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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: चुनाव में गंभीर मुद्दों को उठाने से न कतराएं राजनीतिक दल

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: February 25, 2022 13:55 IST

आजादी के 75वें साल और अमृत-काल में बुनियादी मुद्दों की बात होनी चाहिए थी, पर हम ‘साइकिल’ को आतंकवादी साबित करने में लगे हुए हैं।

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ठळक मुद्देदेश में अभी चुनाव पांच राज्यों में हैं, लेकिन सबकी निगाहें केवल उत्तर प्रदेश पर ही हैं। चुनाव-प्रचार में भाजपा ने हर चरण में अपनी रणनीति बदली है। कोरोना-काल में देश के अस्सी करोड़ लोगों को सरकार ने मुफ्त अनाज दिया था।

चुनाव हो तो देश के पांच राज्यों में रहे हैं, पर निगाहें सबकी उत्तर प्रदेश पर हैं. सबसे बड़ा राज्य है यह प्रदेश. मतदान का सात चरणों में होना ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि दांव पर बहुत कुछ लगा है. इन चुनावों को आगामी आम चुनाव के सेमी फाइनल के रूप में देखा जा रहा है और उत्तर प्रदेश के परिणाम आम चुनावों को काफी हद तक प्रभावित करेंगे. 

इसी को देखते हुए सभी राजनीतिक दल हरसंभव प्रयास कर रहे हैं, पर भारतीय जनता पार्टी ने तो जैसे सारी ताकत ही झोंक दी है. वैसे भी, भाजपा पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनावों को पूरी गंभीरता से लेती रही है, पर इस बार यह गंभीरता कुछ ज्यादा ही है. यूं तो प. बंगाल के चुनाव में भी भाजपा ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उत्तर प्रदेश में किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना उसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा है.

राज्य में चार चरणों का मतदान हो चुका है, तीन चरण बाकी हैं. इस दौरान चुनाव-प्रचार में भाजपा ने हर चरण में अपनी रणनीति बदली है. जहां बाकी राजनीतिक दल महंगाई, बेरोजगारी, नारी-शक्ति जैसे बुनियादी मुद्दों को उछाल रहे हैं, भाजपा हर बार नये नारों के साथ मैदान में उतर रही है. मुख्य मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच है. यहां भी भाजपा लगातार नारे बदल रही है. 

ऊपरी तौर पर भले ही कानून-व्यवस्था और विकास को मुद्दा बताया जा रहा हो, पर ध्रुवीकरण की कोई कोशिश छोड़ी नहीं जा रही है. ऐसी ही एक और कोशिश का अवसर आतंकवादियों के खिलाफ न्यायालय के एक निर्णय ने भाजपा को दे दिया है. आतंकवाद की हर स्तर पर भर्त्सना होनी ही चाहिए पर जिस तरह आतंकवाद को भाजपा ने साइकिल से जोड़ा है, उसे देखकर तो यही लगता है कि अब तक के उठाए मुद्दे उसको कमजोर लगने लगे हैं. इस तरह के प्रयास कहीं न कहीं यही संकेत देते हैं कि हमारे राजनेता गंभीर मुद्दों से बचने की कोशिश करते हैं. महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, चिकित्सा जैसे मुद्दे निश्चित रूप से गंभीर हैं, और इन्हें किसी भी चुनाव का मुद्दा बनना ही चाहिए. गरीबी भी ऐसा ही एक मुद्दा है. यह सही है कि आज से पचास साल पहले की वह स्थिति नहीं है जब ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनाव जीता गया था, पर देश का आम आदमी आज भी गरीबी की मार ङोल रहा है. 

कोरोना-काल में देश के अस्सी करोड़ लोगों को सरकार ने मुफ्त अनाज देकर गरीबी का मुकाबला किया था. इस योजना को भले ही चुनावी-उद्देश्यों से मार्च के महीने तक खींचा गया हो, पर यह एक जरूरी और प्रशंसनीय कार्रवाई थी. 

लेकिन, सवाल तो यह भी उठता ही है कि देश की अस्सी करोड़ जनता की आर्थिक स्थिति इतनी खराब कैसे हो गई कि विकास के सारे दावों के बावजूद उसे मांग कर खाने की स्थिति में जीना पड़ रहा है? जहां आबादी के इतने बड़े हिस्से को जरूरत के लिए मुफ्त अनाज पहुंचाना एक प्रशंसनीय कार्रवाई है, वहीं इस आबादी का भीख मांगने की स्थिति में होना विकास के हमारे दावों का खोखलापन ही उजागर करता है. 

यह गंभीर स्थिति है और हमारे नेतृत्व को इस बारे में सोचना ही चाहिए. बुनियादी आवश्यकता 130 करोड़ जनता की भूख मिटाना है, उसे सही और उचित शिक्षा देनी है, उसके स्वास्थ्य की चिंता करनी है, युवाओं के समुचित रोजगार की व्यवस्था करनी है. विपक्ष का दायित्व है कि वह इस संदर्भ में सवाल उठाए और सत्ताधारी दलों को इन सवालों का माकूल जवाब देना होता है.

पांच राज्यों में हो रहे इन चुनावों में, खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में सत्ताधारी पक्ष इन सवालों से बचने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है. इसीलिए, उसके प्रचारक घूम-फिर कर जिन्ना, पाकिस्तान, आतंकवाद के मुद्दे का सहारा लेने लगते हैं. आजादी के 75वें साल और अमृत-काल में बुनियादी मुद्दों की बात होनी चाहिए थी, पर हम ‘साइकिल’ को आतंकवादी साबित करने में लगे हुए हैं. 

किसी का आतंकवाद के कार्यो में लिप्त होना निश्चित रूप से गंभीर अपराध है, इसकी उचित सजा मिलनी ही चाहिए. लेकिन किसी आतंकवादी का पिता या भाई होना अपराध क्यों माना जा रहा है? सही है कि हम अपेक्षा करते हैं कि परिवार के वरिष्ठ जन युवाओं को गलत मार्ग पर चलने से रोकें, पर इस बारे में उनकी कथित विफलता अपराध कैसे हो सकती है?

जनतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक पवित्न अनुष्ठान होते हैं. नागरिक और राजनेता दोनों के लिए एक अवसर होते हैं अपने भीतर झांकने का. पर हमने चुनाव का मतलब एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना मात्न मान लिया है. जरूरी है कि चुनाव-प्रचार के दौरान राजनीतिक दल और राजनेता अपना पक्ष मतदाता के सामने रखें, अपनी उपलब्धियां बताएं, अपनी योजनाएं प्रस्तुत करें. हमारे नेता क्या यह कर रहे हैं?

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