चुनावी राजनीति के बीच जनता खुद बने जागरुक 

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: June 21, 2018 05:11 AM2018-06-21T05:11:53+5:302018-06-21T05:11:53+5:30

जनतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति का लक्ष्य सत्ता पाना नहीं, सत्ता के सहारे वर्तमान को सुधारना होता है, ताकि भविष्य को ठोस आधार मिल सके। पर हम चुनाव से चुनाव तक की राजनीति के शिकार हो रहे हैं।

public should be aware for electoral politics in india | चुनावी राजनीति के बीच जनता खुद बने जागरुक 

चुनावी राजनीति के बीच जनता खुद बने जागरुक 

विश्वनाथ सचदेव

अच्छे दिनों की बात तो हम करते रहते हैं, पर अच्छे दिनों की कोई मुकम्मल तस्वीर हमारे पास नहीं है। देश में सुसंगत राजनीतिक विमर्श का वातावरण बने। नेता नहीं करेंगे यह काम, यह काम जनता को करना होगा। जनतंत्र में यही करना होता है। जनता बोले कि हम भरमाए जाने के लिए तैयार नहीं हैं, यही कसौटी है स्वस्थ और सार्थक जनतंत्र की। आप बोलेंगे?  

आगे बढ़ने की यात्ना में पीछे मुड़कर देखना गलत नहीं होता। ऐसा करके ही हम अपने अतीत की कमियों से चेतावनी ले सकते हैं और उसकी विशेषताओं पर गर्व कर सकते हैं। लेकिन भविष्य का ताना-बाना अतीत के सहारे नहीं बुना जा सकता, वर्तमान को संवार कर ही भविष्य के नक्शे में रंग भरे जा सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि ‘हम कौन थे’  का आकलन तो करें, पर ‘क्या हो गए हैं’ हमारी चेतना और चिंता का विषय होना चाहिए। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की बहु उद्धृत पंक्तियां हैं, ‘हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी/ आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी’। क्या थे या क्या हैं, इसे जानना-समझना जरूरी है, पर ‘क्या थे’  के सहारे ‘क्या होंगे’  का आग्रह  ‘क्या हैं’  को न समझने की जिद का ही परिणाम है।
 
हमारे आज की हकीकत यह है कि सारी प्रगति के बावजूद एक तिहाई भारतीय रात को भूखे पेट सोते हैं। धर्म और जाति के नाम पर बंटे हुए हैं हम। देश की आधी आबादी पच्चीस वर्ष से कम उम्र की है, और हमारी त्नासदी यह है कि अपनी इस युवा पीढ़ी के लिए हमारे पास पर्याप्त रोजगार नहीं है। इतिहास बनाने की बजाय इतिहास को बदलने की एक अंधी दौड़ में शामिल हैं हम। अच्छे दिनों की बात तो हम करते रहते हैं, पर अच्छे दिनों की कोई मुकम्मल तस्वीर हमारे पास नहीं है। धीर-गंभीर विचारों के आधार पर चलने वाली राजनीति को हम नारों और जुमलों के सहारे चलाने में लगे हुए हैं। ऐसा लग रहा है जैसे हमारे प्रजातंत्न को अर्थवान बनाने वाली समूची राजनीति असंगतियों के जाल में उलझती जा रही है। 

जनतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति का लक्ष्य सत्ता पाना नहीं, सत्ता के सहारे वर्तमान को सुधारना होता है, ताकि भविष्य को ठोस आधार मिल सके। पर हम चुनाव से चुनाव तक की राजनीति के शिकार हो रहे हैं। वैसे तो पिछले चार साल में कुल मिलाकर देश में चुनाव की राजनीति ही होती रही है, पर लगभग साल भर बाद होने वाले आम-चुनाव की दस्तक ने इस प्रक्रि या को और तेज कर दिया है। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों, पूरी ताकत के साथ चुनावी गणित के समीकरणों को समझने-बनाने में लग गए हैं। सवाल उठता है कि इस प्रक्रिया में हमारे राजनीतिक दल जो मुद्दे उठा रहे हैं, जो बहसें चला रहे हैं, वे हमारे भविष्य को संवारने में मददगार साबित होंगे भी या नहीं? क्या यह सच्चाई नहीं है कि जब आम-चुनाव सिर्फ साल भर दूर हों, तो हमारी चिंता और चिंतन के विषय देश की शिक्षा-नीति, स्वास्थ्य-नीति, बेरोजगारी की समस्या, कृषि-क्षेत्न की त्नासदी जैसे मुद्दे होने चाहिए? लेकिन हमारे यहां क्या हो रहा है?
 
इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर यह है कि हम जातियों के अंकगणित में उलझे हुए हैं, धर्म के आधार पर वोटों की गिनती करने में लगे हुए हैं। अतीत के गुणगान से अपना भविष्य बनाना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे पास वर्तमान की उपलब्धियों के नाम पर कुछ है नहीं। हमने सौ उपग्रह एक साथ स्थापित किए हैं अंतरिक्ष में, लेकिन अपने किसी महाकाव्य में पुष्पक विमान का उल्लेख अथवा किसी संजय का आंखों देखा हाल सुनाना हमें बड़ी उपलब्धि लगती है।  मान भी लें कि ये सब वास्तविकता थी, पर इससे क्या हमारा आने वाला कल सुरक्षित हो जाएगा? जरूरत आज की स्थितियों को समझकर आने वाले कल के बारे में सोचने की है और हम इस सवाल में उलझे हुए हैं कि हमारे इतिहास का कौन-सा पात्न महान था और कौन-सा नहीं। महापुरुषों की महानता प्रेरणा देती है, पर आवश्यकता मेरे या तेरे महापुरुष के विवाद से ऊपर उठकर स्वयं को उससे प्रेरणा पाने का सुपात्न बनाने की है। यह सब भी हमारी राजनीति की चिंता का विषय होना चाहिए पर हमारे राजनेता, हमारे राजनीतिक दल सत्ता की राजनीति में इस कदर डूबे हुए हैं कि वे यह भूल गए हैं कि देश के राजनीतिक विमर्श को गहराई देने की आवश्यकता है। 

हमारी त्नासदी यह भी है कि आज देश में राजनेताओं की भीड़ में नेता तलाशना असंभव की हद तक मुश्किल होता जा रहा है। नेता वह होता है जिसका व्यक्तित्व और कृतित्व प्रेरणा देता हो, विश्वास जगाता हो, जिसमें हम अपने प्रश्नों के उत्तर पा सकें। आज तो जो स्थिति बनाई जा रही है, उसमें सवाल उठाना ही एक अपराध होता जा रहा है। हमारे सोच में असहिष्णुता का स्तर इतना बढ़ गया है कि सवाल उठाने वाला देशद्रोही मान लिया जाता है। 
 
सोच और वरण की स्वतंत्नता का सवाल उठाने की प्रवृत्ति और महत्ता में सीधा संबंध है। इस स्वतंत्नता की रक्षा होनी ही चाहिए, लेकिन जो वातावरण आज देश में बन रहा है, वह इस स्वतंत्नता का समर्पण मांगने वाला है। सत्ता की राजनीति करने वालों को उसमें कुछ गलत नहीं लगता, लेकिन आने वाले कल को बेहतर बनाने की राजनीति में विश्वास करने वाले का दायित्व बनता है कि वह सत्ता की राजनीति की दुरभिसंधियों को समझ नेतृत्व हमें जो परोस रहा है, उसे स्वीकारने से पहले उसे परखना हमारा दायित्व है।
 
जनतंत्न की एक शर्त होती है निरंतर जागरूकता। यह शर्त हर ईमानदार नागरिक को निभानी होती है। तभी जनतंत्न सार्थक बनता है। इस जागरूकता का एक पैमाना यह है कि हम नेतृत्व की उपलब्धियों की दावेदारी को आंख बंद करके न स्वीकारें। उनके नारे, उनकी घोषणाएं हमें भरमाने वाली हो सकती हैं, इसलिए सवाल उठाने जरूरी हैं। यह पूछना जरूरी है कि सड़कों का बनना ही प्रगति है अथवा इन सड़कों का लक्ष्य तक पहुंचाना? गति महत्वपूर्ण है, लेकिन उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है गंतव्य। पूछना यह भी जरूरी है कि अतीत के जय-गान मात्न से भविष्य कैसे बनेगा? हकीकत यह है कि देश का समूचा राजनीतिक अतीत की महानता की दुहाई देकर जाने-अनजाने उस वातावरण के निर्माण में सहायक हो रहा है, जिसमें समाज का भाईचारा बिखरने का खतरा है। इस खतरे से हम बचें, इसके लिए जरूरी है कि देश में सुसंगत राजनीतिक विमर्श का वातावरण बने। नेता नहीं करेंगे यह काम, यह काम जनता को करना होगा. जनतंत्न में यही करना होता है। जनता बोले कि हम भरमाए जाने के लिए तैयार नहीं हैं, यही कसौटी है स्वस्थ और सार्थक जनतंत्न की। आप बोलेंगे?  

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Web Title: public should be aware for electoral politics in india

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