कंचन शर्मा का ब्लॉग: स्त्री के दहलीज पार के दोहरे संघर्ष को करना होगा समाप्त
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: March 8, 2020 08:20 AM2020-03-08T08:20:14+5:302020-03-08T08:20:14+5:30
समस्या यह है कि स्त्री जैसे ही उत्पादन की प्रक्रिया में बौद्धिक या शारीरिक श्रमिक के तौर पर हिस्सेदारी शुरू करती है वैसे ही उसके कंधे घर और बाहर के भार से दुखने लगते हैं. यह एक ऐसा संघर्ष है जो पुरुष को नहीं करना पड़ता. स्त्री का यह दोहरा संघर्ष हर स्तर पर जारी रहता है.
आजादी के दौरान राष्ट्रवादी विमर्श के तहत जिस स्त्री स्वतंत्रता की कल्पना की गई थी, उसका मुख्य समीकरण घर और बाहर का न हो कर घर बनाम बाहर का था. घर वह स्थान था जहां आधुनिकता केवल परंपरा के दायरे में ही प्रवेश कर सकती थी. इसलिए राष्ट्रवादी विमर्श में स्त्री का प्रश्न आधुनिकता को सीमित रूप में ग्रहण करने के जरिए संसाधित हुआ.
इसके अंतर्गत स्त्री शिक्षित हो सकती थी, पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन में भाग ले सकती थी, बच्चों को विनियमित शिक्षा दे सकती थी, लेकिन यह सब करते हुए भी उसे मुख्य रूप से परंपरानिष्ठ बने रहना था.
लेकिन स्त्री के प्रश्न ने जब उत्तर-औपनिवेशिक समय में प्रवेश किया तो उसे घर की चारदीवारी के भीतर से आधुनिकता पर दृष्टि डालने के बजाय आधुनिकता के कारखाने के बीचोबीच रहते हुए अपने चारों तरफ बनते-बिगड़ते समाज और व्यक्तिगत अस्मिताओं का साक्षात्कार करना पड़ा. वह केवल घर की निर्मात्री ही नहीं रह गई, बल्कि समाज में स्त्री-पक्ष का भी निर्माण करती हुई नजर आई. अर्थात उसके कंधों पर दोहरी जिम्मेदारी आ गई.
समस्या यह है कि स्त्री जैसे ही उत्पादन की प्रक्रिया में बौद्धिक या शारीरिक श्रमिक के तौर पर हिस्सेदारी शुरू करती है वैसे ही उसके कंधे घर और बाहर के भार से दुखने लगते हैं. यह एक ऐसा संघर्ष है जो पुरुष को नहीं करना पड़ता. स्त्री का यह दोहरा संघर्ष हर स्तर पर जारी रहता है. एक स्तर पर वह कानूनी लड़ाई लड़ती है वहीं दूसरे स्तर पर व्यवहारगत. एक तरफ राज्य से अधिकारों और सुविधाओं के लिए संघर्ष रहता है वहीं दूसरी तरफ समाज से उस अधिकार या वैधता को पचाने की मशक्कत लगी रहती है.
मसलन, जब वह नेतृत्वकारी भूमिका की तलाश में राजनीति में कदम रखती है तो उसे पंचायतों से मिलने वाले आरक्षण के बावजूद अपने पति की छाया या मातहत के तौर पर ही देखा जाता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के बाद ऐसे होर्डिग दिखना सामान्य बात है जिसमें पत्नी उम्म्मीदवार का नाम छोटे अक्षर में होता है और पति का नाम ज्यादा बड़े अक्षर में.
इसी तरह से एक मतदाता के तौर पर स्त्री चुनावी विजय में निर्णायक भूमिका निभा रही है. 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में स्त्रियों ने भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को ज्यादा वोट दिया. परिणामस्वरूप कांग्रेस की जीत हुई. 2014 और 2019 में स्त्रियों ने कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को ज्यादा वोट दिए और भाजपा को जीत हासिल हुई.
अभी हाल के दिल्ली विधानसभा चुनावों में महिला वोटों का बड़ा हिस्सा (सौ में से साठ) आम आदमी पार्टी को मिला और उसकी जीत हुई. पर इस सबके बावजूद न तो राजनीति में उन्हें पूरी नुमाइंदगी मिल सकी है, न ही उनकी राजनीतिक लामबंदी की कोई कोशिश दिखाई पड़ती है.
चाहे दिल्ली विधानसभा हो या लोकसभा, स्त्रियों के पास न आधी जमीन है न आधा आसमान. इसके कारणों पर विचार करने के दौरान अक्सर समग्र राजनीति के पुरुष प्रधान रवैये की बात कही जाती है और आलोचना की जाती है. पर इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि राजनीति के इस कारोबार में स्त्री सामुदायिक और जातीय इकाइयों में समाहित मान ली गई है. जेंडर संबंधी बहस का इस स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. सारी दुनिया में फेमिनिज्म के उच्च कोटि के विकास के बावजूद स्त्री की जेंडर आधारित लामबंदी पर न के बराबर ध्यान दिया गया है. स्त्रियों की राजनीतिक पार्टी कभी कल्पित ही नहीं की गई.
अब हमें स्त्री संघर्षो से प्राप्त सफलताओं पर गौरवान्वित होने के साथ स्त्री विमर्श की सीमाओं को लांघना होगा और एक नए विमर्श का आगाज करना होगा, जहां महिला का यह दोहरा संघर्ष न केवल समाप्त किया जाए बल्कि उसकी भिन्नता, एकांतता और सामथ्र्य को भी सम्मान दिया जाए.