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पर्यावरण संरक्षण का प्रेरक ‘झाबुआ मॉडल’

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: June 6, 2025 07:17 IST

जहां कहीं भी पानी मिला, उसे संग्रहीत करने के लिए विभिन्न नालों पर 130 बड़े बांध और 2500 छोटे-छोटे बांध बनाने के बाद पानी की समस्या लगभग हल हो गई थी.

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अभिलाष खांडेकर

भारत और कुछ अन्य देश प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में ‘मनाते’ हैं और चारों ओर मौजूद प्राकृतिक चीजों के प्रति अपनी ‘चिंता’ दर्शाते हैं. पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए अनुष्ठान, फैशन या ईमानदार प्रयास वास्तव में तब शुरू हुए जब हम - वैश्विक नागरिक - पहले ही उसे इतनी क्षति पहुंचा चुके थे कि उसकी भरपाई नहीं की जा सकती थी.

संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक उद्योगों की बढ़ती गतिविधियों, जंगलों के बड़े पैमाने पर क्षरण, घटते जल स्रोतों और जनसंख्या में वृद्धि आदि से उत्पन्न खतरों को  सटीकता से और सही समय पर भांप लिया था. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में स्टॉकहोम अधिवेशन में फैसला किया कि पर्यावरण की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है. इस प्रकार दुनिया के कुछ हिस्सों में पहले पर्यावरण दिवस को बहुत धूमधाम से मनाया गया, जिससे यह उम्मीद जगी कि दुनिया इस खतरे का सक्षमता से मुकाबला करेगी. उम्मीद थी कि मनुष्यों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए उपाय किए जाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

यदि हम पीछे देखें तो मानव पर्यावरण पर प्रसिद्ध स्टॉकहोम सम्मेलन के बाद, स्थितियां वास्तव में उससे भी अधिक तेजी से बिगड़ी हैं, जिसकी कल्पना वैश्विक नेताओं ने 50 वर्ष पहले शायद ही की थी.

इस वर्ष पर्यावरण दिवस का विषय ‘प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना’ था. हम सभी जानते हैं कि प्लास्टिक अपने सभी रूपों में हर तरह से हमारी पारिस्थितिकी के लिए वाकई एक बड़ा खतरा बन गया है और ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि लोग दैनिक व्यक्तिगत जीवन और औद्योगिक, चिकित्सा क्षेत्र में प्लास्टिक का उपयोग बंद कर रहे हैं या करने वाले हैं.

प्लास्टिक पश्चिम द्वारा भारत को दिया गया एक अवांछित उपहार है. पचास के दशक से लेकर सत्तर के दशक तक, भारत इस खतरनाक सामग्री से ग्रस्त नहीं था, जिसने अब अमीर और गरीब दोनों के जीवन को पूरी तरह से जकड़ लिया है. हम प्लास्टिक के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते. लेकिन हमें ऐसा करना ही होगा! भारत ने एक-बार उपयोग के प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की और कंघी से लेकर चम्मच और कॉफी के चम्मच से लेकर पेन तक - सभी लकड़ी सहित अन्य सामग्रियों से बनाए जाने लगे. लेकिन प्लास्टिक अभी भी खत्म नहीं हुआ है, पन्नियां खूब प्रचलन में हैं.

हमारी खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करने और पानी की बोतलों और कुछ लोगों द्वारा खाई जाने वाली मछलियों के माध्यम से पेट में जाने के बाद, प्लास्टिक के छोटे कण मानव शरीर में अपनी जगह बना चुके हैं.

प्लास्टिक के अलावा, ऐसे कई और तत्व हैं जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं और रोजमर्रा की जिंदगी में समस्याएं पैदा कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा, पानी की कमी, भूमि क्षरण, वायु प्रदूषण, अर्बन हीट आइलैंड, पुराने-हरे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई मानव जाति के लिए गंभीर चुनौतियां पेश कर रही है.

गत 5 जून को केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, बड़ी संख्या में नागरिक समाज संगठनों, नागरिक समूहों आदि ने पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए. इनमें से कुछ इसे पूरे साल जारी रखेंगे, जबकि कुछ नहीं.

यहीं झाबुआ के ‘शिवगंगा’ संगठन की भूमिका सामने आती है. मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के इस पिछड़े जिले से मुट्ठी भर लोगों ने स्थानीय आदिवासियों को साथ लिया और वर्षों तक पानी की कमी वाले इस क्षेत्र का अध्ययन किया. इंजीनियरों सहित शिक्षित युवा-जिनमें से कुछ आईआईटी से थे-समूह में शामिल हुए.

वर्ष 1999 में उन्होंने झाबुआ और अलीराजपुर (भारत का सबसे पिछड़ा और गरीब जिला) के समग्र पर्यावरण के संरक्षण हेतु छोटे-छोटे कदम उठाए. जल्द ही, आदिवासियों (भील) के जीवन को बेहतर बनाने के लिए और अधिक युवा उनके साथ जुड़ गए. जहां कहीं भी पानी मिला, उसे संग्रहीत करने के लिए विभिन्न नालों पर 130 बड़े बांध और 2500 छोटे-छोटे बांध बनाने के बाद पानी की समस्या लगभग हल हो गई थी. वर्षा जल संचयन अच्छी तरह से किया गया. कुछ वर्षों के ही भीतर, जो क्षेत्र हमेशा सूखे का सामना करता था, इस योजनाबद्ध कार्य के माध्यम से वहां भरपूर पानी था.

शिवगंगा स्वयंसेवकों का दावा है कि वहां अब हर समय करीब एक हजार करोड़ लीटर पानी संग्रहीत रहता है.वर्ष 2019 में पद्मश्री से सम्मानित महेश शर्मा और संघ के हर्ष चौहान के नेतृत्व में शिवगंगा समूह का ‘हलमा’ कार्यक्रम भी बहुत प्रसिद्ध है और उसने बड़े, सूखे क्षेत्रों को हरे-भरे खेतों में बदल दिया है जहां पानी की कमी नहीं है और सरकार की उदासीनता के कारण वर्षों से बंजर पड़ी जमीन और पहाड़ियों पर जंगल फिर से उग आए हैं. महेश शर्मा को उनकी सादगी और लोगों से जुड़ी सेवा के कारण ‘झाबुआ का गांधी’ कहा जाता है.

लगभग 25 वर्षों के भीतर इस विशाल बहुआयामी जन-परियोजना ने यह साबित कर दिया कि बिना किसी सरकारी प्रयास के, बिना किसी स्वार्थ और पूर्ण प्रतिबद्धता के लोग 22 लाख अर्ध-शिक्षित, बेरोजगार युवाओं और अन्य लोगों को लाभान्वित कर सकते हैं और झाबुआ से पलायन को रोक सकते हैं. भूमि पुनरुद्धार, जल संरक्षण और वन संरक्षण का ‘झाबुआ मॉडल’ 1300 गांवों में फैला हुआ अपनी तरह का अनूठा गैरसरकारी मॉडल है. यह परोपकारी लोगों के निरंतर प्रयासों का ही परिणाम है.

इस पर्यावरण दिवस पर हमें शिवगंगा समूह और उनके नि:स्वार्थ आदिवासी स्वयंसेवकों को सलाम करना चाहिए, क्योंकि पर्यावरण दिवस से इतर भी, उन्होंने अपना जीवन पर्यावरण और ग्रामीण विकास के लिए समर्पित कर दिया. निश्चित ही यह एक अच्छा और प्रेरणादायक भारतीय मॉडल है.

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