प्रमोद भार्गव का ब्लॉग": मंदिर पर संघ के दबाव का औचित्य

By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Updated: October 24, 2018 07:23 IST2018-10-24T07:23:17+5:302018-10-24T07:23:17+5:30

संघ यदि वाकई कानून के जरिए मंदिर बनवाने का इच्छुक था, तब उसे मोदी सरकार के पांचवें साल में ही मंदिर निर्माण की याद क्यों आई? भागवत ने यहां तक कहा है कि मंदिर निर्माण नहीं हुआ तो देश में सद्भावना और एकता कायम नहीं रह पाएगी। 

Pramod Bhargava's blog ": Justification of the Sangh's pressure on the temple | प्रमोद भार्गव का ब्लॉग": मंदिर पर संघ के दबाव का औचित्य

प्रमोद भार्गव का ब्लॉग": मंदिर पर संघ के दबाव का औचित्य

 जब राम मंदिर मामले की नियमित सुनवाई 29 अक्तूबर से सर्वोच्च न्यायालय में होने जा रही है, तब एकाएक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा यह कहना कि कानून के जरिए अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की बाधा दूर करनी चाहिए, समझ से परे है।  

इससे लगता है कि आम चुनाव निकट आने और पांच राज्यों में चल रही विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया में मतदाता को प्रभावित करने की दृष्टि से इस मुद्दे को जानबूझकर उछाला जा रहा है।  इस बयान से यह भी संदेश जाता है कि संघ नरेंद्र मोदी सरकार पर मंदिर निर्माण के लिए दबाव बना रहा है।  

संघ यदि वाकई कानून के जरिए मंदिर बनवाने का इच्छुक था, तब उसे मोदी सरकार के पांचवें साल में ही मंदिर निर्माण की याद क्यों आई? भागवत ने यहां तक कहा है कि मंदिर निर्माण नहीं हुआ तो देश में सद्भावना और एकता कायम नहीं रह पाएगी। 

 जबकि नई दिल्ली में पिछले माह ही ‘भविष्य का भारत-संघ का दृष्टिकोण’ आयोजन में भागवत ने कहा था कि ‘भारत में शक्ति का केंद्र भारतीय संविधान है, इसके अलावा और कुछ नहीं। ’ ऐसे में संघ की अधीरता समझ से परे है।     

अयोध्या के राम मंदिर विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही 1994 के फैसले को यथावत रखते हुए इस मामले की सुनवाई में आ रही बाधा को हाल ही में दूर करते हुए 29 अक्तूबर से इस मसले पर नियमित सुनवाई का फैसला लिया है।  

 भगवान राम के जन्मस्थल से जुड़ा हुआ यह विवाद एक ऐसा प्रकरण है, जिसने भारतीय समाज और उसकी मानसिकता को उद्वेलित किया हुआ है।  इस दृष्टि से मामले की संवेदनशीलता का अनुभव न्याय पालिका ने हरेक मुद्दे पर किया है।  तब तीन सदस्यीय पीठ ने अपना फैसला दो-एक के बहुमत से दिया था।

  तीसरे न्यायमूर्ति एस। ए।  नजीर ने जरूर कहा है कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है, गोया इस विषय में धार्मिक आस्था को भी रेखांकित करना चाहिए।  
यह स्थापित तथ्य है कि अदालत आस्था या भावना की बजाय तथ्य और साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुनाती है। 

 इस लिहाज से इस मामले के पहलू को धर्म, आस्था और भावना की दृष्टि से देखना कतई उचित नहीं है।  वैसे भी भारत एक बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक देश होते हुए भी संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष देश है, इसलिए आस्था और धार्मिक भावनाओं को उभारना न्यायसंगत नहीं है।  

बावजूद भागवत ने ताजा विवाद में सद्भावना बिगड़ने की आशंका जताई है, जिसका औचित्य समझ नहीं आता। 

Web Title: Pramod Bhargava's blog ": Justification of the Sangh's pressure on the temple

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