जब कुलदीप नैयर ने बताया अफ़वाह और ख़बर का आपसी रिश्ता
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: August 30, 2018 13:32 IST2018-08-30T04:19:18+5:302018-08-30T13:32:08+5:30
कुलदीप नैयर की तब कही गई इस बात से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अक्सर अफवाहें खबरों को जन्म देती हैं और शुरू में अफवाह समझी जाने वाली बहुत-सी बातें आगे चलकर बड़ी खबर बनती रही हैं।

जब कुलदीप नैयर ने बताया अफ़वाह और ख़बर का आपसी रिश्ता
विश्वनाथ सचदेव
बात तब की है जब मैं नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा। था। उसी दौरान हम सब छात्र दिल्ली की यात्रा पर गए थे। देश के यशस्वी पत्रकार कुलदीप नैयर, जिनका हाल ही में 95 वर्ष की आयु में देहांत हुआ है, तब समाचार एजेंसी यूएनआई के मुखिया थे।
हम सब छात्रों को उनसे मिलने ले जाया गया था। उस भेंट के दौरान उन्होंने पत्रकारिता के संबंध में बहुत कुछ बताया था, पर जो बात हमें सबसे ज्यादा आकर्षक लगी, वह उस वरिष्ठ पत्रकार का यह कहना था कि हर अफवाह एक खबर होती है, और उसका खंडन खबर। तो फिर एक की जगह दो खबरें क्यों न दी जाएं?
मैंने इस बात को आकर्षक इसलिए कहा है कि अक्सर यह माना जाता रहा है कि अखबारों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में, दी जाने वाली खबरों को ठोंक-बजा कर, उनकी विश्वसनीयता के प्रति आश्वस्त होकर ही छापा जाना चाहिए। और देश का वह वरिष्ठ पत्रकार हमें दो खबरों का सिद्धांत समझा रहा था। हालांकि, यह भी सही है कि उन्होंने यह बात हंसते हुए कही थी।
कुलदीप नैयर की तब कही गर्ई इस बात से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अक्सर अफवाहें खबरों को जन्म देती हैं और शुरू में अफवाह समझी जाने वाली बहुत-सी बातें आगे चलकर बड़ी खबर बनती रही हैं। ताजा उदाहरण बिहार के मुजफ्फरपुर वाले सरकारी शेल्टर होम का है। इस तरह की संस्थाओं में चल रही गड़बड़ियों की अफवाहें अक्सर उठती रही हैं।
यदि इन अफवाहों पर कोई ध्यान न दिया जाता तो मुजफ्फरपुर वाला यह शर्मनाक कांड सामने आ ही नहीं पाता। वास्तव में, कुलदीप नैयर दो खबरों वाली बात के माध्यम से नए पत्रकारों को आंख और कान खुले रखने की सलाह ही दे रहे थे।
प्रतिबंध आखिर क्यों?
वे प्रेस की स्वतंत्रता के जुझारू नेता थे। जेल भी गए थे। मैं सोच रहा हूं, आज यदि कुलदीप नैयर होते तो पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती जिसमें मीडिया से कहा गया है कि वह मुजफ्फरपुर प्रकरण की जांच के संबंध में कुछ प्रकाशित न करे। ज्ञातव्य है कि यह सारा कांड प्रेस की सक्रियता और सजगता के कारण ही प्रकाश में आया है।
ऐसे में, इस तरह का प्रतिबंध आखिर क्यों? निश्चय ही न्यायालय के पास इसके कुछ कारण होंगे, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह के प्रतिबंधों से मीडिया की स्वतंत्रता बाधित होती है और यह हमारे संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है। यह सही है कि मुजफ्फरपुर के शेल्टर होम का यह मामला संवेदनशील है, इसमें नाबालिग बच्चियां भी शामिल हैं।
इसलिए जरूरी है कि इस कांड की रिपोर्टिंग बहुत सावधानी से की जानी चाहिए। इस सावधानी का यह अर्थ कदापि नहीं है कि प्रेस के मुंह पर ताला लगा दिया जाए। इस तरह की कार्रवाई से प्रेस की स्वतंत्रता ही बाधित नहीं होती, बहुत कुछ सामने आने की संभावनाओं पर भी ब्रेक लग जाता है।
मीडिया का काम सत्ता पर नजर रखना होता है और सत्ता अक्सर मीडिया का मुंह बंद रखने की कोशिश करती रही है। किसी संभावित खबर को सामने आने देने से रोकने के लिए उठाया गया कदम ऐसी ही कोशिश का हिस्सा है।
सवाल सिर्फ मुजफ्फरपुर प्रकरण का नहीं है, सवाल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने का है। इसीलिए मीडिया से जुड़े संगठन और जनतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को समझने वाले, पटना उच्च न्यायालय से इस आदेश पर पुनर्विचार करने की मांग कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
वैसे, इस संबंध में उच्चतम न्यायालय बहुत पहले ही एक महत्वपूर्ण निर्णय दे चुका है। वर्ष 1994 में एक मामले में दिए गए निर्णय में देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि प्रेस की स्वतंत्रता और निजता के अधिकार में संतुलन बनाए रखना जरूरी है। अदालत ने यह भी कहा था कि सरकारें इस आधार पर किसी बात के प्रकाशन पर रोक नहीं लगा सकतीं कि उससे किसी की मानहानि हो सकती है।
हां, छपने के बाद अवश्य कार्रवाई की जा सकती है। इसका अर्थ यह है कि समाचार प्रकाशित करने वाला अपने इस दायित्व के प्रति भी जागरूक रहे कि उसके काम से किसी की मानहानि न हो। अफवाह भी खबर है, बशर्ते उद्देश्य किसी को नुक्सान पहुंचाना न हो, बशर्ते किसी की मान-हानि न हो।
हमने यह भी देखा है कि अक्सर सरकारें और बड़े-बड़े व्यापारिक घराने भी, मीडिया को प्रतिबंधित करने के लिए अदालती प्रक्रिया का सहारा लेते हैं और अदालती आदेशों को निरस्त कराने में बहुत अधिक समय लगता है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि उस दौरान महत्वपूर्ण विषयों की जानकारी पाने से जनता वंचित रह जाती है। जानकारी पाने का जनता का अधिकार और जानकारी देने का मीडिया का कर्तव्य, दोनों, पूर्व प्रतिबंध के कारण बाधित हो जाते हैं।
जनतांत्रिक परंपराओं और मर्यादाओं का तकाजा है कि ऐसी कोशिशों को, चाहे वे कोशिश सत्ता-प्रतिष्ठान कर रहे हों, या फिर ताकतवर कारपोरेट घराने, सफल नहीं होने दिया जाए। मुजफ्फरपुर-कांड में जांच की जानकारी देने पर प्रतिबंध के आदेश से, संबंधित पक्षों के गलत लाभ उठाने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसीलिए जरूरी है कि अदालत इस निर्णय पर पुनर्विचार करे।
आजादी का ग़लत फायदा?
स्वतंत्रता का गलत फायदा उठाया जा सकता है या फिर गलत फायदा हो सकता है, महज इस आशंका से स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना सही नहीं कहा जा सकता। यह सही है कि स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं होना चाहिए, पर इस डर से हम प्रेस की स्वतंत्रता पर यदि प्रतिबंध लगा देते हैं तो यह जनतांत्रिक मूल्यों को नकारना ही होगा। स्वतंत्रता अधिकार भी देती है और कर्तव्य के प्रति जागरूक रहने के लिए आगाह भी करती है।
अधिकार और कर्तव्य का संतुलन जनतंत्र की एक शर्त है। वर्ष 1994 के अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने प्रेस की स्वतंत्रता और निजता के अधिकार में जिस संतुलन की बात कही थी, उसका यही आशय था। प्रेस या मीडिया अपने अधिकारों का, अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग न करें, यह जरूरी है। लेकिन दुरुपयोग की आशंका में लगाए जाने वाले प्रतिबंध जनतंत्र मेंनागरिक के विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। मीडिया भी एक नागरिक है। उसके विवेक पर अविश्वास उचित नहीं।
कुलदीप नैयर ने जब एक की जगह दो खबरों वाली बात कही थी तो वे मान कर चल रहे थे कि मीडिया अपने दायित्वों के प्रति सावधान रहेगा। आज भी मीडिया से यही अपेक्षा है, लेकिन सत्ता-संस्थानों से भी ऐसी ही अपेक्षा है कि वे मीडिया के पर कतरने की कोशिश न करें। अक्सर ऐसी कोशिशें दिखाई देती हैं।
जनतांत्रिक मूल्यों-मर्यादाओं का तकाजा है कि ऐसी कोशिशों को सफल न होने दिया जाए। इसलिए जरूरी है कि जाने-अनजाने होने वाली इन कोशिशों को समझा जाए उन्हें बेनकाब किया जाए। तभी सही मायनों में जनतंत्र बचेगा।