इस भीड़ से हार रहा है कानून

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: July 27, 2018 11:44 IST2018-07-27T11:44:28+5:302018-07-27T11:44:28+5:30

स्वामी अग्निवेश की पिटाई करने वाले, इटावा के गांव में दबंगों के आदमियों द्वारा एक व्यक्ति को लाठी से पीटने वाले (और पुलिस द्वारा मरणासन्न इस व्यक्ति के परिजनों के खिलाफ ही मुकदमा लिखे जाने ) या पहलू खान, जुनैद या अखलाक को मारने वाले सभी यह जानते हैं कुछ नहीं होगा, विधायक जी साथ हैं, उनकी परिकल्पना वाला ‘राष्ट्र’ भी साथ है और सबसे खास, संविधान को अमल में लाने वाले ‘सब’ साथ हैं। 

Law is losing to this indian crowd | इस भीड़ से हार रहा है कानून

इस भीड़ से हार रहा है कानून

एन.के. सिंह  

दहेज प्रताड़ना के मामले में 18 साल पहले एक विवाहिता ने शिकायत की। तारीख पर तारीख और कोर्ट दर कोर्ट होते हुए छह साल बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो देश की इस सर्वोच्च अदालत ने भी 12 साल लगाए और जब फैसला पिछली 20 जुलाई को दिया तो देर हो चुकी थी, पीड़िता मर चुकी थी। 

इस खबर के साथ ही कुछ अन्य खबरें देखें। इस खबर या ऐसी और खबरों का देश में निर्बाध रूप से जारी ‘भीड़ न्याय’ से एक गहरा रिश्ता है। पुलिस ने बताया कि एक बयान के अनुसार, रकबर खान को अलवर में जब मारा जा रहा था तो पीटने वालों में अग्रणी भूमिका निभाते हुए कुछ लोगों ने बुलंद आवाज में कहा ‘एमएलए साहब हमारे साथ हैं, हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’ 

इसमें भले ही ‘एमएलए साहब’ की कोई गलती हो या न हो, कानून को हाथ में लेने वाली भीड़ को यह मालूम था इस (कु)कृत्य की कोई सजा नहीं होगी अगर एमएलए साहब साथ हैं या ऐसा कह कर सिस्टम को (जिसमें कानून प्रक्रि या भी है) डरवाया जा सकता है अर्थात् ऐसा भरोसा कि कानून व्यवस्था को एक विधायक पंगु बना सकता है। और यह भरोसा हो भी क्यों न!  उन्नाव के एक विधायक ने न केवल बलात्कार किया बल्कि शिकायत करने पर सरेआम लड़की के बाप को पीट-पीट कर मरवा दिया। और पुलिस ने गिरफ्तार भी किया तो लड़की के परिजनों को। 

जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी तक मिले हुए थे इस प्रकार की दहशत को बनाए रखने में। यह तो मीडिया का दबाव था कि सीबीआई जांच में यह राज खुला। ये विधायक सत्ताधारी दल के हैं। सत्ता में वह धमक होती है कि कानून उनके पक्ष में काम करने लगता है। तभी तो आईपीएस अधिकारी भी झुक जाता है विधायक के सामने क्योंकि ट्रांसफर से डरता है। ऐसे में अगर दरोगा ने अलवर में घायल रकबर को कराहता छोड़ दिया और चार किमी दूर अस्पताल न ले जा कर कर 14 किमी दूर जा कर पहले गाय को ‘सुरक्षित गृह’ में पहुंचाया और रकबर को अंतिम सांस लेने के लिए छोड़ दिया तो क्या गलत था? उसे भी यही पता था कि ‘विधायकजी के हत्यारे लोगों’ का नाराज होना महंगा पड़ सकता है।   

स्वामी अग्निवेश की पिटाई करने वाले, इटावा के गांव में दबंगों के आदमियों द्वारा एक व्यक्ति को लाठी से पीटने वाले (और पुलिस द्वारा मरणासन्न इस व्यक्ति के परिजनों के खिलाफ ही मुकदमा लिखे जाने ) या पहलू खान, जुनैद या अखलाक को मारने वाले सभी यह जानते हैं कुछ नहीं होगा, विधायक जी साथ हैं, उनकी परिकल्पना वाला ‘राष्ट्र’ भी साथ है और सबसे खास, संविधान को अमल में लाने वाले ‘सब’ साथ हैं। 

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है ‘‘हम भारत के लोग।। संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’’। उसमें न तो विधायक के लिए, न ही भीड़ न्याय के लिए कोई जगह थी और न ही गाय लाने-ले जाने वालों की भीड़ को कोई विशेष अधिकार। लेकिन जब कानून बनाने वाला विधायक या सांसद, उसका अनुपालन करने वाला आईएएस और आईपीएस अधिकारी और लम्पट भीड़ एक भाव में हो तो संविधान संभवत: पुनर्परिभाषित होने लगता है। इस भाव-विशेष में अगर सिस्टम पंगु बना रहता है तो यही सत्य हो जाता है, रकबर की कराह दब जाती है। 

और फिर जब उसी भाव को प्रश्रय देने वाले अगुवा लोग यह बयान देते हैं कि ‘लोग गौ मांस खाना छोड़ दें तो भीड़ न्याय बंद हो जाएगा’ यानी पहलू खान, रकबर, जुनैद या अखलाक सड़कों पर पीट-पीट कर नहीं मारे  जाएंगे तो यह सलाह से ज्यादा धमकी लगती है एक ऐसी धमकी जो संविधान के लिए खतरा बनती जा रही है। 

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