राजेश बादल का ब्लॉगः चौधराहट की चीनी चाह से सतर्क रहना जरूरी  

By राजेश बादल | Published: October 29, 2019 11:41 AM2019-10-29T11:41:18+5:302019-10-29T11:41:18+5:30

पिछले कुछ दशकों में उसने सीमा विवाद सुलझाने और पाकिस्तान को समर्थन देने के अलावा अन्य भारतीय हितों में हस्तक्षेप कम ही किया है. लेकिन अब मालदीव से लेकर श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और म्यांमार तक में उसने अपनी वैदेशिक और कारोबारी दिलचस्पियों का संरक्षण शुरू कर दिया है. हिंदुस्तान के लिए यह गंभीर चिंता का सबब हो सकता है.  

india should aware of china dominating policy | राजेश बादल का ब्लॉगः चौधराहट की चीनी चाह से सतर्क रहना जरूरी  

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Highlightsसमीकरण बदल रहे हैं. एशिया में चीन की चाहतें जवान हो रही हैं. अभी तक वह जिन मामलों में आमतौर पर चुप्पी साधता था, अब सीधी दिलचस्पी ले रहा है. मुल्क के अधिनायक शी जिनपिंग अपने दूसरे कार्यकाल में असीमित अधिकार पाने के बाद खामोश नहीं हैं.

समीकरण बदल रहे हैं. एशिया में चीन की चाहतें जवान हो रही हैं. अभी तक वह जिन मामलों में आमतौर पर चुप्पी साधता था, अब सीधी दिलचस्पी ले रहा है. मुल्क के अधिनायक शी जिनपिंग अपने दूसरे कार्यकाल में असीमित अधिकार पाने के बाद खामोश नहीं हैं. चीन के अंदरूनी मामलों में उनका यह सामंत सिर चढ़ कर बोल रहा है तो पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों का रौबदार अहसास करा रहा है. 

पिछले कुछ दशकों में उसने सीमा विवाद सुलझाने और पाकिस्तान को समर्थन देने के अलावा अन्य भारतीय हितों में हस्तक्षेप कम ही किया है. लेकिन अब मालदीव से लेकर श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और म्यांमार तक में उसने अपनी वैदेशिक और कारोबारी दिलचस्पियों का संरक्षण शुरू कर दिया है. हिंदुस्तान के लिए यह गंभीर चिंता का सबब हो सकता है.  
  
चीन का नया चौंकाने वाला कदम अफगानिस्तान में बढ़ता हालिया हस्तक्षेप है. वह पाकिस्तान के जरिए अब अफगानिस्तान में तालिबान के साथ सरकार का समझौता कराने की कोशिशें कर रहा है. 25 अक्तूबर को मास्को में चीनी पहल पर अमेरिकी, पाकिस्तानी, रूसी और तालिबानी प्रतिनिधियों के बीच लंबी वार्ताओं के दौर चले. 

भारत को इसमें पूछा तक नहीं गया, जबकि वह अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी लंबे समय से उठा रहा है. यह एक बड़ा झटका है. अब बीजिंग में नवंबर के दूसरे सप्ताह में दो दिन का एक सम्मेलन होगा. इससे पूर्व पाकिस्तानी और अफगानी तालिबानी गुटों को एक मंच पर लाकर उनसे बात करने की चीन ने शुरु आत की थी. 

तालिबानी प्रवक्ता सुहैल शाहीन के हवाले से आई खबर में कहा गया है कि पाकिस्तानी तालिबान के एक प्रतिनिधि मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने कतर में चीनी राजदूत से लंबी चर्चा की और इस शिखर सम्मेलन के मुद्दों को अंतिम रूप दिया. अगर यह समझौता हो गया तो भारत और ईरान के लिए तगड़ा झटका होगा. अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए ईरान ने चाबहार बंदरगाह को आकार दिया है. चाबहार बंदरगाह से पाकिस्तान और चीन की ग्वादर बंदरगाह बनाने के पीछे की मंशाओं को झटका लगा है.    
इससे पहले पाकिस्तान ने एक साल तक अमेरिका के साथ तालिबानी नेताओं की गुपचुप वार्ताओं के दौर कराए थे. आठ बार की गंभीर चर्चाओं के बाद अचानक अमेरिका ने पीछे हटने का ऐलान कर दिया था. इससे पाकिस्तान की बड़ी किरकिरी हुई थी. अलबत्ता यह भारत के लिए राहत की बात थी, क्योंकि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की बड़ी भूमिका है और वहां की निर्वाचित सरकारें भारत के करीब रही हैं. 

इतना ही नहीं वे पाकिस्तान को भी उनके देश में अशांति पैदा करने के लिए कोसती रही हैं. अब पाकिस्तान ने नए सिरे से तालिबानी नेताओं को अफगानी हुकूमत के साथ चीन की मध्यस्थता के लिए तैयार किया है. हालांकि इसमें अभी सरकार की हिचक बरकरार है. चीन पर अफगानी हुकूमत को पूरी तरह भरोसा नहीं हो रहा है. इसका एक कारण यह भी है कि तालिबान अफगानिस्तान की सरकार को अमेरिकी कठपुतली मानता है. इसलिए समझौता कोई आसान नहीं है. अगर ऐसा हो गया तो इस निष्कर्ष पर पहुंचने में ङिाझक नहीं होनी चाहिए कि चीन ने हिंदुस्तान के मित्न देशों को अपने पाले में लाने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास तेज कर दिए हैं.

गौरतलब है कि इससे पहले चीन ने म्यांमार और बांग्लादेश के बीच रोहिंग्या मसले का समाधान निकालने के लिए न्यूयॉर्क में एक समझौता करा कर भारतीय विदेश नीति को गहरा संकेत दिया था. म्यांमार और बांग्लादेश भारत के गहरे मित्न देशों में शुमार हैं. बांग्लादेश की प्रधानमंत्नी शेख हसीना और म्यांमार की नेत्नी आंग सान सू की के लिए भारत एक तरह से दूसरा घर है. 

लंबे समय तक इन देशों की अपेक्षा थी कि भारत एशिया की बड़ी ताकत होने के नाते इसी तरह का कोई समझौता कराए. लेकिन भारतीय नीति विकलांगता के कारण यह न हो सका. भारत को इससे बड़ा कूटनीतिक झटका लगा था. दरअसल हम भारतीय विदेश नीति का वह बिंदु खोजने में विफल रहे हैं, जहां वह ऐसी घड़ी में अधिकारपूर्वक फैसले लेती हो. हिंदुस्तान के गहरे मित्न और पड़ोसी नेपाल को चीन पहले ही अपने प्रभाव में ले चुका है. 

अब नेपाल के साथ भारत के रिश्तों में वह स्वाभाविक मिठास नहीं रही है. मालदीव और श्रीलंका भी चीनी कर्ज के चक्कर में उलङो हुए हैं. वे एक तरह से उसकी पकड़ में आ चुके थे लेकिन इन देशों में सत्ता परिवर्तन ने भारत को राहत दी थी. मगर अब फिर चीन ने इन देशों की सरकारों के साथ रिश्ते सुधारने शुरू कर दिए हैं. भारत के लिए यह बेहद सावधान रहने का समय है. भारतीय कूटनीति और विदेश नीति लंबे समय तक चीन की इन चालों के प्रति आंख मूंदे नहीं रह सकती.

Web Title: india should aware of china dominating policy

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