डॉ आरबी भांडवलकर का ब्लॉग: भारतीय चिकित्सा शिक्षा में अवसर और समस्या

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 3, 2022 05:10 PM2022-03-03T17:10:51+5:302022-03-03T17:14:52+5:30

सीटें कम होने के कारण स्नातकोत्तर स्तर पर तो हालात और अधिक चिंताजनक हैं। भारत में हर वर्ष औसतन 12 लाख विद्यार्थी नीट की परीक्षा देते हैं जबकि उपलब्ध सीटों की संख्या केवल 90 हजार है।

Opportunities and problems in Indian medical education | डॉ आरबी भांडवलकर का ब्लॉग: भारतीय चिकित्सा शिक्षा में अवसर और समस्या

डॉ आरबी भांडवलकर का ब्लॉग: भारतीय चिकित्सा शिक्षा में अवसर और समस्या

Highlightsमांग और आपूर्ति के बीच की कमी का अंतर चिकित्सा शिक्षा की सीमांत लागत को बढ़ा देता है।भारत का मित्र होने के कारण रूस में 1932 से भारतीय विद्यार्थी मेडिकल एजुकेशन लेते देखे जा सकते हैं।

भारत जैसे 135 करोड़ की आबादी वाले देश में बड़े पैमाने पर डॉक्टरों की मांग है। ठीक उसी तरह से भारत में चिकित्सा शिक्षा हासिल करने वाले डॉक्टरों की भी विदेश में बहुत मांग है। फरवरी 2022 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 604 मेडिकल कॉलेज हैं और इनमें 90 हजार सीटें उपलब्ध हैं। इनमें से 60 प्रतिशत एमबीबीएस और 40 प्रतिशत डेंटल शिक्षा के लिए होती हैं। जबकि चीन के मेडिकल कॉलेजों में 286000 सीटें उपलब्ध हैं। भारत में मेडिकल कॉलेज में प्रवेश नीट यूजी स्कोर के आधार पर किया जाता है। 

इसके जरिये निजी, सरकारी, अभिमत, केंद्रीय, एम्स और अन्य मेडिकल कॉलेजों, संस्थानों में प्रवेश मिलता है। इसमें भी 85 प्रतिशत जगह संबंधित राज्य के विद्यार्थियों के लिए और 15 प्रतिशत सीटें राष्ट्रीय कोटे से भरी जाती हैं। इसमें से हाल ही में 10 प्रतिशत की व्यवस्था आर्थिक तौर पर कमजोर विद्यार्थियों के लिए की गई है। इसके अलावा 52.5 प्रतिशत जगह अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति, ओबीसी व दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए आरक्षित होती है। यानी कुल उपलब्ध जगह का 62.5 प्रतिशत हिस्सा आरक्षित वर्ग में विभाजित होने के कारण खुले वर्ग के विद्यार्थियों को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए काफी कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। 

इसकी वजह से भारत में मेडिकल कॉलेज में प्रवेश को लेकर प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा बढ़ गई है। सीटें कम होने के कारण स्नातकोत्तर स्तर पर तो हालात और अधिक चिंताजनक हैं। भारत में हर वर्ष औसतन 12 लाख विद्यार्थी नीट की परीक्षा देते हैं जबकि उपलब्ध सीटों की संख्या केवल 90 हजार है। मांग और आपूर्ति के बीच की कमी का अंतर चिकित्सा शिक्षा की सीमांत लागत को बढ़ा देता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश के मुताबिक एक हजार की आबादी पर न्यूनतम एक डॉक्टर की व्यवस्था होनी चाहिए। भारत में 1456 की आबादी पर एक डॉक्टर है। दूसरी ओर, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रलय द्वारा संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक प्रति 836 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने से कहीं ज्यादा बेहतर है। दरअसल इस मामले में स्वास्थ्य मंत्रलय ने 80 प्रतिशत पंजीकृत एलोपैथी डॉक्टरों के साथ पांच लाख 65 हजार आयुष प्रैक्टीशनर्स को भी शामिल करके औसत बेहतर होने का दावा कर दिया है। वस्तुस्थिति यही है कि एलोपैथी डॉक्टरों की देश में कमी है।

भारत के शासकीय मेडिकल कॉलेजों में सीमित प्रवेश क्षमता व निजी मेडिकल कॉलेजों की आसमान छूती फीस के कारण मजबूर होकर आर्थिक तौर पर सक्षम अभिभावकों का रुझानअपने बच्चों को विदेश में चिकित्सा शिक्षा देने की ओर हो जाता है। ऐसे में यूरोप और अमेरिका सबकी पहली पसंद होते हैं। वहां हासिल डिग्री की प्रतिष्ठा होती है। लेकिन वहां पर भी चिकित्सा शिक्षा रूस, यूक्रेन और चीन की तुलना में चार गुनी महंगी होती है। यह भी पहुंच से बाहर होने के कारण स्वाभाविक तौर पर अभिभावकों का रुख कम फीस में चिकित्सा शिक्षा देने वाले देशों की ओर हो जाता है।

भारत का मित्र होने के कारण रूस में 1932 से भारतीय विद्यार्थी मेडिकल एजुकेशन लेते देखे जा सकते हैं। इसके अलावा चिकित्सा शिक्षा के लिए भारतीयों को चीन, यूक्रेन, कजाकिस्तान, फिलीपींस, बांग्लादेश, इटली और जर्मनी की ओर आकर्षित होते हुए देखा गया है। चीन की तुलना में अब तक रूस और यूक्रेन को ज्यादा सुरक्षित माना जाता था। रूस-यूक्रेन के बीच जंग से पता चला है कि तकरीबन 18 हजार विद्यार्थी इस समय यूक्रेन में मौजूद थे। यूक्रेन में छह वर्ष की पूरी चिकित्सा शिक्षा 25 से 30 लाख में पूरी हो जाती है जो कि भारतीय निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की तुलना में सस्ती है।

अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड की तुलना में यूक्रेन में रहना भी बहुत सस्ता है। ऐसे में दोहरे लाभ के चलते भारतीय विद्यार्थी और उनके अभिभावक यूक्रेन की ओर आकर्षित होते हैं। भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए जाहिर तौर पर भारत में चिकित्सा शिक्षा सुविधा के क्षेत्र में विस्तार की दरकार है। जनसंख्या में ज्यादा अंतर न होते हुए भी चीन में भारत की तुलना में मेडिकल कॉलेजों में 3.5 गुना ज्यादा सीटें उपलब्ध होती हैं। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को इस अंतर को पाटने के लिए प्रयास करने चाहिए। 

एमसीआई की बहुत ज्यादा कड़ी शर्ते ही नये मेडिकल कॉलेजों की राह में अड़ंगा हैं। अब या तो सरकार को खुद आगे आकर नए मेडिकल कॉलेज खोलना चाहिए या फिर पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) आधार पर नये कॉलेज बनाने चाहिए। डॉक्टरों की कमी को दूर करने के लिए भारत को बाजार के समर्थन की दरकार है। 

अन्य शिक्षा को लेकर सरकार की जो सकारात्मक और प्रोत्साहन देने वाली खुली नीति है, अब उसमें चिकित्सा शिक्षा को शामिल करने का वक्त आ गया है। वैसे प्रधानमंत्री ने हालिया भाषण में इसके संकेत भी दिए हैं। चिकित्सा शिक्षा के व्यापारी करण की बजाय सरकार को इस क्षेत्र में भी उदारीकरण पर ध्यान देने की जरूरत है। विदेशों में चिकित्सा शिक्षा लेने में भारतीय विद्यार्थी सबसे आगे (8 लाख) हैं। भारतीय चिकित्सा शिक्षा को कड़ी शर्तो के जाल से मुक्त कराना होगा।

Web Title: Opportunities and problems in Indian medical education

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