ब्लॉग: अकेले चले थे, मगर क्या बन पाया कारवां?
By Amitabh Shrivastava | Published: April 6, 2024 10:58 AM2024-04-06T10:58:45+5:302024-04-06T10:59:14+5:30
वर्ना सांसद इम्तियाज जलील के शब्दों में ‘एक्सीडेंटल एमपी’के लिए दुर्घटना का होना भी जरूरी होता है, जो कब हो जाए कहा नहीं जा सकता।
पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हवा होने के बावजूद महाराष्ट्र में तीन नए चेहरे जीतकर सामने आए थे, जिनमें औरंगाबाद से जीतने वाले इम्तियाज जलील, अमरावती से विजेता बनीं नवनीत राणा और चंद्रपुर से जीते सुरेश धानोरकर थे।
शिवसेना ने 18 सीटें जीतने के बाद भी दो जगह झटका खाया था, जबकि भाजपा को हंसराज अहीर के रूप में अपने मंत्री को हारते हुए देखना पड़ा था। तीनों चेहरों की राज्य में चर्चा बहुत हुई। इम्तियाज जलील और नवनीत राणा लोकसभा में मुखर दिखाई दिए।
दुर्भाग्य से कांग्रेस के इकलौते सांसद धानोरकर का असामयिक निधन हो गया। किंतु तब उनकी जीत ही कांग्रेस के लिए संजीवनी थी। परंतु अब चुनाव के द्वार पर तीनों स्थानों पर संघर्ष की अपनी बिसात तैयार है। हालात जो पहले थे, वे अब नहीं हैं. समीकरण जो आसानी से जीत में बदल रहे थे, उन्हें तैयार करना मुश्किल हो चला है।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 48 सीटों में से 41 पर भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने कब्जा जमाया था। चार सीटें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) ने जीतीं और एक-एक सीट पर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), कांग्रेस और राकांपा समर्थित निर्दलीय की विजय हुई थी। चंद्रपुर सीट पर कांग्रेस के धानोरकर ने 44,763, अमरावती सीट पर राणा ने 36,951 और औरंगाबाद सीट पर जलील ने 4,492 मतों से विजय प्राप्त की थी।
लोकसभा चुनाव की दृष्टि से देखा जाए तो तीनों विजेताओं की जीत का अंतर बहुत अधिक नहीं था। किंतु तीनों स्थानों पर स्थापित सांसदों की पराजय हुई। चंद्रपुर से अहीर, अमरावती से अड़सूल और औरंगाबाद से चंद्रकांत खैरे अनेक बार चुनाव जीत चुके थे।
कुछ हद तक इन स्थानों पर नए उम्मीदवारों की जीत को सत्ता विरोधी मतों की जीत माना गया। सब कुछ होने के बाद तीनों सांसदों को अपनी छाप छोड़ने का अवसर था, लेकिन सत्ता का साथ न होने से संकट अपनी जगह था। बीच में दो साल का कोविड महामारी का प्रकोप बड़ी परेशानी थी, जिसने आमजन को तो झकझोरा ही, नेताओं के कामकाज को भी प्रभावित किया। यहां तक कि सांसद निधि पर भी रोक लगी रही। यूं देखा जाए तो ढाई साल का अवसर ही सीधे तौर पर कामकाज के लिए मिला।
एआईएमआईएम के सांसद जलील ने अपनी पार्टी लाइन पर चलते हुए मुस्लिमों की आवाज को बुलंद किया। साथ ही अपने क्षेत्र की मूलभूत समस्याओं पानी, आवागमन और चिकित्सा पर अपना ध्यान केंद्रित किया। हालांकि वह विधायक से सांसद बने थे, इसलिए उन्हें क्षेत्र का अनुभव था. फिर भी छोटे दल के विपक्षी सांसद होने के कारण सत्ता का सहयोग अधिक नहीं मिला।
निर्दलीय सांसद राणा ने चुनाव जीतने के साथ ही भाजपा का समर्थन आरंभ किया, जिससे उन्हें पहचान मिली। सत्ताधारियों का सहारा मिला, लेकिन शिवसेना के साथ बैर भी बढ़ा और अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। फिर भी उन्होंने जमीनी कामकाज पर जोर दिया। कांग्रेस के धानोरकर विपक्ष में बैठने के बाद सिमट कर रह गए।
पहले कोरोना ने काम नहीं करने दिया, बाद में उन्हें अपनी बीमारी से मुकाबला करना पड़ा, जिसमें पिछले साल मई में उन्हें पराजय ही मिली. आखिर में धानोरकर की राजनीति की डोर उनकी पत्नी को संभालनी पड़ी।
अब नए परिदृश्य में सांसद जलील की जीत के दो हिस्सेदार वंचित बहुजन आघाड़ी से गठबंधन और निर्दलीय हर्षवर्धन जाधव का तत्कालीन सांसद चंद्रकांत खैरे के खिलाफ प्रचार इस बार नहीं है।
वंचित बहुजन आघाड़ी ने अपना अलग उम्मीदवार मैदान में उतारा है ।खैरे विभाजित शिवसेना के ठाकरे गुट के साथ चुनाव लड़ने जा रहे हैं, जबकि भाजपा और शिवसेना का शिंदे गुट अभी तक अपना प्रत्याशी तय नहीं कर पाए हैं।जलील के पास मराठा आंदोलन को समर्थन देने का साथ है तथा कुछ हिंदू और दलित क्षेत्रों के लिए किए गए कामों की सहायता है। इसके अलावा सुशिक्षित, सहज और संघर्षशील व्यक्ति की छवि का साथ है।
सांसद राणा ने पिछला चुनाव राकांपा के समर्थन से जीता था। बाकी सभी दल विरोध में चुनाव मैदान में थे।किंतु इस बार चुनाव के बाद नीतियों का लगातार समर्थन करने से उन्हें भाजपा का टिकट तो मिल गया है, लेकिन विरोधी कम नहीं हुए हैं। यहां तक कि राज्य की सरकार में शामिल प्रहार पार्टी के प्रमुख बच्चू कड़ू उनका खुला विरोध कर रहे हैं।
शिवसेना का भी स्वाभाविक असहयोग उनके साथ रहेगा। दूसरी ओर हिंदुत्व का जोरदार प्रचार और जमीन से जुड़े रहने की कोशिशें राणा को साथ देंगी। बयानों में बेबाकी भी उनकी पहचान बनी रहेगी। ना, ना करते हुए उनका कमल चिह्न पर चुनाव लड़ना मजबूरी है। उधर, धानोरकर के निधन के बाद उनकी पत्नी प्रतिभा धानोरकर का मुकाबला भाजपा के मजबूत खिलाड़ी सुधीर मुनगंटीवार से है।
हालांकि उनको लोकसभा चुनाव का अनुभव नहीं है किंतु भाजपा में उनकी स्थिति मजबूत है। प्रतिभा धानोरकर चंद्रपुर जिले के वरोरा से कांग्रेस विधायक हैं और अब पति की विरासत को संभालने के लिए उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरना मंजूर किया है। अब वह महाविकास आघाड़ी के समर्थन से चुनाव लड़ रही हैं। लिहाजा उनके लिए स्थितियां बहुत बदली नहीं हैं।
कुल जमा पिछले चुनाव के तीनों ही नए सांसदों के लिए स्थितियां बहुत अधिक बदल चुकी हैं। मतदाताओं पर छाप छोड़ने के बावजूद राजनीतिक आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए कोई समीकरण तैयार नहीं हो रहे हैं। अकेले चलने के बाद कारवां अभी तक तैयार नहीं हुआ है। मतों के हिस्से-बांट पर ही चुनावी संभावनाएं टिकी हुई हैं।
जिन राजनीतिक दलों की कमजोरी से तीनों को विजय मिली थी, वे भी अब कोई गलती करने की फिराक में नहीं हैं। फिर भी मतदाता के मन में पांच साल में बनी छवि यदि सोच बदलने में सफल रही तो सफलता भी मिल सकती है। वर्ना सांसद इम्तियाज जलील के शब्दों में ‘एक्सीडेंटल एमपी’के लिए दुर्घटना का होना भी जरूरी होता है, जो कब हो जाए कहा नहीं जा सकता।