राजेश बादल का ब्लॉग: प्राथमिकताएं हाशिये पर डालने के बड़े नुकसान

By राजेश बादल | Updated: December 17, 2019 11:20 IST2019-12-17T11:20:29+5:302019-12-17T11:20:29+5:30

नागरिक संशोधन कानून का असर पूरे उपमहाद्वीप में पड़ेगा. भारत के पड़ोसियों में इन दिनों बांग्लादेश और भूटान  के साथ ही उसके गहरे दोस्ताना ताल्लुक बचे हैं. अब इस कानून से बांग्लादेश भी खिन्न दिखाई दे रहा है.

Rajesh Badal blog | राजेश बादल का ब्लॉग: प्राथमिकताएं हाशिये पर डालने के बड़े नुकसान

राजेश बादल का ब्लॉग: प्राथमिकताएं हाशिये पर डालने के बड़े नुकसान

नागरिकता संशोधन कानून पर यह देश कोई अस्वाभाविक प्रतिक्रिया नहीं कर रहा है. सवा सौ करोड़ की विराट आबादी वाले मुल्क में जब इस तरह का फैसला होता है तो वह सिर्फ उस देश पर ही असर नहीं डालता, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप में आवेग और ज्वार पैदा करता है. इसीलिए बड़े राष्ट्र इस तरह के निर्णय सोच-समझकर करते हैं.

नागरिक संशोधन कानून का असर पूरे उपमहाद्वीप में पड़ेगा. भारत के पड़ोसियों में इन दिनों बांग्लादेश और भूटान  के साथ ही उसके गहरे दोस्ताना ताल्लुक बचे हैं. अब इस कानून से बांग्लादेश भी खिन्न दिखाई दे रहा है. बड़ा देश होने के नाते भारत के लिए पड़ोसियों के हाल समझना भी निहायत जरूरी है. पाकिस्तान को छोड़ दीजिए, लेकिन अन्य देशों से रिश्ते बेहतर बनाना सिर्फउन देशों की ही जिम्मेदारी नहीं है.

हमारा रवैया भी बहुत मायने रखता है. कई बार जरूरी मसलों को ठंडे बस्ते में दबाकर रखना भी एक किस्म का समाधान ही होता है. अगर पूर्ववर्ती सरकारों ने इस तरह के कदम उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि उन सरकारों में साहस नहीं था और वर्तमान सरकार ही बहादुरी के कीर्तिमान रच रही है.

इसके उलट यह भी एक अध्ययन का विषय होना चाहिए कि इस तरह के फैसले अब तक नहीं लिए गए तो कारण क्या थे? क्या उनसे भारतीय समाज का संवैधानिक तानाबाना बिखरने का खतरा था? समझना होगा कि कुछ विषय हर देश के सामने होते हैं, जिन पर निर्णय लेने के लिए किसी डॉक्टर ने नहीं कहा होता.

दरअसल किसी भी राष्ट्र की सरकार को अस्तित्व में आते ही दो श्रेणियों के मुद्दों का सामना करना होता है. एक तो तात्कालिक महत्व के विषय होते हैं. ये विषय फौरन ही ध्यान खींचने की आशा रखते हैं. उन्हें समय रहते निपटा लिया जाए तो वे नासूर नहीं बनते. दूसरे विषय स्थायी होते हैं. अर्थात उन पर ताबड़तोड़ फैसला न  किया जाए तो भी देश की सेहत पर कोई बहुत दुष्प्रभाव नहीं पड़ता.

अक्सर ऐसे विषय अपना समय और समाधान का जरिया ख़ुद चुन लेते हैं. मुश्किल तो तब होती है, जब इनकी श्रेणियां बदल दी जाती हैं. यानी तात्कालिक महत्व के मसलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए और स्थायी मसलों को आपात समस्या मानकर युद्ध स्तर पर कार्रवाई की जाए. यह कुछ-कुछ दिन के काम रात में और रात के काम दिन में करने जैसा है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्नी इमरान खान इन दिनों क्या कुछ ऐसा ही नहीं कर रहे हैं? अपने देश की आर्थिक बदहाली और अंदरूनी समस्याओं को सुलझाने के स्थान पर वे अपनी अवाम का ध्यान कश्मीर और नागरिकता संशोधन कानून की ओर खींच रहे हैं.

इधर हाल के कुछ वर्षो में देखा जा रहा है कि भारत ही नहीं, समूचे संसार के देशों में उनकी अपनी प्राथमिकताएं गड्डमड्ड हो रही हैं. अपना अंतर्राष्ट्रीय आकार बड़ा करने या अवाम का ध्यान अपनी नाकामियों से हटाने के लिए छोटी समस्या के सामने एक नई बड़ी समस्या को जन्म देने से फौरी तौर पर समाधान तो हो जाता है लेकिन फिर छोटी समस्या धीरे-धीरे खतरनाक रूप लेती रहती है.

बड़ी समस्या खड़ी करने से मुल्क चुनौतियों के ऐसे जाल में उलझ जाता है कि उससे निकलना असंभव सा हो जाता है. भारत कुछ इसी तरह के जाल में उलझता नजर आ रहा है. आधुनिक भारत की एक पेशेवर तस्वीर प्रस्तुत करने के बजाय हम गड़े मुर्दो की राख का प्रदूषण फैलाने में लगे हैं.  

मैं आंकड़ों के जंगल में नहीं भटकना चाहता, लेकिन साफ कह सकता हूं कि हिंदुस्तान में इस समय कुछ समस्याओं से निपटने के लिए देश की सियासत को युद्ध स्तर पर काम करने की जरूरत है. बेरोजगारी इतने विकराल रूप में आजादी के बाद कभी नहीं रही. नवयुवकों के हाथ में काम नहीं आ रहा है. उल्टे बड़ी तादाद में लोगों के रोजगार छूटे हैं.

भारत के विशाल आकार के हिसाब से बड़ा और चुस्त प्रशासनिक अमला हमारे पास नहीं है. हर विभाग में बड़ी तादाद में पद खाली पड़े हैं. जो खाली हो रहे हैं उन्हें भरा नहीं जा रहा है. बढ़ते अपराधों का गंभीर आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि जवान ख़ून का असंतोष एक नए किस्म की खतरे की घंटी बजा रहा है. अब तो यह पढ़ा-लिखा युवा खेती में भी अपना भविष्य नहीं देखता.

कृषि पहले ही दम तोड़ने की स्थिति में है. उत्पादन वृद्धि के आंकड़े अब दिल को ठंडक नहीं पहुंचाते. प्राथमिक और स्कूली शिक्षा के स्तर में गिरावट सत्ता के शिखरों से नजर नहीं आती. हमारे नौनिहालों की नींव खोखली सी है. अच्छे शोध और शिक्षकों का उत्पादन हम नहीं कर पा रहे हैं. स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है.

सरकारी स्कूल और अस्पताल हमें जैसे बोझ लगने लगे हैं. पानी और बिजली की खेती जिस रफ्तार से होनी चाहिए, नहीं हो रही है. औद्योगिक कुपोषण दूर करने की योजनाएं जमीन पर नहीं दिखाई दे रही हैं. इन तात्कालिक महत्व के विषयों पर ध्यान न देकर नागरिकता संशोधन कानून की फौरी जरूरत क्या थी? अगर इसके पीछे वोट की राजनीति और तुष्टिकरण की नीति नहीं है तो यकीनन इस फैसले को इसी समय करने के पीछे का कारण देश जानना चाहेगा.

सत्ता के शिखरों को देश की सर्वोच्च प्राथमिकताओं के बारे में  फिर से मंथन करना चाहिए. नई झंझटें खड़ी करने के बजाय मौजूदा चुनौतियों से निपटने पर ही सारी मशीनरी ध्यान दे, इसी में देश की भलाई है.

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