Lok Sabha Elections 2024: तीन राज्य में जीत से उत्साहित भाजपा, विपक्षी गठबंधन के लिए गंभीर चुनौती काल, जानें क्या है तैयारी

By राजेश बादल | Published: December 28, 2023 11:47 AM2023-12-28T11:47:26+5:302023-12-28T11:49:03+5:30

Lok Sabha Elections 2024: इंडिया गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों के लिए एकमात्र समस्या है कि अगर वे वाकई भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करते हैं तो सरकार से असहमत वोटों का बिखरना कैसे रोका जाए?

Lok Sabha Elections 2024 bjp won mp rajasthan ch vs india Serious challenge period for opposition alliance blog  Rajesh Badal | Lok Sabha Elections 2024: तीन राज्य में जीत से उत्साहित भाजपा, विपक्षी गठबंधन के लिए गंभीर चुनौती काल, जानें क्या है तैयारी

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Highlightsसरकारों में अधिकतर नए चेहरों को मिले अवसर के कारण उत्साह से लबरेज है.संसार में शायद यह अकेली पार्टी भाजपा है, जो आम दिनों में भी चुनावी तैयारियां करती रहती है. प्रमुख प्रतिपक्षी दलों ने भी सक्रियता बढ़ा दी है.

Lok Sabha Elections 2024: आगामी लोकसभा के चुनाव सिर पर हैं. सत्तारूढ़ भाजपा ने केंद्र और राज्यों में अपने संगठन को मोर्चे पर लगा दिया है. सालभर चुनावी मोड में रहने वाली यह बड़ी राष्ट्रीय पार्टी तीन प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में मिली जीत से उत्साहित है और सरकारों में अधिकतर नए चेहरों को मिले अवसर के कारण उत्साह से लबरेज है.

संसार में शायद यह अकेली पार्टी है, जो आम दिनों में भी चुनावी तैयारियां करती रहती है. दूसरी ओर प्रमुख प्रतिपक्षी दलों ने भी सक्रियता बढ़ा दी है. उसके इंडिया गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों के लिए एकमात्र समस्या है कि अगर वे वाकई भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करते हैं तो सरकार से असहमत वोटों का बिखरना कैसे रोका जाए?

लगभग पैंतालीस साल पहले कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी दलों ने एकजुट होकर उसे पराजित करने का सपना देखा था और उसमें उन्हें कामयाबी भी मिली थी. यह अलग बात है कि वह गठबंधन या मोर्चा बहुत टिकाऊ साबित नहीं हुआ. शायद इसके पीछे उस विपक्षी गठबंधन से वैचारिक धुरी का अनुपस्थित होना था. उस काल का प्रतिपक्ष कांग्रेस के नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी के खिलाफ था.

लेकिन जनता पार्टी अपनी वजहों से ही बिखर गई. कांग्रेस अंदरूनी विभाजन के बावजूद तीन साल बाद ही इंदिरा गांधी के नेतृत्व में फिर दस साल के लिए सत्ता में आ गई थी. लेकिन इस बार स्थितियां बदली हुई हैं. करीब दो दर्जन सियासी पार्टियों के गठबंधन इंडिया में हालिया पांच विधानसभा चुनावों के परिणामों से बेचैनी है. यह गठबंधन 1977 की याद दिला रहा है.

उस समय भी जनता पार्टी में शामिल तमाम घटकों के भीतर ऐसे नेता थे, जो प्रधानमंत्री पद के लायक थे. जैसे चंद्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीज और चौधरी चरण सिंह. लेकिन उस सत्ता परिवर्तन के सूत्रधार शिखर पुरुष लोकनायक जयप्रकाश नारायण थे.

उन्होंने कई ताजे और योग्य चेहरों को न चुनते हुए मोरारजी देसाई का चुनाव किया. मोरारजी अपनी संगठन कांग्रेस के साथ जनता पार्टी में आए थे, जो घटक दलों में बहुत बड़ी पार्टी नहीं थी. पर, इस बार हालात बदले हुए हैं. प्रतिपक्ष के पास लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसा कोई सर्वमान्य नेता नहीं है, जिसकी बात आंख मूंदकर इंडिया के सारे घटक दल स्वीकार कर लें.

अलबत्ता प्रधानमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार, शरद पवार, मल्लिकार्जुन खड़गे और ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक के नाम सियासी हलकों में गूंज रहे हैं. मोरारजी देसाई के नाम पर उस दौर में किसी भी दावेदार ने खुला विरोध नहीं किया था. मगर, इस बार के चुनाव में ऐसा ही होगा, नहीं कहा जा सकता.

यह अलग बात है कि उस समय प्रधानमंत्री पद के लिए सारे दावेदार योग्यता और अनुभव के मद्देनजर राष्ट्रीय कद के थे. इस बार ऐसा नहीं है. सभी दावेदार अपने को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं. वैसे तो संवैधानिक लोकतंत्र का तकाजा यही कहता है कि चुनाव के बाद जिस दावेदार या दल को सबसे अधिक सांसदों का समर्थन हो, उसे ही इस शिखर पद के लिए चुना जाना चाहिए.

इस नाते सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ही दिखाई देती है. करीब चौदह-पंद्रह करोड़ मतों के ढेर पर बैठी कांग्रेस देश में भारतीय जनता पार्टी के बाद दूसरे स्थान पर है. गठबंधन में शामिल अन्य दल उससे पीछे रहेंगे. फिर भी नेता पद का अंतिम चयन तो सांसदों की राय से नहीं, बल्कि पार्टियों के आलाकमान के फरमान से ही होगा. पक्ष में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरे पर कोई शंका नहीं है.

नरेंद्र मोदी का नाम ही इकलौता नाम है. लेकिन, विपक्ष के लिए चुनाव से पहले सर्वसम्मत चेहरे को खोजना यकीनन टेढ़ी खीर है. इस चेहरे की खोज लोकतांत्रिक ढंग से की जानी चाहिए, किंतु यह तो तब हो, जब इंडिया में शामिल सभी दलों के अंदर लोकतंत्र हो. एक व्यक्ति के आदेश पर चलने वाले दलों की भारत के मौजूदा प्रजातंत्र को आवश्यकता नहीं है.

इंडिया के गठन की भावना भले ही मजबूत प्रतिपक्ष देने या फिर अपनी सरकार बनाने की रही हो, पर उसके लिए अपने अंतर्विरोधों से उबरना अत्यंत आवश्यक है. कांग्रेस जिन प्रादेशिक पार्टियों को साथ लेकर चल रही है, उनके अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक हित अलग-अलग हैं. वे हित कांग्रेस के हितों से टकराते हैं.

मसलन आम आदमी पार्टी इंडिया में तो शामिल है, लेकिन पंजाब और दिल्ली में लोकसभा चुनाव के दरम्यान क्या वह कांग्रेस को कम से कम आधी सीटें देने का वादा कर सकती है? शायद नहीं. इसी तरह तृणमूल कांग्रेस भी इंडिया में है और वाम दल भी हैं. क्या ममता बनर्जी कांग्रेस को उसकी चाही गई सीटें दे सकती हैं.

जिस सीपीएम को बंगाल से ममता बनर्जी ने खदेड़ने के लिए इतने वर्ष खपाए, क्या वह कांग्रेस के सहयोगी बने वाम दलों को समर्थन दे सकेंगी? कमोबेश ऐसा ही उदाहरण समाजवादी पार्टी का है. कांग्रेस उत्तरप्रदेश में अपनी वापसी के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा रही है और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव इस महाप्रदेश में कांग्रेस की चाही गई सीटों पर उसे चुनाव लड़ने देंगे?

इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अपनी आंतरिक टूट-फूट के बाद कांग्रेस से पहले जितनी सीटें समझौते में मांग सकेंगी? और क्या कांग्रेस उनके विभाजन के बाद पहले जितनी सीटों पर समझौता करेगी? बिहार में भी कुछ ऐसा ही हाल है. शायद नहीं. ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका समाधान आसान नहीं है.

जब तक इनका हल नहीं निकलेगा, तब तक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना भी बेमानी ही है. वैसे तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना ही सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी. यह नहीं हो सका. प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरे पर तो बाद में भी फैसला हो सकता है.

Web Title: Lok Sabha Elections 2024 bjp won mp rajasthan ch vs india Serious challenge period for opposition alliance blog  Rajesh Badal

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