लोकसभा चुनाव 2019ः डिजिटल भ्रष्टाचार से भी रहना होगा सावधान

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 14, 2019 08:45 AM2019-04-14T08:45:04+5:302019-04-14T11:07:53+5:30

देश की सरकार चुनावों के माध्यम से निर्वाचित होती है और फिर वही सारे निर्णय लेती है. लेकिन लोकतांत्रिक सरकार के अधिकारों की भी कुछ सीमाएं होती हैं.

Lok Sabha Elections 2019: Be careful with digital corruption | लोकसभा चुनाव 2019ः डिजिटल भ्रष्टाचार से भी रहना होगा सावधान

लोकसभा चुनाव 2019ः डिजिटल भ्रष्टाचार से भी रहना होगा सावधान

डॉ. एस. एस मंठा

भारत के संविधान ने देश को लोकतांत्रिक और उदारमतवादी स्वरूप प्रदान किया है. देश की विविधता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदर करना एक लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के नाते हमारा कर्तव्य है. देश की सरकार चुनावों के माध्यम से निर्वाचित होती है और फिर वही सारे निर्णय लेती है. लेकिन लोकतांत्रिक सरकार के अधिकारों की भी कुछ सीमाएं होती हैं. संविधान प्रदत्त अधिकारों को बहुमत के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता. लोकतांत्रिक भावना की इसी पृष्ठभूमि पर भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा हाल ही में अपने ब्लॉग के माध्यम से व्यक्त किए गए विचारों को देखा जाना चाहिए. उन्होंने लिखा कि सत्तारूढ़ दल के विचारों से सहमत नहीं होने वालों को दुश्मन समझना गलत है और राजनीतिक रूप से असहमति दर्ज कराने वाले विरोधी हो सकते हैं लेकिन उन्हें राष्ट्रद्रोही नहीं ठहराया जा सकता. यह बात अलग है कि इस महान विचार का अनुसरण करने वाले शायद ही दिखाई देते हैं.

कई बार ऐसे विचारों को भी लोकप्रियता मिल जाती है जो संविधान की भावना के खिलाफ होते हैं, जैसे भाषाई आधार पर अन्य भाषा-भाषियों को राज्य से बाहर किए जाने की भावना हो या जाति और धर्म को प्रमुखता देना अथवा कुछ समुदायों को संविधान द्वारा प्रदत्त संरक्षण का दुरुपयोग किया जाना. संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में कुछ भी बोलकर हाथ झटक लेने की स्वतंत्रता नहीं है. उस अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए परिपक्वता दिखाए जाने की जरूरत है. लेकिन राजनीतिक दलों को लगता है कि उनका विचार बहुमत का विचार है और वे संविधान विरोधी होते हुए भी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं. 

इससे समाज में असुरक्षा की भावना पैदा होती है. सत्ता हासिल करने के चक्कर में मूल्यों से समझौता किया जाता है, जिससे नैतिक भ्रष्टता पैदा होती है. ऐसा उतावलापन दिखाने वाली पहले की कई सरकारों को सत्ता से दूर होना पड़ा है और भविष्य में भी ऐसा हो सकता है. वर्तमान समय में मुख्य चिंता मूल्यों का अवमूल्यन होना है. ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है कि यदि आपका विरोधी पराजित हो गया है तो उसे खत्म ही कर दो! इससे लोकतंत्र के कमजोर होने की आशंका पैदा हो गई है. इसमें कोई दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार का समूल नाश होना चाहिए. चुनावों में जिस तरह से पैसे का इस्तेमाल होता है और मतदाताओं को पैसे अथवा अन्य वस्तुओं का प्रलोभन दिया जाता है, वह किसी से छिपा नहीं है. ऐसी स्थिति में चुनावों के समय ही कालाधन बाहर निकालने के नाम पर छापे मारना कितना उचित है? मामला तब और गंभीर हो जाता है जब इस तरह के छापे सिर्फ विरोधियों पर ही मारे जाएं.  ऐसी छापेमारी आम दिनों में भी की जा सकती थी. 

सत्तारूढ़ पार्टी अगर चुनावों के पूर्व नागरिकों के बैंक खातों में एक निश्चित राशि जमा कराए तो वह नागरिकों की गरीबी दूर करने के लिए की जाने वाली समाजसेवा है और वही राशि अगर कोई नकदी के रूप में दे तो वह प्रलोभन है! हकीकत यह है कि कोई भी देश नकदी के बिना नहीं चल सकता. लेकिन इसका मतलब क्या यह समझा जाना चाहिए कि चलन में मौजूद सारी रकम बेहिसाबी है या गलत मार्ग से ही जुटाई गई है? अगर ऐसी नकदी किसी गरीब के घर से बरामद हो तो क्या उसे प्रलोभन समझा जाएगा?  नागरिकों की सुविधा के नाम पर खाते में पैसा जमाने कराने को संस्थागत स्वरूप प्रदान करना क्या एक प्रकार से नैतिक भ्रष्टाचार ही नहीं है?

बेहिसाबी धन किसी भी राष्ट्र के लिए संकट है. नोटबंदी में किसी भी व्यवस्था को शुद्ध और पुनर्जीवित करने की क्षमता थी. 2016 के नवंबर माह में भारत की जीडीपी 125 लाख करोड़ रु. की थी. उसी समय इसके 23 प्रतिशत के बराबर समानांतर अर्थव्यवस्था भी अस्तित्व में थी अर्थात 28 लाख करोड़ की रकम रियल एस्टेट, सोने में निवेश और नकदी के रूप में थी. इस नकदी का 68 प्रतिशत पांच सौ और एक हजार के नोटों के रूप में था. ऐसी स्थिति में करीब तीन लाख करोड़ की अतिरिक्त राशि भारतीय अर्थव्यवस्था में आ सकती थी. यह रकम सौ देशों की जीडीपी के बराबर है. लेकिन हकीकत में क्या हुआ? 

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि नोटबंदी के बाद कुल 15.41 लाख करोड़ में से 15.31 लाख करोड़ रु. बैंकों में वापस आ गए. अर्थात 99.3 प्रतिशत नोट वापस आ गए और केवल 10720 करोड़ रु. ही वापस नहीं आए. इस प्रकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह लड़ाई खोखली ही सिद्ध हुई. एक हजार रु. के नोट के बदले दो हजार रु. का नोट बाजार में लाने का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता. इसके उलट भ्रष्टाचारियों को ही इससे पैसा संग्रहित करके रखने में आसानी हो सकती है. दो वर्ष पूर्व नोटबंदी की घोषणा के पहले चलन में जितने नोट थे, आज उससे ज्यादा ही नोट चलन में हैं, यह बात रिजर्व बैंक ने 2018 की रिपोर्ट में कही है.  

ऐसा प्रचार किया जाता है कि हर तरह की नकद राशि भ्रष्ट है और डिजिटल लेनदेन पारदर्शी है. लेकिन अध्ययनों से पता चला है कि भ्रष्टाचार और डिजिटल व्यवहार के बीच छुपा संबंध हो सकता है. डिजिटलाइजेशन को सिर्फ मध्यम वर्ग ने ही अपनाया है, निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के लोग उसका कम ही इस्तेमाल करते हैं. डिजिटल भ्रष्टाचार को संस्थागत स्वरूप देना गलत है. इससे ‘कार्यप्रवण डिजिटल तानाशाही’ अस्तित्व में आ सकती है

English summary :
Lok Sabha Elections 2019, How to be careful from digital Corruption: The Constitution of India has given the country a democratic and liberal form. Respecting the country's diversity and freedom of expression is our duty as a democratic nation. The country's government is elected through elections and then it makes all the decisions. But there are some limitations of democratic government's rights too.


Web Title: Lok Sabha Elections 2019: Be careful with digital corruption