अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: 48 साल पुराने सांचे में फिर ढलेगी लोकसभा

By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: May 21, 2019 07:05 AM2019-05-21T07:05:17+5:302019-05-21T07:05:17+5:30

देश में चुनाव को लेकर बढ़ती जागरूकता के बीच आम तौर पर 55 से 60 फीसदी के आंकड़े के आस-पास चुनावों में मतदान होता है. यदि मतदान के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण किया जाए तो वर्तमान मतदाता स्थिति में से करीब 50-55 करोड़ ने ही बीते सात चरणों में मतदान किया है।

lok sabha election If Narendra Modi wins full mandate, it will be first time in 48 years that a majority govt returns with majority | अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: 48 साल पुराने सांचे में फिर ढलेगी लोकसभा

प्रतीकात्मक तस्वीर

लगभग 73 दिन की कसरत के बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव का फैसला सामने आ जाएगा. सत्ता के समीकरणों के बीच सबसे बड़ा दल या गठबंधन सरकार बना लेगा. स्वतंत्रता के बाद 1951-52 से चला यह सिलसिला जून- 2019 में 17वीं बार लोकसभा का गठन करेगा, जिसमें 543 निर्वाचित जन प्रतिनिधि देश की जनता की आवाज को बुलंद करेंगे. इस वृहद प्रक्रिया में 90 करोड़ मतदाताओं में से लगभग साठ फीसदी से थोड़ा अधिक ने मतदान किया. इन सभी आंकड़ों से लोकसभा की नई शक्ल तैयार होगी, लेकिन आश्चर्य इस बात का होगा कि वह 48 साल पुराने सांचे में फिर ढलेगी.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की इसे विसंगति ही कहा जाएगा कि जहां 130 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं, वहां मात्र 54 करोड़ लोगों को आधार बनाकर तय की गई संसदीय स्थिति पर सरकार तय हो जाती है. अतीत में काल-परिस्थिति अनुसार देश में वर्ष 1976 में 46वें संविधान संशोधन के आधार पर लोकसभा सीटें स्थायी की गई थीं. इस निर्णय को 84वें संविधान संशोधन-2001 के माध्यम से 2026 तक बढ़ा दिया गया था. लिहाजा 2026 तक वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर तय लोकसभा सीटों के आधार पर ही चुनाव होंगे. 

स्पष्ट है कि वर्ष 1971 में जितनी आबादी थी, उससे लगभग दोगुने के आस-पास देश में मतदाता ही हो गए हैं. किसी लोकसभा क्षेत्र के अनुसार आकलन किया जाए तो अपवाद छोड़कर कोई भी उम्मीदवार 18-20 लाख से कम आबादी के लिए अपनी लड़ाई नहीं लड़ता है, जिसमें से अनेक इलाकों में 12-15 लाख से अधिक मतदाता होते हैं. उसके लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में पांच से छह विधानसभा क्षेत्र आते हैं.

यदि इस दृष्टि से लोकसभा क्षेत्र, मतदाता और चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो कोई भी उम्मीदवार मतदाताओं और क्षेत्र की तुलना में बौना नजर आता है. उसकी 15 दिनों की चुनाव प्रचार अवधि में अपने सभी मतदाताओं तक पहुंच असंभव के समान होती है. फिर हर तरह के दांव-पेंच चल कर मतदाता को पहचान बताकर रिझाने का प्रयास किया जाता है. आखिर में जब मतदान और मतगणना होती है तो अनजान मतदाता का अनजान उम्मीदवार पांच साल के लिए जन प्रतिनिधि घोषित हो जाता है, जिस पर लोकतंत्र का जश्न मन जाता है.


देश में चुनाव को लेकर बढ़ती जागरूकता के बीच आम तौर पर 55 से 60 फीसदी के आंकड़े के आस-पास चुनावों में मतदान होता है. यदि मतदान के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण किया जाए तो वर्तमान मतदाता स्थिति में से करीब 50-55 करोड़ ने ही बीते सात चरणों में मतदान किया, जो यह सिद्ध करता है कि 54 करोड़ की आबादी के आधार पर तय की गई लोकसभा सीटों के लिए आज मताधिकार का प्रयोग करने वाले भी उतने ही हो गए हैं. दरअसल यही लोकतंत्र की सबसे कमजोर कड़ी है. यदि इसे और गहराई में जाकर देखा जाए तो कोई सरकार बनाने वाला दल 30-33 प्रतिशत मतों के आधार पर अपनी सरकार बना लेता है. यानी 18-20 करोड़ मतों के आधार पर उसे 130 करोड़ जनता के भविष्य को अपने हाथ में लेने का अधिकार मिल जाता है. यह सिलसिला पांच साल तक के लिए पक्का होता है. वैसे यह आज कल की बात ही नहीं है, आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद से आज तक कोई राजनीतिक दल 51 प्रतिशत वोट हासिल नहीं कर पाया है, जबकि अनेक पार्टियों ने अलग-अलग मौकों पर चुनाव जीतकर सत्ता हासिल की है.

आश्चर्यजनक बात यह भी है कि सारी परिस्थितियों को समझते हुए भी कोई राजनीतिक दल इस बारे में कोई आवाज नहीं उठाता. हालांकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अनेक मंचों से इस बात पर अपनी चिंता जताने की कोशिश कर चुके हैं. वह ग्रेट ब्रिटेन का उदाहरण भी दे चुके हैं, जहां 600 से अधिक संसदीय सीटों के लिए चुनाव होता है. यद्यपि पुराने ही हिसाब-किताब से अंदाज लगाया जाए तो वर्तमान आबादी के लिहाजा से 1200 से अधिक लोकसभा सीटों के लिए चुनाव की गुंजाइश बनती है. किंतु हर दल खामोशी से 2026 की राह देख रहा है और तब भी बदलाव आएगा या 2001 दोहरा दिया जाएगा, इस पर कोई भरोसा नहीं जताया जा सकता है. ऐसे में आम आदमी के लिए आम चुनाव ‘दूर के ढोल सुहाने’ ही हैं. उनसे देश के मतदाता की किस्मत बदलने की आस नहीं लगाई जा सकती है. मतदान केवल एक आत्म संतुष्टि का भाव है, जिसमें आम आदमी का सहभाग है और जब सरकार बनती है तो उसकी कहीं न कहीं दृश्य-अदृश्य भूमिका है. हालांकि देश में लोकतंत्र के पर्व में जन से ही उसका प्रतिनिधि बहुत दूर है, क्योंकि 54 करोड़ के हिसाब से 130 करोड़ लोगों की किस्मत लिखी जा रही है.

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