फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग: ओबीसी आरक्षण की दुविधा

By फिरदौस मिर्जा | Published: March 14, 2022 05:27 PM2022-03-14T17:27:33+5:302022-03-14T17:28:53+5:30

महाराष्ट्र सरकार द्वारा नियुक्त आयोग की अंतरिम रिपोर्ट पर रोक लगा दी गई है क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप नहीं थी। इसने हमें पूर्व-मंडल आयोग के समय में पहुंचा दिया जब जीवन के किसी भी क्षेत्र में ओबीसी के लिए कोई आरक्षण नहीं था।

OBC reservation dilemma in Maharashtra | फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग: ओबीसी आरक्षण की दुविधा

फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग: ओबीसी आरक्षण की दुविधा

Highlights40 वर्षो के संघर्ष के बाद, विभिन्न आयोगों की कई रिपोर्टो के चलते अंत में 7 अगस्त 1990 को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण प्राप्त हुआ।2010 के बाद हमने महाराष्ट्र में विभिन्न दलों की विभिन्न सरकारों को देखा है।

ओबीसी के लिए राज्य के पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा प्रस्तुत अंतरिम रिपोर्ट को खारिज करने और चुनाव आयोग को ओबीसी के लिए कोई सीट आरक्षित किए बिना स्थानीय निकाय चुनाव कराने का निर्देश देने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के साथ महाराष्ट्र में राजनीति गर्मा गई है। सौभाग्य से, सत्ता में और विपक्ष में पार्टियां इस बात पर सहमत हैं कि ओबीसी को आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से, दोनों समाधान खोजने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि एक दूसरे पर दोषारोपण में व्यस्त हैं। ओबीसी के सामने दुविधा यह है कि क्या उनका आरक्षण वापस मिलेगा या उन्हें मंडल-पूर्व युग में रखा जाएगा।

4 मार्च, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने ए कृष्णमूर्ति के मामले में 5 जजों की बेंच द्वारा दिए गए पहले के फैसले पर कार्रवाई करने में राज्य सरकार की विफलता के आधार पर महाराष्ट्र से 5 जिला परिषदों के 86 ओबीसी सदस्यों के चुनाव रद्द कर दिए। उस फैसले के अनुसार महाराष्ट्र ने ‘ट्रिपल टेस्ट’ को पूरा नहीं किया है। पहला, राज्य के भीतर स्थानीय निकायों के रूप में पिछड़ेपन की प्रकृति और निहितार्थ की अनुभवजन्य जांच करने के लिए एक आयोग की स्थापना, दूसरा, आयोग की सिफारिशों के आलोक में स्थानीय निकाय-वार प्रावधान किए जाने के लिए आवश्यक आरक्षण के अनुपात को निर्दिष्ट करना और तीसरा, आरक्षण कुल मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक नहीं रखना।

महाराष्ट्र सरकार द्वारा नियुक्त आयोग की अंतरिम रिपोर्ट पर रोक लगा दी गई है क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप नहीं थी। इसने हमें पूर्व-मंडल आयोग के समय में पहुंचा दिया जब जीवन के किसी भी क्षेत्र में ओबीसी के लिए कोई आरक्षण नहीं था। 40 वर्षो के संघर्ष के बाद, विभिन्न आयोगों की कई रिपोर्टो के चलते अंत में 7 अगस्त 1990 को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण प्राप्त हुआ। संविधान में 73वें संशोधन ने राज्य विधानसभाओं को ओबीसी के लिए स्थानीय निकायों में सीटें आरक्षित करने का प्रावधान करने का अधिकार दिया। तद्नुसार, महाराष्ट्र 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करता है। हाल के घटनाक्रम ने ओबीसी की स्थिति को शुरुआती बिंदु पर ला दिया है और इसे फिर से ‘आरक्षण विहीन’ बना दिया है।

संविधान सभा में पंडित ठाकुर दास भार्गव ने कहा था, 'यह अनुच्छेद पूरे देश पर यह देखने का दायित्व डालता है कि दलित वर्गो की सभी कठिनाइयों को दूर किया जाए और इसलिए यह वास्तव में पिछड़े वर्गो की स्वतंत्रता का चार्टर है।' ऐसा लगता है कि केंद्र या राज्य के अभिजात शासक वर्ग उपरोक्त दायित्व को भूल गए हैं। 2010 के बाद हमने महाराष्ट्र में विभिन्न दलों की विभिन्न सरकारों को देखा है। दुर्भाग्य से उनमें से किसी ने भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित तीनों कसौटियों को पूरा करने के लिए कदम उठा ओबीसी आरक्षण की रक्षा के लिए काम नहीं किया और अभी भी समाधान खोजने के बजाय कीचड़ उछालने में व्यस्त हैं।

यदि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का अवलोकन किया जाए तो समाधान सरल है, यदि इच्छाशक्ति हो तो-

1) महाराष्ट्र के भाजपा नेताओं को केंद्र सरकार के साथ इस मुद्दे को उठाना चाहिए और ओबीसी के संबंध में पहले एकत्र किए गए आंकड़ों को साझा करने के लिए उसे समझाना चाहिए तथा अगर इसमें कुछ खामियां हैं तो जाति आधारित जनगणना तुरंत होनी चाहिए। साथ ही पिछड़े वर्गो की स्थिति की जांच के लिए संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत एक आयोग की नियुक्ति करनी चाहिए।

2) महाविकास आघाड़ी के नेताओं को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपेक्षित अनुभवजन्य जांच के संचालन में पहले से नियुक्त आयोग की सहायता के लिए डाटा एकत्र करने के लिए प्रत्येक शहर/गांव में सरकारी तंत्र जुटाना चाहिए। तुलनात्मक रूप से उन्नत राज्य होने और सूचना प्रौद्योगिकी की सुविधाएं होने के कारण इसके लिए 2 महीने से अधिक की आवश्यकता नहीं हो सकती है।

मेरी विनम्र राय में एक दूसरे पर दोषारोपण करने की तुलना में समाधान खोजना आसान है। कभी-कभी पिछड़े भाइयों की सेवा करना उनकी दुर्दशा को राजनीतिक मुद्दा बनाने से बेहतर होता है।

Web Title: OBC reservation dilemma in Maharashtra

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