन को हमेशा के लिए दागदार बना सकता है, इसलिए अधिकारी भी सावधान रहते हैं. प्रश्नकाल और शून्यकाल की उपयोगिता लोकतांत्रिक नजरिये से बहुत महत्वपूर्ण है.

इस क्रम में सदन के दिनों में शुक्रवार को सदस्यों के लिए गैर सरकारी विधेयक (प्राइवेट मेंबर बिल) का समय निर्धारित है. जिस तरह मंत्री संसद और विधानसभाओं में विधेयक रखते हैं, उसी तरह सांसदों और विधायकों को बाकायदा विधेयक पेश करने का अधिकार भारत का संविधान देता है. इसे विधेयक की तकनीकी शक्ल देने के लिए जनप्रतिनिधि सचिवालय की मदद लेते हैं. 

यद्यपि सांसद आज तक बमुश्किल चौदह बार ही अपने विधेयक पास करा कर कानूनी रूप देने में कामयाब रहे हैं लेकिन आम सांसद को यह हक भी इस मानसून सत्र में हासिल नहीं होगा. इस अवसर का लाभ उठाकर सदस्य अपने मौलिक और लोक महत्व के विषयों को सदन के सामने रख सकते थे. इससे वंचित संसद सदस्य यकीनन खुश नहीं होंगे.

कम समय में अधिक काम का लक्ष्य

यह राहत देने वाली सूचना हो सकती है कि मात्र अठारह दिनों के छोटे से सत्र में सभी माननीय शनिवार और रविवार को भी काम करने पर सहमत हो गए हैं. आपात स्थितियों में पहले भी इस संस्था ने अवकाश के दिनों में बैठकें जारी रखी हैं. इसलिए कम समय में अधिक से अधिक काम पूरा करने का लक्ष्य दोनों सदनों के मुखिया कर लें तो कोरोना काल के दरम्यान पनपे विकराल विषयों पर विशद चर्चा हो सकती है. 

हकीकत यह है कि बीते छह महीनों के कम से कम आधा दर्जन मामले ऐसे हैं, जो अपने आप में संसद का आपात सत्र बुलाने का आधार बनते हैं. मसलन कोरोना से निपटने में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका पूरे सत्र का मुद्दा है. इसके बाद महामारी से उपजी आर्थिक मंदी को पटरी पर लाना बड़ी चुनौती है. इसके लिए एक मजबूत राष्ट्रीय संकल्प की आवश्यकता है. बेरोजगारी भयावह आकार ले चुकी है. राष्ट्र में यह समस्या पहले ही अत्यंत विकट थी. 

कोरोना में करोड़ों के रोजगार छिन गए हैं. इनमें पढ़े लिखे और कम पढ़े लिखे श्रमिक भी हैं. यह ऐसा विराट मसला है, जो आने वाले दिनों में खौफनाक मंजर दिखाने वाला है. उससे निपटना नियंताओं की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए. इसी तरह चीन के साथ तनाव भी अलग सत्र की मांग करता है. इस पर ध्यान देना ही होगा.

 

टॅग्स :कोरोना वायरससंसदसंसद मॉनसून सत्र
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