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ब्लॉगः तीन पहिए दोनों तरफ, मगर चलेंगे किस तरफ !

By Amitabh Shrivastava | Updated: September 2, 2023 09:03 IST

वर्ष 2019 में राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार बनी थी, तब उसे तीन पहिए की सरकार कहा गया । आज नए गठबंधन बनने के बाद सत्ता और विपक्ष दोनों के पास तीन-तीन पहिए हैं। फिर भी इस बात का अंदाज नहीं लग पा रहा कि वे चलेंगे कैसे और जाएंगे किस तरफ।

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महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव अलायंस (इंडिया) की बैठक के साथ राज्य के नए सत्ता समीकरण के महागठबंधन ने भी अपनी बैठक बुला ली है। अब महाराष्ट्र में 28 पार्टी बनाम तीन पार्टी का मुकाबला सामने आ रहा है। हालांकि दोनों के स्तर में फर्क है। एक राष्ट्रीय स्तर की बात कर रहा है, तो दूसरा राज्य में अपनी चुनावी संभावनाओं को मजबूत बना रहा है। महाराष्ट्र की सीमाओं में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस का छोटा भाग एक तरफ है, तो दोनों ही दलों के बड़े हिस्से भारतीय जनता पार्टी के खेमे में बैठे हैं। शिवसेना उद्धव गुट और शरद पवार की राकांपा के साथ अटूट कांग्रेस है, लेकिन उसकी ताकत पर अभी कोई विश्वास नहीं कर पा रहा है।

राकांपा से अलग हुए नेताओं का दावा है कि पूरी पार्टी उनके साथ है, जबकि यही कुछ बात शिवसेना का शिंदे गुट कहता है। किंतु वास्तविकता के धरातल पर दोनों पालों में विधायक और सांसद अपनी-अपनी निष्ठा के साथ डटे हुए हैं। इसलिए एकतरफा राजनीति या किसी एक ओर झुकाव की संभावना कम नजर आ रही है। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे जिस तरह सभाओं का आयोजन कर रहे हैं और उन्हें पुराने शिवसैनिकों का विश्वास मिल रहा है, उससे उन्हें खाली हाथ नहीं माना जा सकता। उनके पास कार्यकर्ताओं की अच्छी फौज है। साथ में खड़े नेता भी निष्ठा के साथ दिखाई दे रहे हैं। यही हाल राकांपा का भी है, जिसमें शरद पवार के समर्थक उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। शक्ति प्रदर्शन के अवसरों पर वे पूरी ताकत के साथ मौजूद रहते हैं। इसीलिए राकांपा अजित पवार गुट के नेता राकांपा प्रमुख शरद पवार को सीधी चुनौती देने से बचने लगे हैं। वे फोटो हटाने की बात हो या उम्र की चर्चा जैसे मुद्दों को उठाने से संकोच करने लगे हैं। यहां तक कि अपनी सभाओं को शक्ति प्रदर्शन ह भी पीछे हटकर उसे उत्तरदायित्व से जोड़ रहे हैं। उन्हें यह बात समझ में आ रही है कि उनके लिए बगावत शब्द उसी तरह महंगा है, जैसा शिवसेना की भाषा में 'गद्दारी' शब्द को भुनाया जा रहा है, दोनों के बीच स्थितियां यह हैं कि एक के पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, तो दूसरे के पास हासिल आई ताकत को संभालना आसान नहीं है। हालांकि यह सर्वेक्षण आमने-सामने की लड़ाई के अनुमानित परिणाम हो सकते हैं, मगर यह भी तय है कि आने वाले समय राज्य की चुनावी बिसात पर हर दल को अपने से मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। आम तौर पर राज्य में कांग्रेस गठबंधन बनाम भगवा गठबंधन मुकाबला होता आया है। किंतु नए समीकरणों में शिवसेना विरुद्ध शिवसेना और राकांपा विरुद्ध राकांपा मुकाबले के अनेक निर्वाचन क्षेत्र तैयार हो सकते हैं। कुछ हद तकबीत रहीजो बात।।।!

पिछले दिनों एक मीडिया हाउस के लोकसभा के चुनावी सर्वेक्षण में राज्य के पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ की अच्छी तस्वीर नहीं दिखाई दी। नए चुनावी समीकरणों में उन्हें आधा-आधा बांटकर संतोष करना पड़ सकता है। यह संकेत विपक्ष के लिए अच्छे हैं, लेकिन केंद्र से लेकर राज्य तक सब्जबाग बनाए बैठे सत्तापक्ष के लिए अच्छे नहीं हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के वर्ष 2009 के विधानसभा चुनावों में चलाए गए दांव की तरह शिवसेना और राकांपा दोनों के दोनों घटकों की तरफ मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। यह परेशानी केवल इन दोनों दलों तक ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा दोनों के सामने समस्या बन सकती है। अजित पवार की राकांपा के पास नेताओं की बड़ी फौज है, जो सहज समझौते के लिए तैयार नहीं होगी। वहीं शिवसेना के शिंदे गुट के पास भी महत्वाकांक्षी नेता बहुत हैं, जो पीछे हटने के लिए तैयार नहीं होंगे। ऐसे में यदि कोई तीसरा दल मैदान में आएगा तो सबका खेल बिगाड़ेगा। आज नए परिदृश्य में मतदाता भले ही भ्रम में हो या फिर वह निष्ठा को प्राथमिकता देता हो। अंत समय पर लिया गया निर्णय चुनाव की शक्ल को आसानी से बदल सकता है। यही वजह है कि सत्ता सुख को भोगने के बाद भी कोई आत्मविश्वास के साथ नजर नहीं आ रहा है। यहां तक कि उसे अपनी पार्टी की टूट को तार्किक ढंग से आम जन को समझा पाना आसान नहीं हो पा रहा है।

करीब पौने चार साल पहले जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाआघाड़ी सरकार बनी थी, तो उस समय यह तय हो चला था कि राज्य में अब मुकाबला भाजपा विरुद्ध अन्य सभी दल का होगा। उस दौरान तीन दलों की मिलकर विधानसभा में डेढ़ सौ से अधिक सीटें हो रही थीं। उनमें मतदान के लिए आवश्यक सभी समीकरण जुड़ रहे थे। तब भाजपा भी अकेली पड़ती दिख रही थी। किंतु वर्तमान में भाजपा अकेली नहीं है, लेकिन जो दल साथ हैं वे विपक्ष के पाले से ही आए हैं। उनके नेताओं की ताकत वर्तमान विपक्षी दलों से ही तैयार हुई है। इसलिए उनकी पूरी शक्ति भाजपा को मिलना संभव नहीं। यहीं पर चिंताओं का बाजार गर्म होता है। यहीं से चुनाव आसान नजर नहीं आते हैं।

वर्ष 2019 में राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार बनी थी, तब उसे तीन पहिए की सरकार कहा गया था। आज नए गठबंधन बनने के बाद सत्ता और विपक्ष दोनों के पास तीन-तीन पहिए हैं। फिर भी इस बात का अंदाज नहीं लग पा रहा है कि वे चलेंगे कैसे और जाएंगे किस तरफ, नए तालमेल में मत विभाजन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। जहां भी त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय मुकाबले होंगे, वहां स्थापित नेताओं को परेशानी तो होगी ही। बीते दिनों में राजनीति में वैमनस्य का जहर इतना अधिक घोल दिया गया है कि परदे के पीछे भी समझौता करना आसान नहीं है। अब आने वाले दिनों में चाहे जितनी सभाएं कर ली जाएं, चाहे जितना जहर एक-दूसरे के खिलाफ उगल लिया जाए, चुनावी परिणाम तो वही होंगे जो मतदाता को नेताओं की बगावत के समय समझ में आया था। पिछली सरकार से नई सरकार बेहतर काम कर रही है, यह समझा पाना और उस पर राय बनना फिलहाल मुश्किल है। इसके बीच इतना तय है कि अब चुनावी समर में संघर्ष मूल अस्तित्व बचाने से लेकर नए अस्तित्व को बचाए रखने के बीच होगा, जहां नेताओं की महत्वाकांक्षा और मतदाताओं की अपेक्षा फैसला सुनाएगी।

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