ब्लॉग: बस्‍तर में बहते लाल रक्‍त में उपजे सवालों पर डाला गया प्रकाश

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: March 18, 2024 05:48 PM2024-03-18T17:48:25+5:302024-03-18T18:16:26+5:30

बस्‍तर के जंगलों में रह रहे आद‍िवास‍ि‍यों की रोजमर्रा की दिक्‍कतों को सामने रखते हुए उनमें पल रहे गुस्‍से को दर्शाने का प्रयास किया गया है। हालांकि, फ‍िल्‍म के कुछ दृश्‍य दर्शकों को व‍िचल‍ित करते प्रतीत होते हैं मगर विषय को समझाने के लिए यह दृश्‍य फ‍िल्‍माना आवश्‍यक लगता है।

Light thrown on the questions raised by the red blood flowing in Bastar | ब्लॉग: बस्‍तर में बहते लाल रक्‍त में उपजे सवालों पर डाला गया प्रकाश

(नीरज तिवारी)

Highlightsवामपंथ का घ‍िनौना चेहरा उजागर करती हुई 'बस्‍तर: द नक्‍सल स्‍टोरी' देश में र‍िलीज हुई फ‍िल्‍म शुरू से अंत तक अपने संवाद और घटनाक्रमों में दर्शकों को बांधने में सफल रहती हैसंवाद लेखन में इस बात का पूरा ख्‍याल रखा गया

वामपंथ का घ‍िनौना चेहरा उजागर करती हुई 'बस्‍तर: द नक्‍सल स्‍टोरी' देश में र‍िलीज हुई है। फ‍िल्‍म शुरू से अंत तक अपने संवाद और घटनाक्रमों में दर्शकों को बांधने में सफल रहती है। संवाद लेखन में इस बात का पूरा ख्‍याल रखा गया है कि 'गागर में सागर' को समेटते हुए इस वृहद स्‍तरीय समस्‍या को जन-जन तक सुलभता से पहुँचाया जा सके। ऐसे में कहीं फ‍िल्‍म थोड़ी बिखरी सी मिलती है। मगर कहानी के अंत में सब एक मंच पर सिमटता हुआ दिखाया गया है।

बस्‍तर के जंगलों में रह रहे आद‍िवास‍ि‍यों की रोजमर्रा की दिक्‍कतों को सामने रखते हुए उनमें पल रहे गुस्‍से को दर्शाने का प्रयास किया गया है। हालांकि, फ‍िल्‍म के कुछ दृश्‍य दर्शकों को व‍िचल‍ित करते प्रतीत होते हैं मगर विषय को समझाने के लिए यह दृश्‍य फ‍िल्‍माना आवश्‍यक लगता है। देशव‍िरोधी मानस‍िकता को शरण देने के लिए किस तरह लोकतंत्र के चारों स्‍तम्‍भ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सह‍ित प्रमुख श‍िक्षण संस्‍थानों में चलाये जा रहे कुचक्र भी इसमें फ‍िल्‍माये गए हैं।

अपार धन और असीमित संसाधनों के दम पर एक देशव‍िरोधी विचारधारा को पालने का कुत्‍स‍ित प्रयास इस फ‍िल्‍म के माध्‍यम से दर्शकों के सामने रखा गया है। देश की राजधानी दिल्‍ली से संचाल‍ित होने वाली इस साज‍िश को किस तरह से बस्‍तर और देश के अन्‍य सुदूर नक्‍सल प्रभाव‍ित क्षेत्रों में जमीन पर साकार किया जा रहा है वह आसान कहानी के माध्‍यम से पर्दे पर पेश किया गया है। 

फ‍िल्‍म में नारीशक्‍त‍ि का पर‍िचय देते हुए अभ‍िनेत्री अदा शर्मा ने अपने आईपीएस नीरजा माधवन के किरदार के साथ पूरी ईमानदारी बरती है। उनके चेहरे पर युद्ध की व‍िभीषका का तनाव और हर तरफ से मिलने वाले असहयोग की पीड़ा स्‍पष्‍ट झलक रही है। द केरल स्‍टोरी के बाद आई इस फ‍िल्‍म ने एक व्‍यापक विषय पर गंभीरता से प्रहार किया है। अदा शर्मा ने अपनी भूमिका में राजनीतिक असहयोग से सैन्‍य बलों को होने वाली पीड़ा को जीवंत तरीके से पर्दे पर जीने का प्रयास किया है। इस फि‍ल्‍म को देखने के बाद यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अदा शर्मा ने अपने फ‍िल्‍मी सफर में राष्‍ट्रवाद‍ि व‍िषयों का चुनाव करते हुए दर्शकों को वैचार‍िक संदेश देने की कोश‍िश कर रही हैं जो समय की आवश्‍यकता है। 

वहीं, सेना की ओर से नक्‍सल समर्थि‍त विचारधारा के पोषकों से न्‍यायालय में लड़ते हुए एक अध‍िवक्‍ता की भूमिका निभाने वाले अभ‍िनेता यशपाल शर्मा अपने सीमित दृश्‍यों में लाचारगी को दर्शाने में कामयाब रहे हैं। एक अध‍िवक्‍ता जब आंकड़ों के आधार पर न्‍यायालय में सच को सबके समक्ष रखता है तब किस तरह इसे कागजी जालसाजी करार देते हुए हर तथ्‍य को नकार दिया जाता है। इसी प्रकार हर मंच पर इस विचारधारा को समर्थन देते हुए नासूर की तरह पालने की जद्दोजहद को निर्देशक सुदीप्‍तो सेन बखूबी फ‍िल्‍माया है। 

संवाद लेखन में सावधानी
फ‍िल्‍म के स्‍क्रि‍प्‍ट लेखक ने हर सीन को लिखने में सावधानी बरती है। संवाद लेखन में शब्‍दों का सटीक चयन किया गया है। फ‍िल्‍म का एक डायलॉग है जिसमें कहा गया है कि रियलि‍टी की जगह नैरेट‍िव सेट करने के लिए लिटरेचर, स्‍टेज, मूवी, एजुकेशन और हाई सोसायटी में अपनी पकड़ का होना जरूरी है। यही संवाद वामपंथ की कलई खोलने के लिए काफी है। 
धनउगाही का काला सच

इसके अतिर‍िक्‍त अभ‍िनेत्री अदा शर्मा ने भी राजनेता से बैठक में कड़वी बातों को सामने रखते हुए नक्‍सली वारदातों की पुनरावृत्‍ति‍ पर प्रकाश डालते हुए जिम्‍मेदारों को आईना द‍िखाया है। फ‍िल्‍म के अंत में अभ‍िनेत्री के तल्‍ख तेवर से भरे संवाद ने पूरी समस्‍या के स्‍थायी होने के कारणों को स्‍पष्‍टता से सबके सामने रखा है। वहीं, जब 76 सीआरपीएफ जवानों को कायराना तरीके से हमला करके उन्‍हें जलाने की कोश‍िश का दृश्‍य फ‍िल्‍माया जा रहा होता है तो मदद के नाम पर जिस प्रकार ब्‍यूरोक्रेट्स और मंत्रालयों ने अभ‍िनेत्री की अपील को नकार दिया था। वह पल समस्‍या की मूल जड़ को समझाने के लिए पर्याप्‍त है।

इसके अतिर‍िक्‍त हमले की समीक्षा बैठक में एक आईपीएस अध‍िकारी और राज्‍य के गृहमंत्री के बीच का संवाद यह बताता है कि नक्‍सली व‍िचारधारा को जीव‍ित रखते हुए की जा रही धनउगाही करने का कारनामा पूरे सस्टिम को कठघरे में खड़ा कर देता है। गौरतलब है कि 6 अप्रैल 2010 को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने सुरक्षा बल के जवानों को एंबुश लगाकर मार दिया था। इस हमले में 8 नक्सली भी मारे गए थे। हमले के बाद नक्सलियों ने जवानों के हथियार और मिलिट्री शूज भी लूट लिए थे। यह सुरक्षा बल पर हुआ देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला था।

वहीं, न्‍यायपाल‍िका की कार्यवाही में संवाद लेखन करते हुए इसका पूरा ध्‍यान रखा गया है कि विषय को विस्‍तार से प्रस्‍तुत किया जा सके। वहीं, स्‍वयंभू बुद्ध‍िजीव‍ि वर्ग की ओर से न्‍यायालय में बोले गए संवादों में विक्‍ट‍िम कार्ड खेलते हुए सच्‍चाई को दूसरा रूख देने के प्रयासों को सफलता से लिखा गया है। इसके अतिर‍िक्‍त मीड‍िया में भी किस प्रकार सच्‍चाई को दबा दिया जाता है। वह भी नाटकीय तरीके से सफलतापूर्वक प्रस्‍तुत किया गया है। 

आद‍िवास‍ियों का दर्द
बस्‍तर के जंगलों में रहने वाली आबादी के सामने आने वाली समस्‍या को अपने अभ‍िनय से रत्‍ना का रोल अदा करने वालीं अभ‍िनेत्री इंदिरा तिवारी ने अपने उलझे बालों और संकल्‍प‍ित भाव-भंग‍िमा से एक आद‍िवासी की पीड़ा को बड़े पर्दे पर ईमानदारी से उकेरा है। उन्‍होंने एक मॉं की भूमिका निभाने के साथ ही नक्‍सल हमलों से अपनी उजाड़ और वीरान हो चुकी जिंदगी को जीते हुए अपने भव‍िष्‍य की द‍िशा तय करती हैं। सरकारी मदद से खुद को दोबारा सशक्‍त करने की उनकी जिजीविषा दण्‍डकारण्‍य की सच्‍चाई को सबके सामने लगती है। 

फ‍िल्‍म का वह दृश्‍य जिसमें एक पर‍िवार के सामने ही उसके मुख‍िया को जनता अदालत में सबके सामने वीभत्‍स रूप से मार देने की घटना कुछ देर के लिए विचल‍ित तो करती है। मगर सच से मुँह फेर लेने से समस्‍या का समाधान तो नहीं हो जाता। ऐसे में वह दृश्‍य विषय की भयावहता को समझाने के लिए फ‍िल्‍माना आवश्‍यक जान पड़ता है। इसी दृश्‍य में प‍िता के हत्‍यारों को देखकर उसके बेटे की भूमिका निभाने वाले मास्‍टर नमन जैन ने अपने पात्र रमन की भूमिका को निभाते हुए जो चेहरे पर खुशी दिखाई है, वह कई सवालों को जन्‍म देती है। वह प‍िता की हत्‍या के समय भी नक्‍सल‍ियों की व‍िद्रोही स्‍वरूप को देखकर रोमांच‍ित नजर आता है। 

उसे कोई प्रभाव नहीं पड़ता है कि वह अनाथ हो रहा है। वह तो इसे जायज करार देता है। वह प‍िता द्वारा राष्‍ट्रगान गाने पर उन्‍हें दोषी मानता है। वह बस्‍तर को भारत देश का हिस्‍सा ही नहीं मानता है। यह सब दृश्‍य इस बात को दिखाते हैं कि वामपंथी विचारधारा ने किस प्रकार भोले आद‍िवासी युवाओं को पथभ्रष्‍ट बनाने के लिए कुत्‍स‍ित कदम उठा रहे हैं, यह जाह‍िर हो जाता है। वहीं, सरकारी कैम्‍पों में रह रहे नक्‍सली हमले के पीड़‍ितों का जीवन भी आंश‍िक रूप से फ‍िल्‍माते हुए उनके स्‍याह जीवन पर प्रश्‍नात्‍मक प्रकाश डालती है। वहीं, लाल झंडे और निशान के दम पर आद‍िवास‍ियों की स्‍वतंत्र अभ‍िव्‍यक्‍त‍ि को कुचलने के षड्यंत्र को कहानी के लेखन और संवाद से उजागर किया गया है। जो दर्शकों को सोचने पर व‍िवश करने के लिए पर्याप्‍त है।

युवाओं को गुमराह करने का षड्यंत्र
व‍िद्रोही मानस‍िकता के नाम पर क्रांतिकारी बनाने का षड्यंत्र रचने वाले नक्‍सल‍ियों की कुत्‍स‍ित कोश‍िशों को पर्दे पर लाने में निर्देशक ने सफल प्रयास किया है। इस फ‍िल्‍म से यह भी संदेश मिलता है कि युवाओं को कथ‍ित अभ‍िव्‍यक्‍त‍ि की आज़ादी के नाम पर वामपंथ के रास्‍ते पर लाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। अधूरे और एकपक्षीय साहित्‍य रचना के माध्‍यम युवाओं के दिमाग में देश की सेना आद‍ि के प्रति नफरत का बीज बोने की बात भी सामने आती है। इसे समाप्‍त करने के लिए किए जा रहे प्रयासों को भी विक्‍ट‍िम कार्ड के नाम पर दमन साबित कर दिया जाता है। 

सैन्‍य बलों की दुव‍िधा
उधर, देश की खनीज सम्‍पदा बहुल क्षेत्रों यानी छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा तथा महाराष्ट्र के जंगली क्षेत्रों में पोष‍ित हो रही नक्‍सली व‍िचारधारा के बाजारीकरण को भी कम आसानी से दर्शकों को समझाने की कोश‍िश की गई है। इन दुरूह क्षेत्रों में रहकर देश की सुरक्षा करने वाले जवानों के पास सुव‍िधाओं की कमी को भी करीने से फ‍िल्‍माया गया है। जब तकरीबन 36 घंटे की जंगल में पेट्रोल‍िंग करने के बाद सेना के जवान थक कर चूर हो जाते हैं तो वह अपने बेस कैम्‍प लौटते हैं।

वह बेस कैम्‍प भी जंगल में बना एक टूटा-फूटा पूर्व सरकारी स्‍कूल होता है। वहां उनके खाने तक की सम्‍पूर्ण व्‍यवस्‍था नहीं होती है। यह दृश्‍य पूरे स‍िस्‍टम पर सवाल उठाने के लिए काफी है। देश के नक्‍सल प्रभाव‍ित क्षेत्रों यानी लाल बेल्‍ट में व्‍याप्‍त इस परेशानी पर अब कठोर कदम उठाने की आवश्‍यकता है।

Web Title: Light thrown on the questions raised by the red blood flowing in Bastar

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