पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: जनता ने चुना है, पांच साल तक कोई न टोके!

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 3, 2018 08:05 AM2018-11-03T08:05:35+5:302018-11-03T08:05:35+5:30

सरकार को तो जनता ने ही चुना है। सीबीआई के मामले में वित्त मंत्नी अरुण जेटली ने कहा कि चुनी हुई सरकार से बड़ा दूसरा कोई कैसे हो सकता है। संस्थानों में ठीक से काम हो यह सरकार नहीं तो और कौन देखेगा।

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पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: जनता ने चुना है, पांच साल तक कोई न टोके!

याद कीजिए सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर जब कॉलेजियम का सवाल उठा तो सरकार ने जनहित का हवाला दिया। सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को जब छुट्टी पर भेजा गया तो भी सरकार ने जनहित का हवाला दिया। और अब रिजर्व बैंक पर सेक्शन-7 लागू करने की बात है तो भी जनहित का ही हवाला दिया जा रहा है। और तीनों ही मामलों में ये भी याद कीजिए सरकार की तरफ से कब कब क्या क्या कहा गया। कॉलेजियम का जिक्र कानून मंत्नी रविशंकर प्रसाद ने यह कहकर किया कि जजों की नियुक्ति में सरकार का दखल क्यों नहीं हो सकता। 

सरकार को तो जनता ने ही चुना है। सीबीआई के मामले में वित्त मंत्नी अरुण जेटली ने कहा कि चुनी हुई सरकार से बड़ा दूसरा कोई कैसे हो सकता है। संस्थानों में ठीक से काम हो यह सरकार नहीं तो और कौन देखेगा। रिजर्व बैंक के मामले में तो वित्त मंत्नी ये कहने से नहीं चूके कि 2008 से 2014 तक जब रिजर्व बैंक लोन बांट रहा था तब उसे फिक्र  नहीं थी। यानी स्वायत्त संस्था या संवैधानिक संस्था खुद कितने निर्णय ले सकती है या फिर सत्ता-सरकार चाहे तो कैसे संवैधानिक संस्थाओं को मिलने वाले हकों की धज्जियां खुले तौर पर उड़ाई जा सकती है उसका खुला नजारा ही मौजूदा वक्त में देश के सामने है। 

फिर भी सरकार यह सवाल लगातार कर रही है कि किसी भी संस्था के भीतर जब कुछ गड़बड़ी है तो सरकार नहीं तो और कौन देखेगा? क्योंकि आखिर जनता के प्रति तो सरकार ही जिम्मेदार है। जाहिर है यह तर्क सही लग सकता है। लेकिन संस्थान किस तरह से कौन से मुद्दों को उठा रहे थे या कौन से मुद्दे संस्था-सरकार के टकराव के कारण बने, गौर इस पर भी करना जरूरी है। क्योंकि संवैधानिक या स्वायत्त संस्था अगर सरकार की ही गड़बड़ियों की जांच कर रही हो या फिर सत्ता-सरकार कैसे दखल दे सकती है या सत्ता सरकार अगर दखल देती है तो फिर वह खुद को बचाने के लिए जनता से चुन कर आए हैं यह कहने से चूकती नहीं है। यानी जनता ने पांच बरस के लिए चुना है तो पांच बरस तक मनमानी की छूट दी नहीं जा सकती है। इसीलिए तो संवैधानिक संस्थाओं को बनाया गया। 

यानी सुप्रीम कोर्ट में एक वक्त चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ चार जस्टिस सार्वजनिक तौर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने इसलिए निकल पड़े क्योंकि जो भी मुख्य मुकदमे सरकार से जुड़े थे उनकी सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्र अपनी अदालत में ही कर रहे थे। यानी रजिस्टर ऐसा बनता कि सारे मुख्य मुकदमे चीफ जस्टिस की नंबर एक अदालत में ही जाते और मौजूदा चीफ जस्टिस गोगोई उस वक्त यह कहने से नहीं चूके थे कि ‘लोकतंत्न खतरे में है।’  फिर सीबीआई में जो हो रहा था और कैसे राफेल मामले के लिए छुट्टी पर भेजे गए सीबीआई डायरेक्टर फाइल खोलने जा रहे थे और कैसे स्पेशल डायरेक्टर की नियुक्ति ही सत्ता की तरफ से अलग से कर दी गई। यानी कठघरे में सरकार ही थी। पर उसने फिक्र दिखाई संस्थाओं से ज्यादा बड़ी चुनी हुई सरकार की साख को लेकर और कुछ इसी तर्ज पर रिजर्व बैंक की राह चल पड़ी है। आजाद भारत के इतिहास में ऐसा मौका कभी आया नहीं है कि सेक्शन-7 के तहत सत्ता - सरकार ही रिजर्व बैंक को भी निर्देश देने लगे। यानी एक तरफ रिजर्व बैंक अपने आप में एक स्वायत्त निकाय है और सरकार से अलग अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्न है, लेकिन कुछ तय स्थितियों में इसे सरकार के निर्देश सुनने पड़ते हैं। इस कड़ी में आगे की स्थिति यह है कि सेक्शन-7 लागू कर दिया जाए। इस सेक्शन के तहत न सिर्फ सरकार निर्देश देती है बल्कि रिजर्व बैंक के गवर्नर की ताकत भी खत्म हो जाती है। 

सरकार बैंकिंग प्रणाली के उस चेहरे को स्वीकार चुकी है, जिसमें अरबों रुपए का कर्जदार पैसे न लौटाए क्योंकि क्रेडिट इनफॉर्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लिमिटेड यानी सिबिल के मुताबिक इससे 1,11,738 करोड़ का चूना बैंकों को लग चुका है। 9339 कर्जदार ऐसे हैं जो कर्ज लौटा सकते हैं पर लौटाने से इंकार कर दिया।  पिछले बरस सुप्रीम कोर्ट ने जब इन डिफॉल्टरों का नाम पूछा तो रिजर्व बैंक की तरफ से कहा गया कि जिन्होंने 500 करोड़ से ज्यादा का कर्ज लिया है और नहीं लौटा रहे हैं उनके नाम सार्वजनिक करना ठीक नहीं होगा। यानी जो कर्ज लेकर न लौटाए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई नहीं, उल्टे सरकार बैंकों को मदद कर रही है कि वह अपनी बैलेंस शीट से अरबों रुपए की कर्जदारी को ही हटा दे।

 तो ऐसे में अगला सवाल यही है कि देश में लोकतंत्न भी क्या रईसों के भ्रष्ट मुनाफे पर टिका है। और दुनिया तो रईसी नापती है रईस कैसे हुए इसे नहीं समझना चाहती। एक तरफ अर्थव्यवस्था का चेहरा इसी नींव पर टिका है जहां सिस्टम ही रईसों के लिए हो और दूसरी तरफ लोकतंत्न का मतलब है पांच बरस के लिए सत्ता पर किसी भी तरह काबिज होना और उसके बाद अपनी मुट्ठी में सारे स्वायत्त- संवैधानिक संस्थानों को कैद कर लेना। और कोई सवाल खड़ा करे तो ठसक से कह देना जनता ने चुना है। पांच साल तक कोई न बोले।

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