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पालतू बोहेमियन: प्रख्यात साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी की स्मृति शेष, खट्टी-मीठी यादों को पिरोया...

By सतीश कुमार सिंह | Updated: July 19, 2019 19:57 IST

पालतू बोहेमियन: मनोहर श्याम जोशी ऐसे ही अपवाद हैं, जो एक साथ एक ही समय पारंपरिक और आधुनिक दुनिया में निवास करते पाठकों का मनोरंजन करते हैं। जितनी विधाओं में उन्होंने लेखन किया है, वह भी विस्मित करने वाला ही लगता है। पत्रकारिता, संस्मरण, कहानी, उपन्यास के साथ-साथ उन्होंने कविताएं भी लिखीं।

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ठळक मुद्देप्रभात रंजन ने जोशी जी के साथ बिताए अपने संस्मरणों को प्रकाशित कर एक और बड़ी जिम्मेदारी पूरी की है।हिंदी फिल्मों और डेली सोप ओपेरा के लीजेंड्री राइटर मनोहर श्याम जोशी के जीवन से जुड़े अनेक वृत्तांत इस पुस्तक में हैं, जो काफी दिलचस्प हैं।

प्रभात रंजन की पुस्तक ‘पालतू बोहेमियन’। यह कृति प्रख्यात साहित्यकार, पत्रकार और धारावाहिक लेखक मनोहर श्याम जोशी को याद करते हुए लिखी गई है। पुष्पेश पंत ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि हिंदी में ऐसे लेखक अधिक नहीं है, जिन की रचनाएं आम पाठकों और आलोचकों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हो।

मनोहर श्याम जोशी ऐसे ही अपवाद हैं, जो एक साथ एक ही समय पारंपरिक और आधुनिक दुनिया में निवास करते पाठकों का मनोरंजन करते हैं। जितनी विधाओं में उन्होंने लेखन किया है, वह भी विस्मित करने वाला ही लगता है। पत्रकारिता, संस्मरण, कहानी, उपन्यास के साथ-साथ उन्होंने कविताएं भी लिखीं। धारावाहिक टीवी लेखन में उनका नाम अग्रगण्य है। प्रभात रंजन ने ना केवल जोशी जी के लेखन पर अपना शोध कार्य बखूबी पूरा किया, बल्कि शोध कार्य के दौरान जोशी जी के साथ बिताए अपने संस्मरणों को प्रकाशित कर एक और बड़ी जिम्मेदारी पूरी की है। हिंदी फिल्मों और डेली सोप ओपेरा के लीजेंड्री राइटर मनोहर श्याम जोशी के जीवन से जुड़े अनेक वृत्तांत इस पुस्तक में हैं, जो काफी दिलचस्प हैं।

पुस्तक हमें ऐसे व्यक्ति से रूबरू कराती है, जो बेहद साधारण तरीके से अपना जीवन व्यतीत करता है

प्रभात रंजन ने ‘पालतू बोहेमियन’ में मनोहर श्याम जोशी के जीवन के ऐसे छिपे हुए पहलुओं को लाने की सफल कोशिश की है, जिन्हें पाठक जानना चाहते हैं। पुस्तक हमें ऐसे व्यक्ति से रूबरू कराती है, जो बेहद साधारण तरीके से अपना जीवन व्यतीत करता है, लेकिन उसकी असाधारणता उसे दूसरों से अलग करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि वह भीड़ से अलग चलने की चाह रखता है।

वह अपने काम में इतना व्यस्त है कि उसे बिना मतलब के कई कार्यों से कोई लेना-देना नहीं। तभी वह कुशलता के साथ अपने लेखन को नए आयाम देता है। मनोहर श्याम जोशी का व्यक्तित्व निखर कर हमारे सामने आता है, जिससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जाता। वह लिखते हैं कि जोशी जी ने उन्हें अपनी बातों से सहज बना दिया।

वो अलग बात है कि जोशी जी ने उन्हें हिंदी विभागों में होने वाले शोधों को लेकर एक कहानी जरूर सुनाई। जोशी जी के बारे में दिल्ली में टीवी की दुनिया से जुड़े लोग यही कहते थे कि अगर कोई धारावाहिक बनाने के बारे में सोचता भी था तो उसके दिमाग में सबसे पहले मनोहर श्याम जोशी का ही नाम आता था। वह सबसे पहले उनसे मिलने का टाइम लेता था।

'शुभ लाभ' का सारा शोध, सारी कहानी रह गई

प्रभात रंजन लिखते हैं-'शुभ लाभ' का सारा शोध, सारी कहानी रह गई। लेखक-निर्माता के रिश्ते खराब होने लगे और मेरी वह नौकरी जाती रही। टीवी लेखक बनने का सपना उस समय पूरा नहीं हो पाया। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में एक बार फिर से पूर्णकालिक शोधार्थी बन गया।' लेकिन जोशी जी के यहां आते जाते रहे और उनसे काफी कुछ सीखते रहे। जोशी जी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि लोग उनसे प्रभावित हो जाते थे। वह दीवानों की तरह मनोहर श्याम जोशी की रचनाओं को नहीं पढ़ते थे, बल्कि उनके व्यक्तित्व से, उनकी पृष्ठभूमि से जोड़कर पढ़ते थे।

मनोहर श्याम जोशी शंभुदत्त सती से अपनी रचनाएं टाइप करवाते थे। उनकी आखिरी फिल्म 'हे राम' तक शंभुदत्त टाइप करने का काम करते रहे। प्रभात रंजन ने जिक्र किया है कि मनोहर श्याम जोशी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक बने तब उनको बाकायदा एक टाइपिस्ट सहायक के रूप में मिला और उनके लेखन में गति आई। कमलेश्वर जी अपनी उंगलियों में पट्टी बांधकर लिखा करते थे। कमलेश्वर जी ने प्रभात रंजन से कहा था कि जिस दिन में हाथ से लिखना छोड़ दूंगा, मैं लेखन ही नहीं कर पाऊंगा। हिंदी का लेखक 'कलम का मजदूर' ही होता है और उसे लेखन का राजा बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

जोशी जी के पहले दो उपन्यास 'कुरू-कुरू स्वाहा...' और 'कसप' बहुत सुगठित हैं। दोनों हाथ से लिखे गए थे

लेकिन उन्होंने एक बात बाद में कही कि जोशी जी के पहले दो उपन्यास 'कुरू-कुरू स्वाहा...' और 'कसप' बहुत सुगठित हैं। दोनों हाथ से लिखे गए थे। जोशी जी ने अपने जीवनकाल में एक भी उपन्यास या रचनात्मक साहित्य ऐसा नहीं लिखा, जो तथाकथित शुद्ध खड़ी बोली हिंदी में हो। उनका मानना था कि साहित्यिक कृति तो लोग अपनी रुचि से पढ़ते हैं और पत्र पत्रिकाओं को भाषा सीखने के उद्देश्य से। इसलिए उनकी भाषा की शुद्धता के ऊपर पूरा ध्यान देना चाहिए। लेकिन जब भी भाषा की शुद्धता को ध्यान में रखकर रचनात्मक साहित्य लिखा जाता है तो वह लद्धड़ साहित्य हो जाता है।

जोशी जी 21 साल की उम्र में पूर्ण रूप से मसिजीवी बन गए और दूसरी बात यह है कि उनका पहला उपन्यास 47 की उम्र में आया। 1960 के दशक में उन्होंने तीन उपन्यास लिखने शुरू किए, लेकिन कोई पूरा नहीं हो पाया। जोशी जी भविष्य की भी अच्छी खासी समझ रखते थे। उन्होंने बहुत पहले ही कह दिया था कि आने वाले समय में तकनीक हिंदी को विचार की जकड़ से आजाद कर देगी।

मनोहर श्याम जोशी कोई शब्द लिखने से पहले कोश जरूर देखते थे

इस पुस्तक के माध्यम से प्रभात रंजन हमें दूरदर्शन के उस स्वर्णिम काल में ले जाते हैं, जब 'युग' जैसे धारावाहिक खूब चर्चा बटोर रहे थे। उसी दौरान मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखा सीरियल 'गाथा' स्टार प्लस जैसे नए चैनल पर शुरू हुआ था। हालांकि वह उनके द्वारा लिखे 'बुनियाद' जैसी सफलता हासिल नहीं कर पाया। उनका टीवी धारावाहिकों के स्टार लेखक होने का जलवा 'गाथा' के साथ समाप्त हो गया। लेकिन वह मायूस नहीं हुए। इस पर प्रभात रंजन लिखते हैं कि जोशी जी इस बात को समझ चुके थे कि नए दौर के दर्शक वर्ग के अनुकूल वह नहीं लिख पाए। उनके बहुत सारे धारावाहिक, फिल्मों की पटकथा कभी पर्दे पर साकार नहीं हो पाए।

प्रभात रंजन किताब में एक किस्सा बताते हैं कि 'जमीन-आसमान' नामक धारावाहिक की अच्छी शुरुआत के बाद जोशी जी ने उसे इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि इसकी सहायक निर्देशक तनुजा चंद्रा से उनकी ठन गई और इस लड़ाई में महेश भट्ट ने तनुजा चंद्रा का ही पक्ष लिया। यही वजह रही कि 'कजरी' नामक उनके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर कई लोगों ने फिल्म बनाने की सोची मगर उनके 'लड़ाई वाले किस्से' सुनकर कल्पना लाजमी भी पीछे हट गईं।

मनोहर श्याम जोशी कोई शब्द लिखने से पहले कोश जरूर देखते थे। जोशी जी ने प्रभात रंजन से पूछा, ‘हिन्दी लिखने के लिए किस कोश का उपयोग करते हो? मैं इधर-उधर झांकने लगा, क्योंकि कोश के नाम पर तब मैं बस फादर कामिल बुल्के के ‘अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ को ही जानता था। उसकी जो प्रति मेरे पास थी, वह मैंने खरीदी नहीं थी, बल्कि मेरे चचेरे भाइयों ने करीब दस साल उपयोग के बाद मुझे दे दी थी। हिन्दी लिखने के लिए भी कोश देखते रहना चाहिए, यह बात मुझे पहली बार तब पता चली जब मैं हिन्दी में पीएचडी कर रहा था।’

प्रभात रंजन किताब में लिखते है, ‘जोशी जी ने मुझे कथ्य, भाषा, शैली- हर लिहाज से असफल लेखक साबित किया। मैं बहुत दुखी था और मन-ही-मन सोच रहा था कि मेरे समकालीनों में इतने लोगों की कहानियां, कविताएं मार-तमाम छपती रहती हैं, कई पुरस्कृत भी हो चुके थे, उनमें से किसी में उनको किसी तरह की कमी नहीं दिखाई देती थी।’ 

यह पुस्तक गुरु और शिष्य के ऐसे संबंध को भी दर्शाती है, जो  बेहद दिलचस्प है। प्रभात रंजन ने खट्टी-मीठी बातों को अच्छी तरह बखान किया है।

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