'जरूरत पड़ी तो' का मतलब क्या?
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 1, 2018 01:12 PM2018-08-01T13:12:12+5:302018-08-01T13:12:12+5:30
हमारा समाज ऐसा ही है। एक समय था, जब हमारे भीड़तंत्र का स्वरूप जातीय था, जो अब धार्मिक बन गया है।
(सुरेश
द्वादशीवार)जिस समाज में विवेक से ज्यादा श्रद्धा और श्रद्धा से ज्यादा अंधश्रद्धा बलवान हो उसमें भीड़तंत्र का उदय होने में देर नहीं लगती। हमारा समाज ऐसा ही है। एक समय था, जब हमारे भीड़तंत्र का स्वरूप जातीय था, जो अब धार्मिक बन गया है। इस कारण उसका स्वरूप अब अधिक बड़ा दिखने लगा है। इस भीड़तंत्र में शामिल उपद्रवी तत्वों पर धर्म की रक्षा, देशभक्ति अथवा नैतिकता जैसी अच्छी बातों का मुखौटा चढ़ा होने से धर्मभीरु लोग उनके खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते। इससे गुंडागर्दी प्रवृत्ति के नेता पैदा होते हैं, चुनाव जीतते हैं और अपने-अपने दलों का नेतृत्व करते हैं। ऐसे लोग सरकार समेत समाज और पुलिस समेत अदालत तक को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। नतीजतन समाज उनके आगे दब जाता है, पुलिस झुक जाती है और मीडिया को उनके काम दैवीय दिखाई देते हैं।
प्लेटो ने कहा था कि भीड़ की एक मानसिकता होती है, जो व्यक्ति की मानसिकता से अलग और कई बार विवेक से परे दिखाई देती है। उनके द्वारा इस विषय में दिया गया एक उदाहरण आज भी लागू होता है। सड़क पर जब रैलियां निकलती हैं तो लोग जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाते हैं। ऐसा करते हुए उन्हें कुछ भी अटपटा नहीं लगता। लेकिन उस रैली में से किसी एक को बाहर निकाल कर उससे कहा जाए कि ‘अकेले ही रास्ते से गुजरते हुए यह नारा लगाता चल’ तो उस रैली में से ऐसा कोई भी नहीं करेगा। क्योंकि भीड़ में जो बातें उसे बहादुरी और समझदारी से भरी लगती हैं, अकेले में वही उसे मूर्खतापूर्ण लगती हैं और डराती भी हैं। प्लेटो द्वारा दिया गया यह उदाहरण सौम्य और सामान्य भीड़ का है। जिस भीड़ पर खून सवार हो वह इससे अलग, भयावह और हिंसक होती है। वर्तमान में जिस भीड़ की राजनीति को हम अपने देश में देख रहे हैं, वह न केवल स्तब्ध कर देने वाली बल्कि डरावनी भी है। यह भीड़तंत्र जिनके लिए अनुकूल और लाभकारी है, ऐसे राजनेता कभी मौन साध लेते हैं तो कभी कुछ शब्द कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। हाल के दिनों में सोशल मीडिया का भी इसके लिए काफी इस्तेमाल किया गया है।
ऐसे भीड़तंत्र ने पिछले तीन वर्षो में देश के अनेक हिस्सों में जो हिंसाचार और उत्पात मचाया है, उसे गंभीरता से लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में केंद्र और राज्य सरकारों को फटकारा कि ‘आप लोगों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास है या नहीं’। केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार सत्तारूढ़ है और 21 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में भी पार्टी की ही सरकार है। इसलिए स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी भाजपा और उसके नेताओं पर ही है। शुरू में महिलाओं पर हमले और खासकर नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार कर उनकी हत्या की जघन्य घटनाओं पर कार्रवाई को लेकर सुस्ती दिखाई गई, इसके बाद गोवंश हत्या पर पाबंदी का कानून अचानक अनेक राज्यों में लागू कर दिया गया। इसके पश्चात विपक्ष के बड़े नेताओं के पीछे सीबीआई और ईडी को लगा दिया गया और अंत में अल्पसंख्यकों पर अपना पारंपरिक रोष बढ़ा दिया गया।
‘इस भीड़तंत्र पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने’ को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में सरकार को जो आदेश दिया है, उसकी पृष्ठभूमि व्यापक है। इस पर विडंबना यह कि जब गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि ‘जरूरत पड़ी तो भीड़तंत्र पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने पर सरकार विचार करेगी’, इस पर किसी ने यह सवाल तक नहीं पूछा कि ‘जरूरत पड़ी तो’ का मतलब क्या है। किसी ने यह भी नहीं पूछा कि भीड़तंत्र पर केवल अंकुश लगाना ही नहीं बल्कि उसे जड़ से समाप्त करना सरकार का पहला कर्तव्य है या नहीं? विगत तीन-चार वर्षो में एक खास किस्म का अपराध भीड़तंत्र द्वारा होता हुआ देखने के बावजूद यदि देश का गृह मंत्री यह कहे कि ‘जरूरत पड़ी तो’ तो देश में कौन सुरक्षित रहेगा या रह पाएगा?
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