भव्य श्रीवास्तव का ब्लॉग: राजनीति के पैंतरों के बीच बेहतर को चुनने की चुनौती
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: January 21, 2022 09:39 AM2022-01-21T09:39:05+5:302022-01-21T09:54:29+5:30
अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति के चलते गठबंधन में फंसे यूपी में अब दल और चेहरे पीछे जा रहे हैं तथा जाति व पहचान हावी हो रही है।
UP Election 2020: देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव के बीच एक बात गायब सी होती दिखती है. जिस धुरी पर सत्तासीन दल की दावेदारी टिकी है, वह विषय कमजोर होता नजर आ रहा है.
भाजपा की धर्म आधारित राजनीति के चाहने वालों को इस राज्य के जाति के गणित से उलझन होनी शुरू हो गई है. अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति के चलते गठबंधन में फंसे यूपी में अब दल और चेहरे पीछे जा रहे हैं तथा जाति व पहचान हावी हो रही है.
विकास की जिस बात को प्रधानमंत्नी ने आधार बनाकर देश को जाति से आगे बढ़ने का सुझाव दिया था, वह पिछले कुछ चुनावों में पार्टी के लिए दिक्कत का सबब बन गई है. एक ओर बंगाल की हार और बिहार की मामूली जीत का सबक है तो दूसरी ओर है यूपी और पंजाब में बहने वाली पहचान की हवा. पंजाब में पहचान अब बड़ा मुद्दा है.
आम आदमी पार्टी ने इसे ध्यान में रखते हुए एक सिख को ही मुख्यमंत्नी का चेहरा घोषित कर दिया है. पर वहां भाजपा के संग अमरिंदर की जोड़ी शायद ही धरातल पर कुछ कर पाए.
रही बात दलित वोट की जो अब पंजाब में चुनाव में बहुत मायने रखते हैं, वो कांग्रेस, अकाली दल और आप में बंट जाएगा. कोई आश्चर्य नहीं कि पंजाब में नतीजों के बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर सरकार बना लें.
अब यूपी के लिए ध्रुवीकरण के रास्ते संकरे होते नजर आ रहे हैं. पार्टियों ने ओबीसी, पिछड़े और दलित वोटों के लिए नए दांव खेलने शुरू कर दिए हैं. इससे कई वर्गो में अजीब सी बेचैनी है.
खासकर अगड़ों और मुसलमानों में. दोनों का खैरख्वाह कोई नहीं दिखता. मुसलमान तो फिर भी किसी के विरोध में एकजुट होकर वोट कर दें पर अगड़ों के ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ और बनिया वर्ग अब तेल और उसकी धार देख रहे हैं.
जाहिर है चुनाव पार्टी, विचारधारा, चेहरे और स्थानीय वरीयताओं पर होते हैं. पर जब राज्य के चुनाव देश के भविष्य पर असर डालने वाले मान लिए जाएं, तो फिर सबके सामने जीने-मरने की बात होती है.
अमित शाह, जो चुनावी शतरंज के माहिर माने जाते हैं, वे अब उत्तर प्रदेश में प्रवास करेंगे और पिछली बार की तरह ओबीसी के साठ फीसदी से ज्यादा वोट बैंक को अपने हक में लाने की कोशिश भी.
हाल के टीवी सर्वे में अभी भी एक बात साफ है कि भाजपा को साफ बढ़त है. पर इन्हीं टीवी चैनलों पर विपक्षी रणनीति से जो मनोभाव बन रहे हैं वो जमीनी हवा को बदलते हुए पेश करते हैं. एक ओर किसान और जाट के शांत गुस्से से पश्चिमी उत्तर प्रदेश को सही तरह से भांप पाने में कमजोर भाजपा और दूसरी ओर महंगाई और बेरोजगारी को हल्के में लेने के नतीजे से अनजान उसके नेता.
चुनौती हमेशा सत्ता में रहने वाले के लिए ही होती है. जो बाहर से युद्ध लड़ रहा है वो दावे और वादे कुछ भी कर सकता है. भाजपा के लिए यूपी मील का पत्थर है.
योगी का अंततोगत्वा अपनी सेफ सीट गोरखपुर से लड़ना भी एक संदेश दे गया. क्या वे चुनाव को लेकर आश्वस्त नहीं है जो अयोध्या या मथुरा से लड़कर अपनी महत्वाकांक्षा घोषित करते?
मोदी के बाद योगी को लेकर बहुत कयास लगाए जाते हैं. यूपी का मुख्यमंत्नी बनाया जाना ही एक साफ संदेश था आरएसएस की ओर से. अब अगर सीटें कम होती हैं या भाजपा के समाने जातिगत चुनौतियां बढ़ती हैं तो इससे पार्टी कमजोर होगी.
चुनाव को लेकर दल-बदल, मन-मुटाव, बयानबाजी और घात-प्रतिघात आम बात है. पर जैसे-जैसे हमने समाज में राजनीति की ताकत को बढ़ते देखा है वैसे ही नीतियों, निर्णयों की कमजोर होती स्थिति को भी.
पांच साल के बाद किसी पार्टी या नेता को लेकर रुचि कम या ज्यादा हो सकती है, पर जनता के मूल मुद्दों पर चुनाव लड़ना हमेशा से कठिन रहा है. भारतीय लोकतंत्न के लिए ये चुनाव बहुत खास है, क्योंकि इक्कीसवीं सदी में भी हम कितने बदले, ये बात इससे साफ होगी.
जाते-जाते हाल ही में एक संत की बात गौर करने वाली लगी. जैन आचार्य लोकेश मुनि ने कहा कि, ‘‘वो तुमसे जाट, ब्राह्मण, यादव, दलित, पिछड़ा बनकर वोट मांगेंगे, तुम इंसान बनकर अच्छे इंसान को वोट देना. वो तुमसे हिंदू-मुस्लिम, भारत-पाकिस्तान करके वोट मांगेंगे. तुम सच्चे भारतीय बनकर भारत माता के सच्चे और अच्छे सपूत को वोट देना, भ्रष्टाचारी, दुराचारी, कपूत को नहीं,’’