रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: बिहार के लालू यादव काल में 'सामाजिक न्याय' का हाल
By रंगनाथ सिंह | Published: January 6, 2023 10:10 AM2023-01-06T10:10:27+5:302023-01-09T09:21:43+5:30
जेपी-लोहिया की राजनीतिक धारा से निकले लालू प्रसाद यादव के बिहार की सत्ता में आने के बाद राज्य में 'सामाजिक न्याय' का एक पहलू ऐसा भी है जिसकी चर्चा से 'सामाजिक न्यायवादी' कतराते हैं।
कुछ महापुरुष मानते हैं कि बिहार में लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद ही 'सामाजिक न्याय' आया। इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर बहुत से विद्वानों के विचार मार्केट में मौजूद हैं। बड़े मसलों पर बड़े विचारकों के विचार आपको पढ़ने चाहिए। मैं एक बहुत छोटे से मसले की तरफ आपकी तवज्जो चाहूँगा। 'सामाजिक न्याय' ऐसी चीज है जिसके आने और लाने का हर प्रगतिशील बौद्धिक हिमायत करेगा। मैं भी करता हूँ। सामाजिक न्याय की सरल अवधारणा है कि समाज के सभी समाजों को सरकारी तंत्र में उचित प्रतिनिधित्व मिले। इसके साथ यह भी अहम है कि किसी समाज के व्यक्ति को उसके चुने हुए क्षेत्र में आगे बढ़ने की राह मेें जाति-मजहब-क्षेत्र की दीवार न मिले।
बिहार में सामाजिक न्याय लाने-आने का इतिहास दो कालखण्डों में विभाजित किया जा सकता है- लालू यादव पूर्व काल और लालू यादव काल। लालू यादव पहली बार 1990 में मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री प्रदेश की सबसे शक्तिशाली कुर्सी होती है। यह बात छिपी नहीं है कि लालू यादव को सीएम बनाने में जिन लोगों ने बड़ी भूमिका निभायी उनमें चंद्रशेखर, देवी लाल और रघुनाथ झा प्रमुख थे क्योंकि तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह दलित नेता रामसुन्दर दास को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। याद रखें कि जब लालू जी सीएम बने तो जनता दल के कुल 122 विधायकों में से 59 ने उन्हें और 54 ने रामसुन्दर दास को विधायक दल का नेता चुनने के लिए समर्थन दिया था। जाहिर है कि चंद्रशेखर और देवी लाल के समर्थन के दम पर लालू यादव मुख्यमंत्री बन सके थे।
लालू यादव राज के सीधे लाभार्थी रहे एक मित्र कहा करते थे कि लालू ने यह सुनिश्चित कर दिया कि अब कोई ब्राह्णण-भूमिहार बिहार का सीएम नहीं बनेगा। उनकी बात इतिहास के निकष पर कितनी खरी उतरेगी यह वक्त बताएगा लेकिन लालू यादव के सीएम बनने के बाद का इतिहास गवाह है कि लालू यादव ने लगभग सुनिश्चित कर दिया है कि उनकी पार्टी से अब कोई दलित या मुसलमान बिहार का सीएम नहीं बनेगा। लालू यादव को मजबूरी में सीएम की गद्दी छोड़नी पड़ी लेकिन उन्होंने रामकृपाल यादव और अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे बड़े नेताओं जो उनके MY समीकरण में भी फिट थे, अपना उत्तराधिकारी नहीं चुना। मैं इसे लोकतंत्र का नेहरू मॉडल कहना चाहूँगा। लालू यादव से पहले बिहार में लोकतंत्र का गांधी-लोहिया मॉडल चलता था।
आइए अब हम देखते हैं कि बिहार में गांधी-लोहिया मॉडल और नेहरू मॉडल के दौरान मुख्यमंत्री पद पर कितना सामाजिक न्याय हुआ। बिहार में 1950 से 1989 के बीच 39 सालों में बीपी मण्डल, रामसुन्दर दास, दरोगा राय (तेज प्रताप यादव की पूर्व पत्नी के दादाजी) अब्दुल गफूर (सभी एक-एक बार), कर्पूरी ठाकुर (दो बार), भोला पासवान शास्त्री (तीन बार) मुख्यमंत्री बने थे। यानी 39 साल में 9 बार उन जातियों के सीएम बने जिनकी भागीदारी कम मानी जाती है।
अब हम लालू यादव काल का हाल देखते हैं। साल 1990 से 2022 के बीच 32 साल में लालू यादव (दो बार), उनकी पत्नी राबड़ी देवी (तीन बार) और उनके बेटे तेजस्वी दो बार (डिप्टी सीएम) पद की शपथ ले चुके हैं।
लालू यादव के परमप्रशंसक मित्र यह भूल गये कि लालू जी ने यह भी सुनिश्चित कर दिया है कि उनके परिवार के बाहर का कोई दूसरा यादव बच्चा भी बिहार का मुख्यमंत्री बनने का सपना शायद न देख सके और दिल बहलाने के लिए इस झुनझुने से खेलता रहे कि अब बिहार में कोई ब्राह्मण सीएम नहीं बनेगा!
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।