लोकतंत्र की चिमनी से निकलता जहरीला धुआं

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 17, 2018 07:15 AM2018-07-17T07:15:49+5:302018-07-17T07:15:49+5:30

शुरुआत हो चुकी है। अगले साल आम चुनाव। इस साल अनेक विधानसभाओं के चुनाव। दोनों बड़ी पार्टियों के लिए अपने-अपने नजरिये से बेहद महत्वपूर्ण। तीसरे और चौथे मोर्चे अथवा दलों के लिए भी उतना ही जरूरी। सबको लग रहा है कि जैसे इस बार चूक गए तो हमेशा के लिए अवसर चला जाएगा। इसलिए जबान से जहर का रिसाव नजर आने लगा है। कोई संयम नहीं, कोई मर्यादा नहीं, कोई सीमा नहीं और कोई अफसोस नहीं।

The poisonous smoke emanating from the fireplace of democracy: Rajesh Badal | लोकतंत्र की चिमनी से निकलता जहरीला धुआं

लोकतंत्र की चिमनी से निकलता जहरीला धुआं

लेखक- राजेश बादल
शुरुआत हो चुकी है। अगले साल आम चुनाव। इस साल अनेक विधानसभाओं के चुनाव। दोनों बड़ी पार्टियों के लिए अपने-अपने नजरिये से बेहद महत्वपूर्ण। तीसरे और चौथे मोर्चे अथवा दलों के लिए भी उतना ही जरूरी। सबको लग रहा है कि जैसे इस बार चूक गए तो हमेशा के लिए अवसर चला जाएगा। इसलिए जबान से जहर का रिसाव नजर आने लगा है। कोई संयम नहीं, कोई मर्यादा नहीं, कोई सीमा नहीं और कोई अफसोस नहीं। भारतीय लोकतंत्न के लिए क्या यह शर्म का कोई कारण बनता है या फिर चुनाव के बाद हम सीना फुलाते हुए दुनिया के प्राचीन और विराट लोकतंत्न पर गर्व करते हुए इस जहर के असर को भूल जाएंगे? अगर भूल जाएं तो भी जहर तो जहर है। वह समाज और देश की सेहत पर असर डालेगा। भले ही स्वीकार करें या अनदेखा कर दें। 
आजादी के बाद पहले आम चुनाव 1952 में हुए। तब न तो देश इतना पढ़ा-लिखा था और न आज की तरह जागरूक। अनपढ़ भी चुनाव लड़ सकता था और विलायत से पढ़कर लौटे डॉ। भीमराव आंबेडकर और पं। जवाहरलाल नेहरू भी। उस दौर में चुनाव प्रचार की अपनी एक शालीनता थी और वैचारिक निरक्षरता के बावजूद देश अपने संस्कारों की पूंजी के सहारे आगे बढ़ सकता था। निर्वाचन अभियान के दौरान भी राजनीतिक विरोधियों की आलोचना होती थी और सत्ता पक्ष की कमजोरियों को जनता के बीच उठाया जाता था। अनेक आम चुनाव अपनी इसी गरिमा और राष्ट्र नेताओं की छवि को बरकरार रखते हुए संपन्न होते रहे। संचार-संवाद साधनों के नाम पर चंद समाचार पत्न थे और सरकारी रेडियो होता था। ये दोनों माध्यम आत्मसंयम के सिद्धांत का पालन करते थे और विध्वंसकारी विवादास्पद मसलों से बचते थे। राजनेता एक दूसरे का आदर करते थे, एक दूसरे से व्यक्तिगत संबंध बना कर रखते थे। आज की तरह काटने को नहीं दौड़ते थे न ही चुनाव मैदान में  मुकाबले को किसी रंजिश की तरह लिया जाता था। यहां मेरा आशय अतीत के कालपात्न को उखाड़कर तारीफ के कसीदे पढ़ना कतई नहीं, बल्कि यह जांचने की कोशिश है कि आखिर यह गड़बड़ आई तो आई कैसे?
सतही तौर पर कोई निष्कर्ष निकालना हो तो कहा जा सकता है कि गोरी हुकूमत में सदियों तक दबे कुचले अहसास के साथ जीने के बाद जब हिंदुस्तान के लोगों को अपना राज मिला तो राजरोग भी धीरे-धीरे पनपते रहे। सांवले अंग्रेजों के रूप में जो नौकरशाही राजनीतिक मदद के लिए थी, उसने पैसे कमाने के परदेसी तरीके सिखाए। खुद मलाई खाई और नेताओं को रबड़ी खिलाई। पांच साल में एक बार दो-तीन महीने की मेहनत अगर वही सुख सुविधाएं दे जिनका उपभोग अंग्रेज कर रहे थे तो खुद को राजा समझने का भाव पैदा होगा ही। राजा अपनी सत्ता कैसे जाने दे सकता है चाहे उसे गद्दी की चाहत रखने वाले विपक्षी को नंगा ही क्यों न करना पड़े? दूसरी ओर प्रतिपक्षी कतार में खड़ा राजनेता देख रहा था कि उसके जैसी सामाजिक जमीन वाला कल तक का उसका साथी राजा बन बैठा है। अधिकारी उसकी सुनते हैं। तो उसकी जाजम खींचने के लिए सारे हथकंडे आजमाए गए। लोकतंत्न को दोनों ने नुकसान पहुंचाया और दोनों के भीतर राजा अर्थात् सामंत होने का भाव पैदा हो गया। यह प्रजातंत्न पर करारी चोट थी।
विश्लेषण का एक कारण तो यह हो सकता है मगर मेरी नजर में कुछ अन्य वजहें भी हैं। हमने इस धारणा के साथ लोकतंत्न अपनाया कि हजारों साल पुरानी यह शासन प्रणाली तो हमारे डीएनए में है। लोगों के द्वारा, लोगों के लिए और लोगों पर शासन करना और उस शासन में रहना हमारी नैसर्गिक प्रतिभा है। इस कारण पुराने और जर्जर इस कोट से न धूल झड़ाई, न लॉन्ड्री में ड्राइक्लीनिंग के लिए दिया, न अस्तर बदला, न झांकते छेदों को बंद किया। नतीजा तो यही होना था। वह कोट पहनकर आप इक्कीसवीं सदी की पार्टी में कैसे जा सकते थे? हमारे नेताओं का बड़ा वर्ग मतदाताओं को आधुनिक भारत से दूर रखने का प्रयास करता रहा। उसे भय था कि अगर वोटर के लिए ताजी हवा का रौशनदान खोला तो वह कहीं बोतल में बंद जिन्न की तरह निकलकर उसी के लिए मुसीबत न बन जाए। लेकिन भारत के वोटर ने तो तालाब में कूदकर स्वयं तैरना सीख लिया था।  उसने अपने आप को टीवी देख कर बदल लिया, इंटरनेट के ज्ञान से बदल लिया, मोबाइल फोन से बदल लिया, अखबारों के सैटेलाइट संस्करणों से बदल लिया, सोशल मीडिया के जाल से बदल लिया, एफएम रेडियो के खुले खुले रूप से बदल लिया। आज का मतदाता वह नहीं है जो बीस बरस पहले था। लोकतांत्रिक नजरिए से जागरूक हो या न हो, अपनी चाहतों को लेकर तो जागरूक है। 
एक वजह यह थी कि असुरक्षा बोध के चलते राजनेताओं ने अपने-अपने दलों में आंतरिक लोकतंत्न की हत्या कर दी। दूसरी ओर तीसरी कतार के नेताओं को आगे बढ़ने से रोका और उन्हें केवल कार्यकर्ता या समर्थक बनाकर रखते रहे। बड़े नेता भूल गए कि अखिल भारतीय स्तर की राजनीति में उनके अकेले सूरज की जरूरत नहीं है। बहुस्तरीय लोकतंत्न में एक बल्ब का प्रकाश भी उपयोगी है और एक जुगनू की रोशनी भी पंचायत स्तर पर चाहिए। तमाम स्तरों पर मंद और झीनी रौशनी को संरक्षण न मिला तो कार्यकर्ताओं को अपना पावरप्लांट तो लगाना ही था। पचास की उम्र पार कर चुका कार्यकर्ता भी पीछे मुड़कर देखता था कि आखिर देश, समाज और अपने नेता की सेवा का उसे प्रतिफल क्या मिला। जब उसने पाया कि नेताओं की दरी बिछाते या उनकी जिंदाबाद - मुर्दाबाद करते सारी उमर निकल गई तो एक नफरत का भाव उसके मन में अपने ही नेताओं को लेकर पनपा। अपनी कड़वाहटों और अपने-अपने कुंठा जहर को लेकर वह भी राजनीति के मैदान में कूद पड़ा। 
आज भी हमारा राजनीतिक सिस्टम न नेताओं को ढंग से तैयार करता है न कार्यकर्ताओं को। विचारधारा के आधार पर वह दल में नहीं जाता। जहां उसका स्वार्थ होता है, वहां जाता है। जब तक पार्टी में हित सधता है तो रहता है। नहीं सधता तो एक झटके में पार्टी छोड़ देता है। कोई अफसोस नहीं होता। सवाल यह है कि हमने ऐसा क्यों किया? आज के छात्न राजनीति विज्ञान में एमए करते हैं मगर राजनीति में आने के बाद सारी उमर वो जिस तरह की सियासत करते हैं उसमें उस डिग्री का कोई मतलब नहीं होता। बहुत सारे विषयों पर शोध ग्रंथ लिखे जाते हैं लेकिन कोई रिसर्च इस पर नहीं हुई कि आखिर हमारे राजनेता अपनी साख क्यों खो बैठे हैं? संसद और विधानसभाओं में गुणवत्ता वाली बहसें क्यों नहीं होतीं? आज कितने राजनेता हैं, जो लोकतंत्न का सही अर्थ समझते हैं? यहां तक कि राजनीति के तरीके तक वही हैं। आज भी चुनावी रैलियां वैसी ही होती हैं जैसी हम लोग स्कूल के जमाने में देखते थे। भीड़ जुटाने के लिए प्रयास भी वही। गाड़ियां भर-भर कर लाई जाती हैं। उन्हें खाने का पैकेट दिया जाता है। अंतर यह कि पहले नोट नहीं दिए जाते थे। अब रुपए मिलते हैं और पीने वालों को शराब भी। तो हम आगे जा रहे हैं या पीछे? चेतावनी यही है कि आने वाले दिनों में राजनीतिक पार्टियों के नाम पर कहीं गिरोह न तैयार हो जाएं। अगर ऐसा हुआ तो हम पाकिस्तान में लोकतंत्न नहीं होने का ताना नहीं दे पाएंगे। 

Web Title: The poisonous smoke emanating from the fireplace of democracy: Rajesh Badal