एक देश, एक चुनाव: निर्वाचन आयोग की दुविधा

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: September 27, 2019 06:15 AM2019-09-27T06:15:28+5:302019-09-27T06:15:28+5:30

झारखंड और दिल्ली विधानसभाओं का चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र के साथ कराना चुनाव आयोग के लिए संभव नहीं हो पाया, जबकि झारखंड और दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में हरियाणा तथा महाराष्ट्र के मुकाबले ज्यादा समय का अंतर नहीं है.

One country, one election: The dilemma of the Election Commission | एक देश, एक चुनाव: निर्वाचन आयोग की दुविधा

एक देश, एक चुनाव: निर्वाचन आयोग की दुविधा

शशिधर खान

‘एक देश, एक चुनाव’ की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्राय: अपने हर भाषण में करते हैं. जब चुनाव का समय आता है तो चुनाव आयोग के सामने इस प्रस्ताव को अमल में लाने की जो दुविधा उपस्थित होती है, उस पर प्रधानमंत्री समेत उनके इस नारे को दुहराने वाले भाजपा नेता भी चुप्पी लगा जाते हैं. हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं की चुनाव तारीखों के ऐलान में झारखंड और दिल्ली को शामिल नहीं किया गया. चुनाव आयोग ने 21 सितंबर को ऐलान किया कि हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के लिए मतदान 21 अक्तूबर को कराए जाएंगे. एक ही चरण में मतदान होगा और 21 अक्तूबर को ही 17 राज्यों में रिक्त विधानसभा सीटों के लिए भी उपचुनाव कराए जाएंगे.

झारखंड और दिल्ली विधानसभाओं का चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र के साथ कराना चुनाव आयोग के लिए संभव नहीं हो पाया, जबकि झारखंड और दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में हरियाणा तथा महाराष्ट्र के मुकाबले ज्यादा समय का अंतर नहीं है. मात्र एक हफ्ते के अंतर से नवंबर में महाराष्ट्र और हरियाणा विधान सभाओं का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. कुछ ही हफ्ते बाद झारखंड और दिल्ली का नंबर आता है.

चुनाव आयोग की घोषणा के अनुसार मतदान के तीन दिन बाद 24 अक्तूबर को मतों की गिनती होगी. परिणाम घोषित होने बाद समय से दोनों राज्यों की विधानसभाएं गठित हो जाएंगी. हरियाणा विधानसभा 2 नवंबर को और महाराष्ट्र विधानसभा 9 नवंबर को समाप्त होगी.

मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने 21 सितंबर को कहा कि झारखंड और दिल्ली विधानसभा चुनाव का ऐलान बाद में होगा, इस संबंध में संवाददाता सम्मेलन में पूछे गए सवालों के जवाब में मुख्य चुनाव आयुक्त ने वही कारण बताया जिसका निदान उनके पास नहीं है. उन्होंने कहा कि झारखंड विधानसभा का कार्यकाल पांच जनवरी को समाप्त होगा. ये वही समस्या है, जो सरकार शेयर नहीं करना चाहती, जबकि एक साथ चुनाव के रास्ते में आनेवाली ये अड़चन विधायी और संवैधानिक है, जो चुनाव आयोग का सिरदर्द नहीं है. प्रधानमंत्री समेत भाजपा शासित राज्य सरकारों को भी चुनाव आयोग की समस्या से कोई मतलब नहीं है. अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले झारखंड की भाजपा सरकार अगर चुनाव चाहती तो सीईसी को सफाई देकर पल्ला नहीं झाड़ना पड़ता. 

सीईसी सुनील अरोड़ा ने साफ-साफ कह दिया - ‘झारखंड में सदन के नेता अगर विधानसभा भंग करके पहले चुनाव कराना चाहेंगे तो ये अलग मामला है, लेकिन चुनाव आयोग भला क्यों चाहेगा कि चुनाव पहले हो. एक साथ चुनाव पर चर्चा हो रही है मगर जब तक राजनीतिक दलों में इस पर स्पष्ट आम राय न बने, यह काम मौजूदा स्थिति में तो नहीं हो सकता’. दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल झारखंड के बाद समाप्त होगा. जब झारखंड की भाजपा सरकार पहले चुनाव नहीं चाहती तो दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार क्यों चाहेगी. दिल्ली के बारे में तो सीईसी से अलग से न तो सवाल पूछा गया, न ही उन्होंने दिल्ली का जिक्र किया. ऐसी ही स्थिति के निदान के लिए सीईसी ने सरकार से संविधान संशोधन करने को कहा. 2018 में तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने कार्यकाल समाप्त होने के आठ महीना पहले ही विधानसभा भंग करके अलग से चुनाव कराने की नौबत ला दी. चुनाव आयोग की मुश्किल है- एक साथ और अलग-अलग चुनाव राजनीतिक कारणों से कराने की परिस्थिति से जूझना. इसके लिए सबसे पहले संविधान की धारा 83(2) और 172(1) बदलनी पड़ेगी. उसके अलावा अनुच्छेद 85 (लोकसभा भंग के बारे में), विधान सभाओं के विघटन से संबंधित 174 और 356 में भी संशोधन जरूरी है.

दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में 15 अगस्त को लाल किले से भाषण की शुरुआत ‘एक देश एक चुनाव’ से की. प्रधानमंत्री का भाषण जम्मू व कश्मीर का विशेष दर्जा धारा 370 समाप्त करके उस राज्य को एक देश एक संविधान के अंदर एक झंडे के नीचे लाने पर केंद्रित था. पांच अगस्त को संविधान संशोधन बिल संसद में लाकर धारा-370 को निरस्त किया गया, लेकिन मई में जम्मू व कश्मीर विधानसभा का चुनाव लोकसभा के साथ इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि भाजपा नहीं चाहती थी. 

नरेंद्र मोदी 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के समय से ही ‘एक देश एक चुनाव’ पर यह कहकर जोर दे रहे हैं कि बार-बार चुनाव से जनता का पैसा बहुत खर्च होता है, सरकारी काम बाधित होता है. उनका कहना सही है.

जरा 2016 को याद कर लें, जब प्रधानमंत्री ने इस पर राजनीतिक चर्चा शुरू की. कई राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारी चल रही थी. उस वक्त रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने अप्रैल के पहले सप्ताह में राजकोषीय वर्ष की पहली द्वैमासिक मौद्रिक नीति समीक्षा बैठक के बाद कहा कि अभी हो रहे विधानसभा चुनावों के दौरान 60,000 करोड़ से ज्यादा रुपए नगद जनता के हाथ में पहुंच गए, जो सामान्य नहीं है, इस पर निगरानी की जरूरत है. रघुराम राजन को रिजर्व बैंक गवर्नर पद से इस्तीफा देना पड़ा. उसके बाद दो और गवर्नर गए. राजनीतिक दल चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाना चाहते हैं, चुनाव आयोग तैयार नहीं है. 2016 में ही चुनाव आयोग ने एक आम चुनाव का खर्च 4500 करोड़ रु. आंका, जिसमें पार्टियों व उम्मीदवारों द्वारा खर्च किया जानेवाला पैसा शामिल नहीं है.

Web Title: One country, one election: The dilemma of the Election Commission

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