चुनाव दर चुनाव सिकुड़ती जा रही है भारत की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी, मरणासन्न CPI की आखिरी उम्मीद कन्हैया कुमार!
By विकास कुमार | Published: April 29, 2019 06:28 PM2019-04-29T18:28:55+5:302019-04-29T18:55:32+5:30
लोकसभा चुनाव 2019 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के जिस एक उम्मीदवार को मीडिया में चर्चा मिल रही है वो हैं, जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और बिहार के बेगूसराय से पार्टी उम्मीदवार कन्हैया कुमार. कन्हैया कुमार का मुकाबला बीजेपी के गिरिराज सिंह और राजद के तनवीर हसन से है.
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (CPI) की स्थापना 1925 में हुई. बीते 94 वर्ष में सीपीआई देश की मुख्य विपक्षी पार्टी होने से लेकर आज अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है. सीपीआई की भोथरी हो चुकी चुनावी उम्मीदों को तब नई जान मिली जब जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष राजद्रोह के मुकदमे की वजह से विवादों में आए.
सीपीआई ने लोकसभा चुनाव 2019 में कन्हैया कुमार को बिहार के बेगूसराय से उम्मीदवार बनाया. जाहिर है कि सीपीआई को कन्हैया कुमार में एक खेवनहार नजर आ रहा है.
आखिर क्या वजह है कि सीपीआई और जावेद अख्तर, शबाना आजमी, स्वरा भास्कर जैसे वामपंथ समर्थक कन्हैया कुमार का एक स्वर में समर्थन कर रहे हैं। इसके सूत्र सीपीआई के चुनावी इतिहास में छिपे हैं.
1952 से लेकर 2014 तक हुए आम चुनावों के आंकड़ों पर नजर डालें तो जो पार्टी कभी प्रमुख विपक्षी दल हुआ करती थी वो पिछले आम चुनाव में महज एक सीट पर सिमट गयी.
सीपीआई ने देश के पहले आम चुनाव 1952 में 49 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे जिसमें 16 सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार जीत कर संसद पहुंचे. 1957 में सीटों की संख्या बढ़ कर 27 हो गई. 1962 में 29 और 1967 में 23 सीटें मिली. 1971 में भी पार्टी को 23 सीटें मिली.
लोकसभा चुनाव लोकसभा चुनाव 2009 में सीपीआई को 4 सीटें मिली तो वहीं 2014 में मात्र 1 सीट.
इंदिरा गांधी के द्वारा लगाये गए आपातकाल के बाद हुए 1977 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई को बड़ा झटका लगा और पार्टी को सिर्फ़ 7 सीटें मिली. यह वही चुनाव है जब कांग्रेस को राजनीतिक सत्ता से जनता दल ने बेदखल कर दिया. जनता दल को 295 सीटें इस चुनाव में मिली थी.
चुनाव वर्ष | जीती गई सीटें |
1952 | 16 |
1957 | 27 |
1962 | 29 |
1967 | 23 |
1971 | 23 |
1977 | 07 |
1980 | 10 |
1984 | 06 |
1989 | 12 |
1991 | 14 |
1996 | 12 |
1998 | 09 |
1999 | 04 |
2004 | 10 |
2009 | 04 |
2014 | 01 |
शबाना आज़मी ने कैफ़ी आज़मी के कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव का ज़िक्र लेनिनग्राद में किया जिसके बाद कन्हैया कुमार के पक्ष में वैचारिक भावनाओं का समंदर अपने उफ़ान पर पहुंच गया. स्वरा भास्कर, प्रकाश राज, योगेन्द्र यादव और सीताराम येचुरी जैसे तमाम वैचारिक सिपाही बेगूसराय में 'द लास्ट होप' फिल्म की शूटिंग करते हुए नजर आये.
जब सीपीआई ने किया इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन
1969 में कांग्रेस जब दो धड़ों में विभाजित हुई तो सीपीआई ने इंदिरा धड़े को बाहर से समर्थन दिया जो 1977 तक जारी रहा.
सीपीआई के समर्थकों को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब 1975 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगायी गये आपातकाल को सीपीआई ने समर्थन दिया.
आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में सीपीआई को महज सात सीटों पर जीत मिली. पार्टी की सीटों की संख्या घटकर करीब एक तिहाई रह गई.
सीपीआई दोबारा अपना पुराना प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी।
जैसे-जैसे देश में सोशलिस्ट पार्टियों का ग्राफ ऊपर चढ़ा वैसे-वैसे सीपीआई सिकुड़ती चली गई. देश की राजनीति में अस्सी और नब्बे का दशक लगातार नई पार्टियों के बनने और बिगड़ने का दौर था. क्षेत्रीयों दलों के उभार ने भी सीपीआई के राजनीतिक विस्तार को थामने का काम किया.
बीते दिनों तेजस्वी यादव ने सीपीआई को एक जात और एक जिले की पार्टी कहा.
गौरतलब है कि 1959 में केरल की वामपंथी सरकार को इंदिरा गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष रहते बर्खास्त कर दिया था. जिसके कारण फ़िरोज़ गांधी और इंदिरा के बीच मनमुटाव का एक लंबा दौर चला.
कन्हैया कुमार युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल की है लेकिन उनका मुकाबला बीजेपी के नेता गिरिराज सिंह और महागठबंधन के उम्मीदवार तनवीर हसन से है. बीजेपी और आरजेडी के पास बेगूसराय में काडर आधारित वोट है. ऐसे में मुकाबला त्रिकोणीय ही है.
कन्हैया कुमार लाल सलाम के अंतिम लाल के रूप में सामने आये हैं जो हाशिये पर पड़ी वाम राजनीति में जान फूंकने का काम कर रहे हैं. 23 मई के दिन कन्हैया के साथ-साथ सीपीआई के भी राजनीतिक भविष्य पर मुहर लगेगा.
'क्या है सीपीआई का कन्हैया मॉडल'
बेगूसराय के सीपीआई दफ्तर में भगत सिंह के लगे तस्वीर का कारण जब एक टीवी पत्रकार ने पूछा तो उन्होंने इसे वामपंथ का भारतीय संस्करण बताया. कन्हैया के मुताबिक, मार्क्स तो पूरे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत हैं. इसका मतलब साफ है कि कन्हैया सीपीआई के राजनीतिक हाशिये पर जाने का स्थायी इलाज़ करना चाहते हैं.
जावेद अख्तर आये और बेगूसराय में 'कन्हैया मॉडल' के जरिये सीपीआई के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की संभावना तलाश गए. कन्हैया प्रेम में उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में मात्र 58 हजार वोटों से हारने वाले तनवीर हसन की राजनीतिक मौजूदगी को ही खारिज कर दिया.