राजेश बादल का ब्लॉगः क्षेत्रीय दलों के लिए अस्तित्व के संकट का काल

By राजेश बादल | Updated: March 26, 2019 08:06 IST2019-03-26T08:06:35+5:302019-03-26T08:06:35+5:30

लोकसभा के पिछले दो-तीन चुनाव इस बात का सबूत हैं कि भारत नई सदी में करवट ले चुका है. यह एक बदला हुआ हिंदुस्तान है. इसमें अब परंपरागत सियासी तौर तरीकों के लिए कोई जगह नहीं है.

lok sabha election 2019: three parties battle in parliament polls | राजेश बादल का ब्लॉगः क्षेत्रीय दलों के लिए अस्तित्व के संकट का काल

राजेश बादल का ब्लॉगः क्षेत्रीय दलों के लिए अस्तित्व के संकट का काल

भारतीय लोकतंत्न में अब क्षेत्नीय दलों के लिए खतरे की घंटी बज रही है. भले ही उन्हें बहुदलीय प्रणाली का संवैधानिक संरक्षण हासिल हो लेकिन इसका लाभ उन्होंने जम्हूरियत को पालने-पोसने में नहीं उठाया. चुनाव लड़ने, कुनबे को मजबूत करने और अपने-अपने खोल में सिमटे रहने की उनकी आदत ने राष्ट्रीय विकल्पों के द्वार बंद रखे हैं. 

दूसरी ओर अखिल भारतीय दलों ने भी अपनी भूमिका में बदलते वक्त के साथ बदलाव नहीं किया. इससे उनकी अपनी नींव भी कमजोर होती गई है. उनकी अंदरूनी सड़ांध और दरकती बुनियाद का फायदा क्षेत्नीय दलों ने नहीं लिया. लिहाजा मुल्क को दोनों की ओर से निराश होना पड़ा है. सत्तर साल से निरंतर चुनाव के जरिए देश को जिंदा रखने भर से लोकतंत्न ताकतवर नहीं हो जाता. उसके लिए भी अनेक कुर्बानियों की जरूरत होती है. अपवाद छोड़  दीजिए तो किसी भी राजनीतिक दल अथवा नेता ने यह साहस नहीं दिखाया है.

लोकसभा के पिछले दो-तीन चुनाव इस बात का सबूत हैं कि भारत नई सदी में करवट ले चुका है. यह एक बदला हुआ हिंदुस्तान है. इसमें अब परंपरागत सियासी तौर तरीकों के लिए कोई जगह नहीं है. जवान हो रहे देश का मतदाता चाल, चरित्न और चेहरा ही नहीं देखता, वह अब समग्र मसलों पर राष्ट्रीय नजरिए से सोचता है. चेहरे पर भरोसा करता है और जब चेहरा देश के हित में नाकाम होता है तो उसे सबक सिखाने में भी संकोच नहीं करता. 

विडंबना यही है कि उसके पास योग्य विकल्पों का अभाव है. क्षेत्नीय दलों की झोली भी इस दृष्टि से खाली है. क्षेत्नीय और प्रादेशिक पार्टियों ने सियासत में मंत्रिमंडल में शामिल होते हुए केवल दरबारी भूमिका ही निभाई है. लीडर वाले रोल में वे सिर्फ दावा करती रही हैं. भारत को एक अखिल भारतीय नेतृत्व नहीं दे पाई हैं. आज मायावती, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू या शरद पवार प्रधानमंत्नी बनने का सपना तो देख सकते हैं, लेकिन उस प्रधानमंत्नी की देह को पहनाने के लिए अखिल भारतीय परिधान उनके पास नहीं है. हमने चरण सिंह, चंद्रशेखर, वी.पी. सिंह, देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को फ्लॉप होते देखा है. ज्योति बसु अपनी पार्टी की सीमाएं जानते थे इसीलिए प्रधानमंत्नी पद के लिए न्यौता मिलने पर भी उन्होंने दूर से ही हाथ जोड़ लिए थे.

मायावती की पार्टी को ही लीजिए. पिछले चुनाव में शून्य पर सिमटी बसपा तीन दशक में उत्तर प्रदेश के बाहर क्यों विस्तार नहीं कर पाई? कुनबे के चंद चौधरियों को छोड़ दें तो समाजवादी पार्टी की हालत भी खस्ता रही. इस पार्टी ने अपने को कौन से खूंटे से बांध रखा है? बंगाल की शेरनी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी क्या केवल बंगाल के दम पर प्रधानमंत्नी बन सकती हैं? शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र की परिधि से क्यों बाहर नहीं निकली? 

तमिलनाडु में द्रमुक के करुणानिधि, अन्नाद्रमुक के एमजीआर और जयललिता, बंगाल में ज्योति बसु, आंध्र में एन.टी. रामाराव, ओडिशा में बीजू पटनायक, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह, बिहार से लालू यादव, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान जैसे अनेक सियासी सितारे अपने चरम उत्कर्ष के दिनों में भी अपने दलों का राष्ट्रीय विस्तार नहीं कर पाए. उन्हें किसी ने नहीं रोका था. 

मौजूदा दौर में दस से पचास सांसदों के दम पर कोई क्षेत्नीय पार्टी सवा सौ करोड़ के हिंदुस्तान की अगुवाई कैसे कर सकती है? साझा सरकारों से अब मतदाता का मोहभंग होने लगा है. बड़ी पार्टी के साथ बेल की तरह लिपटी छोटी और महीन पार्टियां बड़े दल को दबाव में रहने पर मजबूर करती हैं या फिर मलाईदार मंत्नालयों से अपना खजाना भरती हैं. सच तो यह है कि बड़े दल भी बेल की तरह लिपटी इन पार्टियों को पसंद नहीं करते. चाहे वह कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी. 

सत्नहवीं लोकसभा के चुनाव में भारत सतर्क है. बागड़ बनकर अपनी ही पार्टी के खेत को खाने वाली क्षेत्नीय सियासत से वह त्नस्त हो चुका है. जब 2004, 2009 और 2014 के चुनाव में राष्ट्रीय महत्व के विषय ही मुद्दे बनते रहे हैं तो अखिल भारतीय सोच न रखने वाले दलों को वोट देने से मतदाता क्यों न बचे? 

हिंदुस्तान की गणतांत्रिक प्रयोगशाला में अगर कुछ बरस साझा-सरकारों के प्रयोग हो सकते हैं तो अगले कुछ साल सत्ता-सिंहासन पर दो बड़े दलों के बीच ही जोर आजमाइश क्यों न हो? प्रादेशिक क्षत्नपों के लिए आंतरिक शुद्धिकरण का इससे बेहतर अवसर नहीं मिलेगा. कुछ साल आत्मचिंतन करें. बेशक प्रादेशिक राजनीति करें, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में पूरी तैयारी से उतरें. भारत के मतदाताओं पर उनका बड़ा उपकार होगा.

Web Title: lok sabha election 2019: three parties battle in parliament polls