Maharashtra Assembly Polls 2024: सबसे बड़ा सवाल तो एक अदद चेहरे का ही है?
By Amitabh Shrivastava | Updated: October 19, 2024 05:20 IST2024-10-19T05:20:13+5:302024-10-19T05:20:13+5:30
Maharashtra Assembly Polls 2024: राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) इसे चुनाव के पहले गैरजरूरी मानता है. वहीं शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) इसे अपनी जरूरत मानता है, क्योंकि उसके नेता और कार्यकर्ता हमेशा ही किसी नेता की छत्रछाया में ही रहते और बढ़ते नजर आए हैं.

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जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग,
एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग...
जाने-माने शायर साहिर लुधियानवी ने ये पंक्तियां सत्तर के दशक में लिखी थीं. मगर चेहरों की राजनीति में इनका संदर्भ कभी समाप्त नहीं होता है. चुनाव हो या सरकार, असली तलाश तो एक अदद चेहरे की ही होती है. इसी बात को राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने उस समय उचित ठहरा दिया, जब राज्य में चुनावों की घोषणा होने के बाद महागठबंधन सरकार अपनी उपलब्धियों को गिना रही थी. उन्होंने तीन दलों की सरकार का एक ही चेहरा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को बता दिया. साफ है कि पिछले अनेक माह से विपक्ष के सभी दल महाविकास आघाड़ी के चेहरे को लेकर परेशान हैं.
कांग्रेस अपनी परंपरा चुनाव बाद नेता के चयन को बताती है, तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) इसे चुनाव के पहले गैरजरूरी मानता है. वहीं शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) इसे अपनी जरूरत मानता है, क्योंकि उसके नेता और कार्यकर्ता हमेशा ही किसी नेता की छत्रछाया में ही रहते और बढ़ते नजर आए हैं.
यदि वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के बीच सरकार बनाने को लेकर पैदा हुए ‘टशन’ को देखा जाए तो वह भी एक चेहरे से उभरा था और एक चेहरे पर ही समाप्त हुआ था. भले ही दोनों दलों के बीच वादाखिलाफी को लेकर जमकर बयानबाजी हुई हो, लेकिन असलियत में मुद्दा यही था कि राज्य का मुख्यमंत्री कौन होगा?
आश्चर्यजनक रूप से शिवसेना उस स्थिति में भी समझौता चाह रही थी, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री फडणवीस ने अपनी चुनावी सभाओं में जोरदार ढंग से वापसी का ऐलान किया था. आखिरकार समझौता नहीं होने पर शिवसेना ने विपक्षी दल कांग्रेस और राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनाई और उस समय भी जब चेहरे का सवाल आया तो राज्य में ठाकरे परिवार का पहला सदस्य मुख्यमंत्री बना.
इसी प्रकार ढाई साल बाद जब ठाकरे सरकार गिरी तो फिर एक नया चेहरा एकनाथ शिंदे के रूप में सामने आया, जो कई लोगों के लिए चौंकाने वाला था. मगर अब अगला चुनाव मुख्यमंत्री शिंदे के चेहरे पर ही लड़ा जा रहा है, जिसे ‘कॉमन मैन’(आम आदमी) बता कर सर्वमान्य स्वीकृति दर्शाने की कोशिश की जा रही है.
दरअसल नब्बे के दशक में भारतीय राजनीति में चाल, चरित्र और चेहरे का शिगूफा भाजपा ने ही छोड़ा था. भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर इसी बुनियाद पर पार्टी ने सत्ता की ओर आगे बढ़ना आरंभ किया और वर्ष 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अनेक मोर्चों पर शिखर को छुआ. विपक्ष को इस आधार को समझने में बहुत देर लगी.
फिर उसने अनेक नए चेहरे गढ़ने की कोशिश भी की, लेकिन समय बीत चुका था. किंतु वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव ने पक्ष-विपक्ष दोनों को इस तरकीब से उबरने का संकेत दिया. हाल के हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम किसी चेहरे विशेष पर नहीं लड़े गए, जिसके नतीजे सामने हैं.
यूं भी पिछले कुछ सालों में भाजपा ने चुनाव के समीप आते ही अपने मुख्यमंत्रियों के चेहरों को बदलने का सिलसिला आरंभ किया है. कर्नाटक, गुजरात और हरियाणा इस बात के उदाहरण हैं. इतना ही नहीं, चुनावों में सफलता पाने के बाद में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नए चेहरों को अवसर दिया गया. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह परंपरा आगे भी बनी रहे.
अब महाराष्ट्र की बारी है और यहां भाजपा एकनाथ शिंदे को आजमा चुकी है. इसलिए उसके सामने विकल्प ढूंढने की दिक्कत नहीं है. हालांकि फड़नवीस स्वयं मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार हैं. इसी प्रकार राकांपा के अजित पवार अनेक मंचों से यह कह चुके हैं कि वह गलतियां नहीं करते तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हो जाते.
आगामी चुनावों में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सर्वाधिक बेचैनी शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट में है, जो अपने नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में देखना चाहता है. इस समस्या का महाविकास आघाड़ी के पास कोई हल नहीं है. राकांपा (शरद पवार गुट) सांसद सुप्रिया सुले को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनाने का सपना पालता है, तो उत्साहित कांग्रेस में मुख्यमंत्री के दावेदारों की कोई कमी ही नहीं है.
हालांकि उनके लिए आलाकमान का निर्णय ही अंतिम होता है. चेहरों को लेकर आम सहमति या दावेदारी का संकट इसलिए भी अधिक गहरा है, क्योंकि इस चुनाव में जाति के नाम पर मतों के विभाजित होने की आशंका बड़ी है. लोकसभा चुनाव में महाविकास आघाड़ी ने इस बात का फायदा उठाया था, लेकिन विधानसभा चुनाव में यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है.
पिछले चुनावों में मराठा आरक्षण आंदोलन के अलावा कोई और अधिक मुखर नहीं था. किंतु इस चुनाव में धनगर, अन्य पिछड़ा वर्ग सभी अधिक सक्रिय हैं. बीते दो चुनावों में चेहरों की राजनीति में एक बात तय हो चली है कि विधानसभा चुनाव में नेताओं की राष्ट्रीय छवि को अधिक महत्व नहीं मिलने जा रहा है. अब पहचान ‘मेरा गांव- मेरा देश’ की चलेगी.
इस स्थिति में क्षेत्रीय नेताओं का महत्व अधिक बढ़ जाता है. जिन नेताओं ने राजधानी से अपने गांव-धानी तक जगह बनाई है, उन्हें मतदाता के समक्ष अधिक परिश्रम करने की जरूरत नहीं है. इसी बात को लेकर हर छोटा-बड़ा दल अपने नेता के नाम और चेहरे पर दांव खेलने को आमादा है.
इसमें चुनाव घोषित होते ही महागठबंधन ने बाजी मारी है और महाविकास आघाड़ी की समस्या बढ़ाई है. फिलहाल नियति अनुसार चेहरों के खेल में मतदाता एक बार फिर फंसने के लिए तैयार है. अपना एक मत देकर पांच साल तक चेहरे को ताकना उसकी मजबूरी है.
अधिक निराशा से परे यूं तो हर चुनाव एक उम्मीद लेकर आता है, इस बार मतदाता के लिए कोई नई बात नहीं सही. बाकी साहिर लुधियानवी ने अपने गीत की पंक्तियों में यह भी लिखा है, जो गुजरे सालों में मतदाता की मन:स्थिति पर कही जा सकती है.
हम ही नादां थे जो ओढ़ा बीती यादों का कफ़न,
वर्ना जीने के लिए सब कुछ भुला देते हैं लोग...