Nagpur Violence: आग नहीं देखती हिंदू या मुसलमान !
By विजय दर्डा | Updated: March 24, 2025 07:01 IST2025-03-24T07:01:51+5:302025-03-24T07:01:51+5:30
नागपुर के महाल इलाके में ही 1923 और 1927 के बाद 1991 में भी दंगे हुए थे लेकिन उसके बाद के वर्षो में तनाव की छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो नागपुर अमूमन शांत इलाका बना रहा है. फिर अचानक ये आग कैसे लगी?

Nagpur Violence: आग नहीं देखती हिंदू या मुसलमान !
मैं इस समय बहुत दुखी हूं और बड़े हैरत में भी हूं कि महाराष्ट्र की उपराजधानी, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का गृह नगर और मेरा प्रिय शहर नागपुर अचानक दंगे की आग में क्यों झुलस गया? नागपुर के महाल इलाके में ही 1923 और 1927 के बाद 1991 में भी दंगे हुए थे लेकिन उसके बाद के वर्षों में तनाव की छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो नागपुर अमूमन शांत इलाका बना रहा है. फिर अचानक ये आग कैसे लगी?
गोंड शासक बख्त बुलंद शाह और भोंसले राज परिवार ने इस शहर को ऐसी तासीर दी कि यहां सभी समुदायों के लोग प्यार और अमन के साथ रहते हैं. रामनवमी के जुलूस में मुस्लिम और सिख समुदाय के लोग सेवा करते हैं और शर्बत पिलाते हैं तो रमजान और ईद में हिंदुओं की भी खूब भागीदारी होती है. सभी समुदाय के लोग गले मिलते हैं. यह ताजुद्दीन बाबा का शहर है. ये साईंबाबा के भक्तों का शहर है जिन्होंने सिखाया कि सबका मालिक एक! यहां जैन समाज महावीर जयंती पर भव्य जुलूस निकालता है और सभी समुदायों के लोग जुलूस का स्वागत करते हैं. वास्तव में ये शहर इतने आवभगत वाला है कि यहां के समाज में वैमनस्य के लिए कोई जगह ही नहीं है.
नागपुर में जो कुछ भी हुआ है वह मुट्ठी भर लोगों की साजिश थी. इन्हीं लोगों ने विभिन्न तरह की अफवाह फैलाई. पुलिस ने वीडियो एडिट करने, अफवाह फैलाने और दंगे के लिए लोगों को इकट्ठा करने के आरोप में मुख्य साजिशकर्ता फहीम खान को गिरफ्तार भी कर लिया है. इसके साथ ही यह अफवाह भी फैलाई गई कि चादर जलाने वालों के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज नहीं किया जबकि पुलिस मामला दर्ज कर चुकी थी. इस तरह की अफवाहों ने चिंगारी को हवा दे दी.
मेरा मानना है कि नागपुर का माहौल खराब करने वाले सभी लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर निकालना चाहिए, चाहे वे किसी भी समाज के हों. इतनी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए कि ऐसी घटना फिर कभी न हो. लेकिन पुलिस प्रशासन को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि त्यौहार के इस मौसम में किसी को बेवजह परेशान होने की नौबत न आए. मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि गुप्तचर विभाग फेल हो गया लेकिन मैं यह मानता हूं कि और बेहतर इनपुट मिल सकते थे. इस स्थिति को टाला जा सकता था.
मैं पुलिस प्रशासन और खासकर नागपुर के पुलिस कमिश्नर रवींद्र सिंगल और उनकी टीम की सराहना करना चाहूंगा कि उन्होंने बड़े संयम से काम लिया और शहर के माहौल को बहुत तेजी के साथ सामान्य बनाने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई. मैं दोनों पक्षों के शांतिप्रिय लोगों की भी प्रशंसा करूंगा जिन्होंने पुलिस के साथ मिलकर गंभीर भूमिका निभाई और शहर के दूसरे हिस्सों को जलने से बचाया.
धार्मिक वैमनस्यता को लेकर मैं हमेशा बड़ा भावनात्मक रहा हूं क्योंकि मैंने देखा है कि दंगे किस तरह से आम आदमी की जिंदगी को तबाह करते हैं. यही कारण है कि कोविड के दौरान मैंने हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के लिए ‘रिलीजन, कॉन्फ्लिक्ट एंड पीस’ यानी धर्म, विवाद और शांति विषय पर गहरा शोध किया था. शोध का निष्कर्ष यह था कि धर्म जिंदगी का ऐसा हिस्सा है जो आपका नितांत निजी मामला होता है और यह आप पर निर्भर करता है कि धर्म प्यार बांटे या फिर नफरत की आग सुलगाए. हर धर्म शांति और भाईचारे की बात करता है लेकिन नफरत की यह आंधी निजी स्वार्थों की वजह से उठती है. राजनीतिज्ञ और धार्मिक नेतृत्व यदि सोच ले कि धर्म के नाम पर चिंगारी नहीं फेंकेंगे तो जाहिर सी बात है कि दंगे की आग भी नहीं भड़केगी.
दुर्भाग्य की बात है कि छुटभैयों की राजनीति और धर्म के नाम पर अपनी रोटी सेंकने वाले लोग रोज नए मसले उठा रहे हैं. अब अभी जो दंगे हुए उसके पीछे औरंगजेब की कब्र का मसला है. सवाल यह है कि आज के वक्त में उसकी कब्र को लेकर हम क्यों परेशान हों? क्या हम इतिहास के मध्यकाल में लौट जाएं जहां हर सुल्तान और हर राजा जुल्म की नई कहानी गढ़ रहा था! क्या हम कबीलाई मानसिकता में लौट जाएं? अरे भाई! अब तो कबीले भी नफरत को त्याग कर एक-दूसरे के साथ मिलजुल रहे हैं.
किसी जमाने में नगालैंड में ऐसे समूह थे जो दूसरे समूह के लोगों के सिर काट कर अपने बैठक कक्ष में लटकाया करते थे. अब वे भी ऐसा नहीं करते हैं. हम आधुनिक काल के लोग हैं और हमारी सोच भी व्यापक होनी चाहिए. मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि मुगल बादशाह आज के समय में प्रासंगिक नहीं है और किसी भी तरह की हिंसा को हतोत्साहित किया जाना चाहिए.
मैं इन आंकड़ों में बिल्कुल नहीं जाऊंगा कि देश में हर साल कितने दंगे होते रहे हैं और अब क्या हाल हैं. मैं संभल की भी चर्चा नहीं करूंगा लेकिन यह जरूर कहूंगा कि जब दंगा फैलता है तो उसमें आम आदमी के साथ समाज और देश भी जलता है. इसलिए संयमित रहिए. मुझे बशीर बद्र का एक शेर याद आ रहा है...
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में/ तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में...!