BLOG: जनता को लोकतंत्र तो नहीं मिला, देश के दो टुकड़े जरूर हो गए

By अभय कुमार दुबे | Published: July 18, 2018 11:41 PM2018-07-18T23:41:43+5:302018-07-18T23:43:09+5:30

नेता चुनाव के फौरन बाद या बीच की अवधि में दल-बदल करते हैं, वे नुकसान में रहते हैं. उनकी सौदेबाजी की क्षमताएं कमजोर होती हैं. उनके बारे में व्यंग्य से कहा जाता है कि वे दूसरी पार्टी में गए और उन्हें वहां ‘फ्रीजर में डाल दिया गया’।

Indian politics: How Politicians Switched Parties Right Before Elections For Selfish Gain | BLOG: जनता को लोकतंत्र तो नहीं मिला, देश के दो टुकड़े जरूर हो गए

BLOG: जनता को लोकतंत्र तो नहीं मिला, देश के दो टुकड़े जरूर हो गए

अगर किसी पार्टी के सांसद या विधायक को चुनाव के साल भर पहले से संकेत मिल जाए कि अगली बार उसे टिकट नहीं मिलने वाला है, तो वह क्या सोचेगा और क्या करेगा? इस संगीन सवाल का सामना इस समय बहुतेरे जन-प्रतिनिधियों को करना पड़ रहा है. दरअसल, चुनाव से पहले की यही वह अवधि होती है जब नेता लोग अपने राजनीतिक भविष्य का आकलन करते हैं और उसके मुताबिक रणनीति बनाते हैं. यही होता है वह समय जब न जाने कितने सांसद और विधायक दल-बदल का फैसला कर लेते हैं और उनकी तरफ से नई पार्टी की तलाश शुरू हो जाती है. राजनीतिक सौदेबाजी की नई शर्तो का तखमीना बना लिया जाता है और दूसरी पार्टियों में उनके मित्रों के जरिए टोह ली जाने लगती है. कहना न होगा कि दल-बदल केवल इसी समय नहीं होता. लेकिन देखा गया है कि जो नेता चुनाव के फौरन बाद या बीच की अवधि में दल-बदल करते हैं, वे नुकसान में रहते हैं. उनकी सौदेबाजी की क्षमताएं कमजोर होती हैं. उनके बारे में व्यंग्य से कहा जाता है कि वे दूसरी पार्टी में गए और उन्हें वहां ‘फ्रीजर में डाल दिया गया’. दिल्ली के एक कांग्रेसी नेता के साथ ऐसा हो चुका है. वह भाजपा में गया, फिर तीन साल तक ‘फ्रीजर’ में पड़ा रहा, और फिर अंतत: अपनी पुरानी पार्टी में लौट आया. 

न केवल उम्मीदवार बल्कि पार्टियों के लिए भी यह चर्चित अवधि बहुत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि उनके रणनीतिकारों के खाते में रोज ऐसे कई नाम जुड़ते हैं जिनका या तो टिकट कटना होता है, या जिनका निर्वाचन-क्षेत्र बदला जाना होता है. पार्टी और उसके जासूस ऐसे जन-प्रतिनिधियों पर खास निगाह रखते हैं और बार-बार उनकी पार्टी-निष्ठा की जांच होती रहती है. किसी भी राजनीतिक प्रेक्षक के लिए चुनाव के साल भर पहले का यह दौर कई नई बातें बताने वाला होता है. सर्वेक्षण एजेंसियों की बन आती है. पार्टियां उन्हें बुला कर खुफिया सर्वेक्षणों का कार्यभार सौंपती हैं. इनसे निकले आंकड़ों की चुनावी रणनीति बनाने में प्रमुख भूमिका होती है. दरअसल, यह जन-प्रतिनिधियों के लिए और उनकी पार्टियों के लिए सबसे ज्यादा बेचैनी की अवधि समझी जाती है. यह दूसरी बात है कि राजनीतिशास्त्रियों ने इस चुनाव-पूर्व अवधि में कम ही दिलचस्पी दिखाई है. 

लोकतंत्र की चिमनी से निकलता जहरीला धुआं

जिस पार्टी के पास जितने ज्यादा जन-प्रतिनिधि होंगे, वह इस अवधि में सबसे ज्यादा बेचैनियों से गुजरेगी. जैसे, इस समय भाजपा के पास सबसे ज्यादा जन-प्रतिनिधि हैं. इसलिए उसकी भीतरी गतिविधियां हम प्रेक्षकों की दिलचस्पी का सबसे बड़ा केंद्र होनी चाहिए. ऊपर से इस पार्टी का सर्वोच्च नेतृत्व टिकट काटने के मामले में पिछले दिनों रिकॉर्ड बना चुका है. दिल्ली नगर महापालिका के चुनावों में भाजपा ने अपने सभी पार्षदों का टिकट काट कर एक नए तरह की रणनीति का आगाज किया था. इसका मकसद था स्थानीय स्तर की एंटी-इनकम्बेंसी (जनता की प्रतिनिधि से नाराजगी) को न्यूनतम कर देना. इस रणनीति का भाजपा को फायदा मिला, और जनता की निगाह में वह अपने नाकारा और भ्रष्ट पार्षदों से पल्ला झाड़ने में सफल रही. इस समय भाजपा के लोकसभा सांसदों के साथ-साथ उसकी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरकारों के पार्टी जन-प्रतिनिधियों के ऊपर भी इसी तरह की तलवार लटक रही है. भाजपा ने पिछले साल भर में उप-चुनावों में काफी कुछ मुंह की खाई है. यद्यपि उप-चुनावों के परिणाम पार्टी के खिलाफ नाराजगी का सूचक भी समङो जा सकते हैं, लेकिन भाजपा मानती है कि इनके पीछे स्थानीय किस्म के कारण ही हैं. इसके जरिए नेतृत्व को एहसास हो गया है कि उसके सांसदों-विधायकों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर नाराजगी है, और वह पार्टी की संभावनाओं के लिए भारी पड़ सकती है. जाहिर है टिकट खूब जम कर कटने वाले हैं. अक्तूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव भी तीनों राज्यों में सांसदों की परीक्षा बन कर आएंगे. अगर सांसद विधायकों को जिताते नहीं दिखा तो आलाकमान की निगाह में उसके नंबर कटने लाजिमी हैं. 

समझा जाता है कि भाजपा इन चुनावों में कम-से-कम 15 से 20 प्रतिशत सांसदों और विधायकों के टिकट काट सकती है. इनमें उत्तर प्रदेश के वे सांसद भी शामिल हैं जिनके पेट में बसपा और सपा के संभावित गठजोड़ के कारण पानी हो गया है. पार्टी की निगाह में कम-से-कम बारह से पंद्रह सांसद ऐसे हैं जिन्होंने पाला बदलने की योजना बना ली है. अगर सपा या बसपा की तरफ से उन्हें अगले चुनाव में टिकट मिलने का आश्वासन मिलेगा, तो वे शर्तिया भाजपा छोड़ देंगे. उन्हें लगता है कि यह गठजोड़ भाजपा को हरा सकता है. दूसरी तरफ वे सांसद भी हैं जो निर्वाचन-क्षेत्र में नामौजूदगी और लोगों के व्यक्तिगत या सामुदायिक काम न करने के कारण अपनी छवि खराब कर चुके हैं. लगता है भाजपा सबसे ज्यादा टिकट उत्तर प्रदेश में ही काटेगी. वहां यह प्रतिशत तीस से चालीस प्रतिशत तक हो सकता है. 

बरसों तक संविधान और लोकतंत्र से दूर रहा पाकिस्तान

पार्टी के पास एकाधिक जरिये हैं जिनसे वह अंदाजा लगाएगी कि किसका टिकट काटना मुफीद रहेगा. इसमें सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़े तो आते ही हैं, जिला और प्रदेश स्तर पर संगठन के प्रभारियों द्वारा मिलने वाली रपटों की भी प्रमुख भूमिका होने वाली है. तीसरा और बहुत महत्वपूर्ण स्तर है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मिलने वाली जानकारी जो आम तौर पर पर्दे के पीछे ही रहती है लेकिन जो अक्सर निर्णायक भूमिका निभाती रही है. एक तरह से देखा जाए तो भाजपा को इन अंदेशों का सामना दूसरे प्रदेशों में भी करना पड़ सकता है. अगर उसका नेतृत्व मानता है कि अगली बार भाजपा को हर जगह विपक्षी एकता के 2014 के मुकाबले बेहतर सूचकांक का सामना करना पड़ेगा, तो वह ऐसा दुरुस्त मानता है. यह परिस्थिति चुनाव के ठीक पहले भाजपा की कतारों में हड़बड़ी पैदा कर सकती है. नेतृत्व की समझदारी इस सिलसिले में यही बनेगी कि जो भी अफरा-तफरी फैले, वह जल्दी से जल्दी घटित हो जाए ताकि उससे होने वाले नुकसान की पेशबंदी समय रहते की जा सके. पार्टी के लिए यह कितना अहम है इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसकी 282 सीटों में से 232 उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत से आई हैं. यह भाजपा का ‘कैचमेंट एरिया’ रहा है. वह जानती है कि 2019 में इस तरह के असाधारण ‘स्ट्राइक रेट’ को फिर से हासिल करना तकरीबन नामुमकिन होगा. लेकिन टिकट काटने और बदलने की प्रक्रिया द्वारा नुकसान को न्यूनतम तो किया ही जा सकता है. 

चुनावी लोकतंत्र के इस पहलू का सबसे ज्यादा खामियाजा निर्वाचन-क्षेत्र और उसकी जनता को उठाना पड़ता है. जिस जन-प्रतिनिधि को एहसास हो जाता है कि उसका टिकट कटने वाला है, वह अपने क्षेत्र की जनता की सुनना बंद कर देता है. उसकी दिलचस्पी बहुत हद तक घट जाती है. चुनाव के पहले के साल में जब जन-प्रतिनिधि को पूरे जोश के साथ जनता का हित-साधन करना चाहिए, जनता अपनी उपेक्षा होते हुए देखती है. इससे कुल मिला कर पार्टी को नुकसान होता है. हर बार पार्टी खराब जन-प्रतिनिधि जनता पर थोपने की ज्म्मिेदारी से मुक्त नहीं हो सकती. इसलिए यह मानना उचित नहीं होगा कि स्थानीय स्तर की एंटी-इनकम्बेंसी को तोड़ने के लिए जो रणनीति दिल्ली नगर निगम के चुनावों में अपनाई गई, वह भिन्न परिस्थितियों में भी उतनी ही सही साबित हो सकती है.

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