एन. के. सिंह का ब्लॉग: चुनाव प्रचार की कड़वाहट केंद्र-राज्य तनाव बढ़ाएगी
By एनके सिंह | Published: February 8, 2020 05:13 AM2020-02-08T05:13:55+5:302020-02-08T05:13:55+5:30
राजनीतिक वर्ग को और खासकर जो सत्ता में बैठे हैं, कम से कम आरोप तर्कसम्मत लगाने चाहिए. किसी मुख्यमंत्नी को चुनाव मंच से या प्रेस कॉन्फ्रेंस में ‘आतंकवादी’ कहने के पहले सोचना होगा कि जनता यह भी पूछेगी कि अगर केंद्र की सरकार भीमा कोरेगांव की जांच राज्य सरकार से बिना पूछे एनआईए को दे सकती है तो इस ‘आतंकवादी’ मुख्यमंत्नी की जांच अब तक क्यों नहीं?
भारत के संविधान-निर्माताओं ने जब देश को अर्ध-संघीय ढांचा दिया जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच कार्य और शक्तियों का विभाजन हुआ तो उन्हें शायद यह विश्वास था कि भारतीय विधायिकाएं और उनके लोग ब्रितानी संसदीय परंपरा की तरह आपसी व्यवहार में उसी शालीनता का मुजाहरा करेंगे. लिहाजा उन्होंने केंद्र को टैक्स लगाने में बड़ी भूमिका दी और केंद्रीय योजनाओं को अमलीजामा पहनाने का काम व्यापक तौर पर राज्यों को यह व्यवस्था करते हुए दिया कि राज्यों को केंद्रीय करों में हिस्सा मिलेगा.
कोई भी विकास कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक राज्य सरकारें पूरी निष्ठा से केंद्रीय योजनाओं को धरातल पर पूरा करने में अपनी महती भूमिका न निभाएं. समय के साथ क्षेत्नीय दल उभरे, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा अपने हिंदूवादी स्वरूप के राजनीतिक विस्तार के साथ उभरी. राज्यों में गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों ने आधार पाया और केंद्र-राज्य संबंधों में एक शाश्वत तनाव पैदा हुआ.
नरेंद्र मोदी ने सन 2014 में प्रधानमंत्नी बनने के साथ ही सहकारी संघवाद (कोऑपरेटिव फेडरलिज्म) का नारा दिया और लगा कि केंद्र-राज्य संबंधों को नया आयाम मिलेगा और विकास को पंख. लेकिन शायद राजनीति में नारे देना और चुनावी हकीकत से दो-चार होना अलग-अलग बातें हैं. लिहाजा दिल्ली विधानसभा में शालीनता की सभी मान्यताएं ताक पर रख कर एक-दूसरे के प्रति जिस तरह की भाषा का प्रयोग राजनीतिक दलों ने किया उसने केंद्र और राज्यों के बीच एक कभी न खत्म होने वाली दरार पैदा कर दी.
इस ऐतिहासिक कड़वेपन के कुछ उदाहरण देखें. एक केंद्रीय मंत्नी ने दिल्ली के मुख्यमंत्नी को आतंकवादी इस (कु)तर्क के आधार पर कहा कि ‘आतंकवाद और अराजकता में बहुत अंतर नहीं होता.’ एक अन्य मंत्नी ने नारे में ‘देश के गद्दारों को ..’ कहा और श्रोताओं से कहलवाया - ‘गोली मारो सा ... को’.
तीसरे मंत्नी ने ट्वीट किया ‘तुम्हारे लिए पाकिस्तान बना दिया, अब तो चैन से जीने दो.’ सत्ताधारी भाजपा के ही एक सांसद ने गांधी के सत्याग्रह को ‘ड्रामा’ बताया.
आंदोलन करना गलत था और उससे उपजी हिंसा भी अराजकता थी तो राम मंदिर आंदोलन और ढांचा गिराना या वहां आंदोलनकारियों को समर्थन देना आतंकवाद के किस वर्ग में आएगा. और फिर संसद में विपक्ष के रूप में भाजपा का तमाम मर्तबा हंगामा करना क्या कहा जाएगा?
राजनीतिक वर्ग को और खासकर जो सत्ता में बैठे हैं, कम से कम आरोप तर्कसम्मत लगाने चाहिए. किसी मुख्यमंत्नी को चुनाव मंच से या प्रेस कॉन्फ्रेंस में ‘आतंकवादी’ कहने के पहले सोचना होगा कि जनता यह भी पूछेगी कि अगर केंद्र की सरकार भीमा कोरेगांव की जांच राज्य सरकार से बिना पूछे एनआईए को दे सकती है तो इस ‘आतंकवादी’ मुख्यमंत्नी की जांच अब तक क्यों नहीं? याद रखें कि महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश चुनावों के ठीक पहले एनसीपी नेता शरद पवार और कांग्रेस नेता कमलनाथ के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों ने छापे मारे और पवार को पूछताछ के लिए ऑफिस आने का नोटिस भेजा.
फिर जो केंद्रीय मंत्नी ‘देश के गद्दारों को’ का नारा दे कर अगली लाइन ‘गोली मारो सा .. को’ के लिए श्रोताओं को प्रेरित कर सकता है और जिस नारे के अगले तीन दिन में तीन युवक वाकई आंदोलन कारियों पर गोली चला सकते हैं, उस मंत्नी की क्षमता को किस कसौटी पर आंका जाएगा? प्रजातंत्न में चुनाव को इतना कड़वा न बनाएं कि लोग राजनीति के मायने ही ‘अराजकता’ समझने लगें. क्योंकि तब जनता का प्रजातंत्न के इस चेहरे से विश्वास ही खत्म हो जाएगा. और इस विश्वास के खत्म होने का मतलब मानव का वापस आदिम सभ्यता की ओर जाना होगा. बहरहाल प्रधानमंत्नी ने जनमंच से कहा, ‘शाहीनबाग प्रदर्शन संयोग नहीं, भाई-चारा खत्म करने का प्रयोग है.’ अगर यह प्रयोग भाईचारा खत्म करने का है तो मंत्रियों के बयान क्या हैं?
उधर मध्य प्रदेश विधानसभा ने प्रस्ताव पारित कर संसद द्वारा बनाए गए नागरिकता संशोधन कानून को असंवैधानिक करार दिया और लागू करने से इनकार कर दिया. अभी तक देश के लगभग एक दर्जन बड़े राज्यों ने इसे लागू करने से इनकार कर दिया है. केंद्र का जनगणना विभाग इसकी प्रक्रि या राज्य सरकारों के कर्मचारियों के सहयोग से करता है और कोई भी जनगणना राज्य सरकार के सहयोग के बिना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा अपनी प्रसार नीति के तहत लगभग सभी राज्यों में अपनी पैठ हर कीमत पर बनाना चाहती है. इस नीति में तो कोई खराबी या अनैतिकता नहीं है लेकिन इससे विपक्ष के दलों का शत्नुवत व्यवहार तो छोड़िये, भाजपा के अपने सहयोगी तक नाराज रहने लगे हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना का साथ छोड़ना, झारखंड में जदयू का खिलाफ लड़ना और भाजपा को शिकस्त देने का सबब बनना भी भाजपा की इसी विस्तार की नीति के खिलाफ प्रतिक्रि या है.
क्या केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और प्रधानमंत्नी मोदी इस बढ़ते संकट से वाकिफ हैं? क्या वे समझ रहे हैं कि भाजपा का चुनाव जीतने के लिए कड़वापन इस हद तक ले जाना विकास के लिए घातक है?