Lok Sabha Elections 2024: पिछले हफ्ते विपक्षी नेताओं के समूह की चौथी बार नई दिल्ली में बैठक हुई. उनका उद्देश्य है 2024 में भाजपा को हराकर नरेंद्र मोदी को गद्दी से उतारना. लेकिन अजेय मोदी के मुकाबले खड़ा करने के लिए किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन सकी. अब वे फिर मिलेंगे.
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को छोड़कर हर नेता भाषण देने पहुंचा. सभी भाषणों से यह स्पष्ट था कि वे हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार से क्षुब्ध थे. लेकिन कांग्रेस की हार उसके सहयोगियों के लिए एक छिपा वरदान थी. कांग्रेस अब कनिष्ठ संगठनों की भी बात सुनने को तैयार थी.
भाजपा के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपनी पहचान बचाने के लिए त्याग करने को भी मानसिक रूप से तैयार थी. राष्ट्रीय चुनाव अभियान शुरू होने में बमुश्किल आठ सप्ताह से भी कम समय बचा है, विपक्ष को अभी भी मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का मुकाबला करने के लिए एक एकजुट और विश्वसनीय आख्यान विकसित करना बाकी है. इस स्वभावगत भ्रम से कुछ सवाल उठ रहे हैं.
क्या इंडिया गठबंधन एनडीए से ज्यादा मजबूत है? हां, संख्या और भूगोल दोनों के हिसाब से. लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले इसके दो दर्जन सदस्य दल ज्यादातर जाति और परिवार द्वारा संचालित दल हैं. भाजपा ने यूपी और बिहार में छोटे दलों को छोड़कर किसी को भी सहयोगी बनाने से परहेज किया है.
इंडिया गठबंधन की दुविधा यह है कि कांग्रेस को छोड़, अन्य दल मिलकर पूरे देश में 125 से अधिक सीटें नहीं जीत सकते. केवल टीएमसी, डीएमके, शिवसेना (उद्धव), एनसीपी (पवार) और समाजवादी पार्टी दोहरे अंक में पहुंच सकते हैं. इसके अलावा, विचारों के बजाय सुविधा का गठबंधन होने से इसमें ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जिनके लिए सत्ता और प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है.
उदाहरण के लिए, मार्क्सवाद और द्रविड़ शासन कला में कोई समानता नहीं है. लेकिन वे तमिलनाडु में साझेदारी करेंगे. तमिलनाडु में द्रमुक के साथ कांग्रेस का गठबंधन केवल अन्नाद्रमुक-भाजपा गठबंधन को सत्ता से बाहर रखने के लिए है. फिर भी, द्रमुक ने ‘सनातन धर्म’ की आलोचना कर कांग्रेस को शर्मिंदा किया.
क्या इंडिया गठबंधन बहुमत हासिल कर सकता है? यह है तो बहुत मुश्किल, लेकिन असंभव नहीं है. कांग्रेस को कम से कम 140 सीटें जीतना है. इसके लिए उसे उत्तर भारत, असम और कर्नाटक में भाजपा को हराना होगा. इसकी रणनीति लगभग 450 निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के खिलाफ सीधी लड़ाई की कोशिश करना है.
अन्य राज्यों में अतिरिक्त सीटें पाने के लिए कांग्रेस को अपनी उत्तर भारत की कुछ सीटें सहयोगियों को देनी होंगी. हालिया बैठक में राहुल ने 2024 में जीत के लिए छोटी जाति और पंथ-आधारित पार्टियों के महत्व को भी रेखांकित किया. उन्होंने क्षेत्रीय दलों को समायोजित नहीं करने के लिए राजस्थान और मध्यप्रदेश में वरिष्ठ नेताओं को दोषी ठहराया.
यह और बात है कि उनकी कथनी-करनी में फर्क रहा है. गांधी परिवार का कोई भी सदस्य क्षेत्रीय और छोटे दलों के साथ बातचीत में शामिल नहीं हुआ, वार्ताकार के रूप में खड़गे को प्राथमिकता दी गई, जिनके पास अंतिम निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. पार्टी को इंडिया के अन्य घटक दलों के साथ सीट साझा करने के फॉर्मूले पर चर्चा करने के लिए एक समिति गठित करने में चार महीने लग गए.
कांग्रेस को इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि यूपी और बिहार में उसका अस्तित्व नहीं है, इसलिए वह अतिरिक्त सीटों की मांग नहीं कर सकती. उसे छोटी पार्टियों को भी समर्थन देना होगा. उसकी बड़ी चुनौती भाजपा के हाथों हारी हुई 180 सीटों में से कम से कम 75 सीटें वापस जीतना है.
गठबंधन की सरकार तभी बन सकती है जब कांग्रेस को 140 सीटें मिलें और भाजपा 225-240 सीटों पर सिमट जाए. क्या विपक्ष को एक नेता की जरूरत है? है, पर कोई एक नेता नहीं हो सकता. इंडिया गठबंधन उन नेताओं का समूह है जो खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखते हैं. इसका कोई मंत्रमुग्ध कर देने वाला नारा भी नहीं है.
मोदी सरकार के खिलाफ कोई स्पष्ट सत्ता विरोधी भावना नहीं होने के कारण, इंडिया गठबंधन को सुर्खियों में आने और लोगों के दिमाग में जगह बनाने के लिए एक प्रभावी नारे की आवश्यकता है. उन्हें ‘मोदी की गारंटी’ के कारवां का मुकाबला करना होगा, जो पूरे देश में यह संदेश लेकर घूम रहा है कि मोदी ही राष्ट्रीय विकास की एकमात्र गारंटी हैं.
अनुभव बताता है कि नेता-विरोधी आख्यान पर चुनाव नहीं जीते जाते. उदाहरण के लिए, जब विपक्ष ने ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ का नारा लगाया तो इंदिरा गांधी ने अधिक सीटें जीतीं. यह तय है कि मोदी के खिलाफ नकारात्मक अभियान से इंडिया गठबंधन को वोट या सीटें नहीं मिलेंगी. आपातकाल की ज्यादतियों के कारण इंदिरा गांधी को अपनी सीट और सरकार गंवानी पड़ी.
लेकिन दक्षिण उनके साथ रहा. वह एक प्रभावशाली नारे के साथ भारी बहुमत से लौटीं कि ‘ऐसी सरकार चुनें जो काम करे.’ 2004 में वाजपेयी को अजेय माना जाता था. भाजपा ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के तहत समय से पहले चुनाव में उतरी. लेकिन उसे 180 से कम सीटें मिलीं. सोनिया गांधी ने एकजुट गठबंधन के जरिये जीत की रूपरेखा तैयार की थी.
तब न तो कोई वाजपेयी विरोधी लहर थी और न ही उनका कोई बेहतर विकल्प था. 2009 का लोकसभा चुनाव मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं, बल्कि यूपीए के प्रदर्शन पर लड़ा गया था. भाजपा ने उस समय 80 साल के लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा किया. लेकिन वे बेअसर रहे.
2014 में, भाजपा को एक नेता और नारे का प्रभावी संयोजन मिला: ‘अबकी बार, मोदी सरकार’. भ्रष्टाचार व कमजोर नेतृत्व के खिलाफ दिखने वाली कांग्रेस विरोधी लहर ने मोदी और उनके एजेंडे को बढ़ावा दिया. अब इंडिया गठबंधन का एक वर्ग मोदी के खिलाफ एक और 80 वर्षीय योद्धा मल्लिकार्जुन खड़गे को खड़ा करना चाहता है.
क्योंकि वे विशाल राजनीतिक अनुभव वाले दक्षिण भारतीय दलित हैं. शायद विपक्ष को लगता है कि अनुसूचित जाति के मतदाता जो भाजपा के साथ नहीं हैं, और मुस्लिम, उत्तर और पश्चिम भारत में 150 से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.
इसके अलावा, ममता-केजरीवाल के प्रस्ताव के पीछे की रणनीति कांग्रेस को यह घोषणा करने के लिए मजबूर करना था कि राहुल प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं. इंडिया गठबंधन के नेता गांधी परिवार की अपरिहार्यता को जानते हैं. लेकिन वे संयुक्त प्रचार में परिवार की भूमिका को कम करना चाहते हैं.
मोदी ने शहरी मध्यम वर्ग और महिलाओं को मंत्रमुग्ध कर दिया है. इंडिया गठबंधन अपना ध्यान मोदी से हटाकर ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ पर केंद्रित करके एक गंभीर चुनौती पेश कर सकता है. लेकिन इंडिया और भारत के बीच की दूरी को पाटे बिना ऐसा नहीं हो सकता.