रंजना मिश्रा ब्लॉग: हरियाली लाने की अनूठी पद्धति है 'मियावाकी'
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: June 28, 2023 12:14 IST2023-06-28T12:14:15+5:302023-06-28T12:14:30+5:30
मियावाकी पद्धति में ज्यादातर आत्मनिर्भर पौधे उपयोग में लाए जाते हैं, इसलिए उन्हें जल व खाद देने की तथा अन्य नियमित रखरखाव की जरूरत नहीं पड़ती।

फाइल फोटो
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में धरती को शीघ्र हरा-भरा बनाने वाली एक जापानी पद्धति मियावाकी का जिक्र किया था और देशवासियों तथा विशेषकर शहरों में रहने वाले लोगों से यह आग्रह किया था कि वे इसके जरिये धरती व प्रकृति को हरा-भरा तथा स्वच्छ बनाने में अपना योगदान दें।
जंगलों को तेजी से बढ़ाने, घना बनाने और प्राकृतिक बनाने में मदद करने वाली एक पद्धति को 1970 के दशक में जापानी वनस्पतिशास्त्री अकीरा मियावाकी ने विकसित किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम मियावाकी पद्धति पड़ा।
इस पद्धति को विकसित करने के पीछे का मूल उद्देश्य यह था कि एक छोटे से भूभाग में बहुत ही कम समय में सघन वन का निर्माण किया जा सके. इस पद्धति में पेड़ स्वयं अपना विकास करते हैं और तीन वर्ष के भीतर ही वे अपनी पूरी लंबाई तक वृद्धि कर लेते हैं।
सूखे और कटाव के क्षेत्रों में जंगल उत्पन्न करने के लिए इस प्रक्रिया में मिट्टी को गीली घास से ढंक दिया जाता है. इस पद्धति में एक साथ कई अलग-अलग प्रकार के पेड़ लगाए जाते हैं, जिससे विभिन्न प्रजातियों के बीच एक संतुलित वातावरण पैदा होता है।
इसके परिणामस्वरूप पौधे दस गुना अधिक तेजी से बढ़ते हैं और ये जंगल सामान्य जंगलों की तुलना में तीस गुना अधिक घने होते हैं. मियावाकी पद्धति से तैयार किए गए वनों में विशिष्ट अनुपात और अनुक्रम में पौधों की केवल देसी किस्मों का ही चयन किया जाता है, जिससे सौ प्रतिशत स्व-टिकाऊ पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता है।
यानी मियावाकी वानिकी केवल स्थानीय प्रजातियों का ही उपयोग करती है. इस प्रकार के वन स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के साथ मिलकर लंबे समय तक चलते हैं और ये शहरी वातावरण में भी मौजूद रह पाते हैं.
कम समय में सघन वृक्षारोपण करने की यह एक बहुत ही सफल और प्रचलित जापानी तकनीक है. इस विधि के द्वारा बहुत ही कम समय में किसी भी जंगल को एक घने जंगल में परिवर्तित किया जा सकता है।
मियावाकी पद्धति में ज्यादातर आत्मनिर्भर पौधे उपयोग में लाए जाते हैं, इसलिए उन्हें जल व खाद देने की तथा अन्य नियमित रखरखाव की जरूरत नहीं पड़ती।