पवन के. वर्मा का ब्लॉग: राजनीतिक बहस में बढ़ती अभद्रता चिंताजनक
By पवन के वर्मा | Published: December 2, 2018 09:36 AM2018-12-02T09:36:23+5:302018-12-02T09:36:23+5:30
सभ्य बातचीत की महान कला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मृत सी हो गई प्रतीत होती है।
हमारी सार्वजनिक बहस की गुणवत्ता में कुछ गंभीर रूप से गलत है। एक प्रकार की अशिष्टता व्यापक रूप से पैठ बनाती जा रही है, जो कि सबसे पुरानी और परिष्कृत सभ्यता होने के हमारे दावे पर सवालिया निशान लगाती है। लोग एक-दूसरे से नहीं बल्कि एक-दूसरे के बारे में बातें कर रहे हैं। र्दुव्यवहार, अपशब्द, द्वेष भाव, व्यंग्य और मर्यादाहीन आक्षेप आम हो गए हैं। सार्वजनिक जीवन में एक तरह की भंगुरता आ गई है जो कि जीवन को सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट में देखती है, अन्य सारे रंगों, संदेहों, दृष्टिकोणों और संभावनाओं को सिरे से नकार देती है। संक्षेप में, सभ्य बातचीत की महान कला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मृत सी हो गई प्रतीत होती है।
कैसे यह परिस्थिति आ गई? यह दुर्गुण ऐसा नहीं है जो हमारी सभ्यता में हमेशा से मौजूद रहा हो। वास्तव में हम इससे दूर ही रहे हैं। आठवीं शताब्दी में, आदि शंकराचार्य के उस समय के एक अन्य महान विद्वान मंडन मिश्र से गहरे मतभेद थे। इसे सुलझाने के लिए वे शास्त्रर्थ करने पर सहमत हुए। मतभेद के बिंदु बुनियादी थे। आदि शंकराचार्य ज्ञान मार्ग को मानते थे, जबकि मंडन मिश्र हिंदुत्व की पूर्व मीमांसा के पक्षधर थे, जिसमें मुक्ति के लिए कर्मकांड की प्रधानता थी। लेकिन इस विभाजन के बावजूद, वे सभ्य बातचीत के लिए तैयार थे। यहां तक कि शंकराचार्य मंडन मिश्र की पत्नी को निर्णयकर्ता बनाने पर भी सहमत थे। यह शास्त्रर्थ हफ्तों चला और यहां तक कि उन दिनों टीवी व सोशल मीडिया नहीं होने के बावजूद - देश भर में इसकी चर्चा हुई। अंत में मंडन मिश्र की हार हुई और वे अपनी पत्नी के साथ जगद्गुरु के सबसे प्रमुख अनुयायी बन गए।
उपनिषदों में गुरु-शिष्य के बीच संवाद दर्ज है। भगवद्गीता में भी भगवान कृष्ण और अजरुन के बीच बातचीत है। ब्रrा सूत्र जो - उपनिषद और गीता के साथ - हिंदुत्व के तीन बुनियादी ग्रंथों में शामिल है, में संवाद नहीं है, लेकिन उस पर व्यापक टीकाएं लिखी गई हैं। इन टीकाओं में - शंकराचार्य लिखित मौलिक टीका सहित - ‘प्रतिद्वंद्वी’ के दृष्टिकोण या असहमति के दृष्टिकोण को अनिवार्य रूप से शामिल किया गया है। इसमें असहमति को तिरस्कार के साथ खारिज नहीं किया गया है, बल्कि तर्क के साथ उसका मुकाबला किया गया है।
हमारे सांस्कृतिक इतिहास में सार्थक संवाद का यह पहलू केवल प्राचीन भारत तक ही सीमित नहीं है। महान मुगल शासक अकबर ने अपने संवाद मंच, दीन-ए-इलाही के जरिए बहस की एक श्रंखला शुरू की थी। इस मंच पर, इस्लाम के समर्थकों का अन्य धर्मो के दृष्टिकोणों से सामना होता था, जिसका अंतिम उद्देश्य सभी धर्मो के ऐसे सर्वश्रेष्ठ तत्वों को खोजना होता था, जो एक-दूसरे के साथ जुड़ सकें। हालिया अतीत में, हमारे स्वतंत्रता संग्राम में सभ्य बातचीत की प्रधानता के शानदार उदाहरण हैं। नेहरू और गांधीजी के एक-दूसरे को लिखे गए पत्रों में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर मतभेद दिखाई देते हैं, लेकिन उन्हें बिना किसी निषेध के सामने रखते हुए भी हमेशा सभ्य तरीका अपनाया गया। यही बात नेहरू और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बीच हुए पत्र व्यवहार में भी दिखाई देती है।
उनमें वैचारिक बिंदु पर असहमतियां अधिक स्पष्ट थीं, लेकिन उन्होंने पूरे सम्मान के साथ अपने मतभेद के बिंदुओं पर बहस की। आजादी के बाद भी एक ऐसा दौर था जब संसद में कुछ बेहतरीन बहसें हुईं, जिसमें वक्ता दृढ़ता से अपने विचारों को रखने के साथ ही विरोधी तर्को को भी सम्मान से सुनने के लिए तैयार रहते थे। उस समय का एक प्रसिद्ध वाकया है जब प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी नीतियों पर युवा अटल बिहारी वाजपेयी के तीखे अभियोगों को सुनने के बाद वाजपेयी को बधाई दी थी और भविष्यवाणी की थी कि उनके भीतर प्रधानमंत्री बनने के गुण मौजूद हैं।
जोरदार असहमति के बावजूद, हमारी सभ्यता में सम्मान के साथ दूसरे पक्ष को सुनने की जो उदारता की भावना थी, वह कहां चली गई? सार्वजनिक जीवन में हम आज जिस तरह की घटिया शब्दावली को सुन रहे हैं, वह शर्मनाक है। भाषायी संयम का कोई बोध ही नहीं है। एकमात्र लक्ष्य तथ्यों और सच्चाई पर ध्यान दिए बिना, प्रतिद्वंद्वी पर वार कर उस पर तात्कालिक बढ़त बनाना है। क्या हमारे नेता असुरक्षा की आवधिक भावना से पीड़ित हैं जो चुनाव आने पर हर बार अरुचिकर ढंग से प्रकट होती है? या ऐसे संभाषण आदत में शुमार हो गए हैं? क्या राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इतनी बड़ी हो गई है कि वह सभ्यता को भी भूल जाती है?
यह बीमारी संक्रामक प्रतीत होती है। इसके लिए एक ओर जहां हमारे राजनीतिक नेता दोषी हैं, वहीं टीवी चैनल भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। या कहना चाहिए कि टेलीविजन पर होने वाली ‘चर्चाएं’ ही सार्वजनिक बहस को प्रभावित कर रही हैं। लेकिन इस सारे परिदृश्य के बीच कुछ अपवाद भी हैं, जिनकी सराहना किए जाने की जरूरत है। नीतीश कुमार ऐसे ही एक अपवाद हैं और मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं भी उसी पार्टी से हूं। मैंने कभी भी उनके मुंह से कोई अमर्यादित शब्द नहीं सुना है और अपने प्रवक्ताओं के लिए भी वे यही मानक तय करते हैं। इस तरह के उदाहरणों को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है।