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Maharashtra Lok Sabha Elections 2024: ‘प्रासंगिक करार’ में उलझ गई सरकार!, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का कहना- उनका महागठबंधन ‘फेविकॉल’ के जोड़ की तरह...

By Amitabh Shrivastava | Updated: June 15, 2024 10:58 IST

Maharashtra Lok Sabha Elections 2024: उपमुख्यमंत्री अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के नेता तो लोकसभा चुनाव के बीच से ही शोर मचाने लगे थे.

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ठळक मुद्देचुनाव बाद भी उनकी जल्दबाजी में कोई कमी नहीं है. महाविकास आघाड़ी में भी अनेक सवाल उठने आरंभ हो गए हैं. कांग्रेस के खेमे की ओर से बीच चुनाव में भी खींचतान हुई थी, वह अब भी जारी है.

Maharashtra Lok Sabha Elections 2024: महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव तक मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का यह कहना कि उनका महागठबंधन ‘फेविकॉल’ के जोड़ की तरह है, अब सच सिद्ध नहीं हो रहा है. आम चुनाव के अच्छे परिणाम नहीं आने के बाद जहां भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के भीतर हलचल तेज है, वहीं दूसरी ओर छोटे संगठन, जैसे विधायक बच्चू कडू के नेतृत्व वाले प्रहार संगठन ने तो साफ तौर पर विधानसभा चुनाव अलग लड़ने की घोषणा कर दी है. इसके अलावा उपमुख्यमंत्री अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के नेता तो लोकसभा चुनाव के बीच से ही शोर मचाने लगे थे.

चुनाव बाद भी उनकी जल्दबाजी में कोई कमी नहीं है. हालांकि ऐसा नहीं है कि पराजय का सामना करने के बाद महागठबंधन में गतिविधियां तेज हुई हैं, उधर महाविकास आघाड़ी में भी अनेक सवाल उठने आरंभ हो गए हैं. विशेष रूप से कांग्रेस के खेमे की ओर से बीच चुनाव में भी खींचतान हुई थी, वह अब भी जारी है.

इस बीच, राज्य सरकार में मंत्री अब्दुल सत्तार ने ‘प्रासंगिक करार’ की बात को उछाल कर शिवसेना के शिंदे गुट को आगाह कर दिया है. साफ है कि सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, सभी दल वक्त के साथी हैं, ऐसे में उनके गठजोड़ की विश्वसनीयता का अनुमान एक पहेली बन चला है. पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में सभी दल और उनके गठबंधन की स्थितियां स्पष्ट थीं.

विचारधारा आधारित सहमति के चलते चुनाव के पहले और चुनाव के बाद की रणनीति तय थी. लोकसभा चुनाव तक सब कुछ ठीक-ठाक चला, मगर विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से अप्रत्याशित रूप से गठबंधन बिखरने लगे. यहां तक कि विपरीत विचारों वाले दलों ने मिलीजुली सरकार की स्थापना कर डाली. हालांकि वह कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी.

लेकिन उसने गठबंधनों में वैचारिक उदारता का संदेश जरूर दे दिया. महाविकास आघाड़ी की सरकार गिरने के बाद शिवसेना का शिंदे गुट और भाजपा की सरकार ने कुछ ही समय में राकांपा में फूट का लाभ उठाकर अजित पवार गुट को अपने साथ कर लिया. लिहाजा पक्ष-विपक्ष एक समान-सा दिखाई देने लगा. बाद में टूट-फूट से बनी राज्य सरकार का लोकसभा चुनाव में एकजुट रहना आवश्यक था.

जो प्रत्यक्ष तौर पर बना भी रहा. मगर लोकसभा चुनाव में अपेक्षा से कम सीटें मिलने के बाद हार के कारणों के लिए हर एक को दूसरे का मुंह देखना पड़ रहा है. इसी में अप्रत्यक्ष दोषारोपण की स्थितियां बन रही हैं. जिनसे गठबंधन में दरार आने की संभावना अधिक होती जा रही है. यूं तो राज्य में दलीय टूट के बाद से विधायकों की आवाजाही हमेशा ही बनी रही, किंतु पराजय के बाद उसे और हवा दी जा रही है.

जिससे आसानी से छिटकने वाले नेता सहजता से अपना पाला बदल लें. इसी प्रकार जिन नेताओं की मानसिकता इधर-उधर आने-जाने की है, वे भी नया दामन थाम लें. इस कड़ी में सबसे आगे आने वालों में प्रहार संगठन के नेता और विधायक बच्चू कड़ू हैं, जो लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं.

इसी प्रकार राकांपा के अजित पवार गुट के नेता छगन भुजबल भी लोकसभा चुनाव से आक्रामक हैं. अब वह सीटों के जल्द समझौते के बहाने गठबंधन पर दबाव बना रहे हैं. उनकी मांगों पर यदि विचार हुआ तो भाजपा पर सीटें अधिक छोड़ने का दबाव बनेगा. इसके अतिरिक्त आम चुनाव में बाहर से समर्थन देने आई महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के प्रमुख शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे पर निशाना साध कर करीब ढाई सौ सीटों पर चुनाव लड़ने का संकेत भाजपा को दे चुके हैं.

इन्हीं परिस्थितियों के बीच यदि शिवसेना के शिंदे गुट के कुछ विधायक ठाकरे गुट में वापसी करते हैं या अजित पवार गुट के नेता शरद पवार गुट में जाते हैं तो सीटों को लेकर मामला अधिक पेचीदा हो जाएगा, जिसका नुकसान भाजपा को ही उठाना पड़ सकता है. साफ है कि अब गठबंधन में शामिल दल धीरे-धीरे भाजपा के लिए गले की हड्‌डी बनते जा रहे हैं.

शिवसेना के शिंदे गुट के साथ सरकार बनाना तो ठीक था, किंतु राकांपा के अजित पवार गुट को साथ लेना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेकर भाजपा के परंपरागत मतदाता को भी रास नहीं आया. लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर मांगे गए मतों तक तो बात चल गई, लेकिन राज्य विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के तालमेल को तर्कसंगत बनाना आसान नहीं होगा.

किंतु यदि शिंदे गुट से दूरी बनाई जाती है तो दुश्मनों की एक नई फौज तैयार हो जाएगी और यदि साथ लेकर चला जाता है तो शिवसेना की सारी सहानुभूति ठाकरे गुट के पास चली जाएगी. इसी प्रकार भाजपा अकेले चुनाव लड़ती है तो वह बहुदलीय मुकाबलों में फंस जाएगी, और नहीं लड़ेगी तो नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना ही होगा.

दूसरी ओर महाविकास आघाड़ी में कांग्रेस सर्वाधिक महत्वाकांक्षी हो चुकी है. वह हर हाल में अपना वर्चस्व दोबारा स्थापित करना चाहती है. उसे भाजपा के अलावा सभी दलों की कमजोरी का लाभ मिल रहा है. भाजपा भी सरकार विरोधी वातावरण के कारण एक कदम पीछे है. महाविकास आघाड़ी में शिवसेना उद्धव गुट का अतिउत्साह चिंताएं जगा रहा है.

राकांपा के शरद पवार गुट में तो नेता शरद पवार ही काफी आगे आकर खेलने के लिए तैयार हैं, जिससे वह परिणाम से अधिक चुनौती देने में विश्वास कर रहे हैं. स्पष्ट है कि जब वैचारिक स्तर से परे समझौते प्रासंगिक होते हैं तो उनके परिणाम भी तात्कालिक ही होते हैं. उनसे दूरगामी नतीजों की आशा नहीं की जा सकती है.

राज्य में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों गठबंधन प्रसंगवश तैयार हुए और उन्हें लाभ-हानि के साथ निभाया गया, जिसमें मिलना और बिछड़ना तो एक दस्तूर बन चुका है. इसलिए पालों और उनमें हो रहे बदलाव को लेकर अधिक आश्चर्य जताया नहीं जा सकता है.

हालांकि राजनीति में निष्ठा और विश्वसनीयता का अपना महत्व होता है, लेकिन ऐसी बातें बुनियाद से ही अस्तित्व में हों तभी आदर्शों की इमारत पर कोई सवाल उठाया जा सकता है. फिलहाल तो सब कुछ प्रसंगों से जुड़ा है, जिनके कभी बनने और कभी बिगड़ने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

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