कश्मीर मुद्दे पर भारत से कहाँ हुई चूक, क्या कश्मीर नीति को बदलने का वक्त आ गया है?
By विकास कुमार | Updated: February 18, 2019 15:43 IST2019-02-18T15:30:00+5:302019-02-18T15:43:39+5:30
देश की सरकारों ने कश्मीर समस्या को हमेशा ही मानवीय पहलू से हल करने की कोशिश की है. लेकिन बैटलफील्ड कश्मीर में उनकी यह रणनीति बुरी तरह असफल रही. पाकिस्तान के द्वारा निर्यातित आतंकवाद और छद्म युद्ध का जवाब देने में हमारा राजनीतिक नेतृत्व विफल रहा है.

कश्मीर मुद्दे पर भारत से कहाँ हुई चूक, क्या कश्मीर नीति को बदलने का वक्त आ गया है?
कश्मीर एक ऐसा क्षेत्र जो पिछले 7 दशक से दो देशों की विदेश नीति, रक्षा बजट और परस्पर रिश्तों को तय करता आ रहा है. आजादी की मांग से लेकर कट्टर इस्लाम की बहती धारा तक कश्मीर खुद इस नजरिये से कभी आगे बढ़ नहीं पाया. वहां के युवा आजादी के नारों को नारा-ए-तकबीर अल्लाहू-अकबर में परिवर्तित कर आंदोलन की धार को कब कमजोर करते चले गए इसका अंदाजा शायद उन्हें भी नहीं चला होगा. कश्मीर पर पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक भारत की कश्मीर को लेकर नीतियां हमेशा एक जैसी रही है और पाकिस्तान में भी सरकारों का कश्मीर को लेकर रवैया हमेशा से एक जैसा ही रहा.
आजादी की आड़ में इस्लामिक एजेंडा
कश्मीर के लोग आजादी की मांग के बीच ये कभी तय नहीं कर पाए कि आजादी लेने के बाद एक राष्ट्र को चलाने का मॉडल क्या होगा? कश्मीर के लोगों के जीवनस्तर को उठाने के लिए वो कौन सा आर्थिक मॉडल अपनाएंगे. आजादी की मांग पर सबसे बड़ा बट्टा खुद कश्मीरियों ने लगाया, जब घाटी में कश्मीरी पंडितों का दमन शुरू हुआ. एक सुनियोजित इस्लामिक क्रांति के तहत कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया गया. महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया. और कश्मीर घाटी को पंडित विहीन कर दिया गया.
देश और विदेश के मानवाधिकार के कुछ रखवालों ने कश्मीर की आजादी की मांग का वैश्वीकरण किया जिससे कश्मीर में आजादी की आड़ में पाकिस्तानी सामरिक एजेंडा को चला रहे अलगाववादियों को बल मिला. आतंक के कश्मीर मॉडल के रूप में हिजबुल मुजाहिद्दीन को खड़ा किया गया और उसके बाद कश्मीर के युवा अलगाववादियों के आजादी की मांग की आड़ में कश्मीर में ISIS मॉडल को स्थापित करने में तत्परता से जूट गए.
भारत से कहाँ हुई गलती
देश की सरकारों ने कश्मीर समस्या को हमेशा ही मानवीय पहलू से हल करने की कोशिश किया है. लेकिन बैटलफील्ड कश्मीर में उनकी यह रणनीति बुरी तरह असफल रही. पाकिस्तान के द्वारा निर्यातित आतंकवाद और छद्म युद्ध का जवाब देने में हमारा राजनीतिक नेतृत्व विफल रहा है. पंजाब में भी खलिस्तान की मांग उठी थी लेकिन सरकार ने उसे ठीक समय पर सही जवाब देकर आतंकवादियों के मंसूबों को कुचल दिया था लेकिन यह रणनीति कश्मीर में क्यों नहीं अपनाई गई? क्या हमारे देश की सरकारें कश्मीर पर आने वाले अंतर्राष्ट्रीय दबाव के सामने झुक गईं या इस्लामिक क्रांति ने उन्हें अपने वोटबैंक की चिंता करने पर मजबूर कर दिया.
पाकिस्तान का पलड़ा क्यों रहा भारी
पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को हमेशा दो मोर्चों पर डील किया है. एक तरफ उसने कश्मीर में आतंकवाद का निर्यात किया तो वही दूसरी और इस मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा. कश्मीर मुद्दे पर उसे हमेशा इस्लामिक देशों का साथ मिला और 20 वीं शताब्दी के अंत तक अमेरिका भी कश्मीर मुद्दे पर चुप्पी साधे रखा जिसे पाकिस्तान को मौन सहमती के रूप में देखा गया. कश्मीर की जनता के लिए कश्मीर की आजादी से ज्यादा पाकिस्तान के साथ जाने की बेताबी दिखी जिससे पाकिस्तान को नैतिक बल मिला. आये दिन घाटी में लहराने वाले पाकिस्तानी झंडों ने कश्मीर के लोगों की आजादी के प्रति निष्ठा पर गहरा सवाल खड़ा किया है.