लाइव न्यूज़ :

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: संसद में नजर आती विचारधारा की बेचैनियां

By अभय कुमार दुबे | Updated: June 26, 2019 06:12 IST

मुसलमानों के वोटों के दम पर राजनीति करने वाली तथाकथित सामाजिक न्याय की पार्टियां एक के बाद एक चुनाव हारते-हारते बुरी तरह से हांफती हुई दिख रही हैं. भाजपा ने 45 से 50 फीसदी की हिंदू एकता बना कर मुसलमान वोटों की प्रभावकारिता को शून्य कर दिया है.

Open in App

सत्रहवीं लोकसभा की शुरुआत कुछ अजीब तरीके से हुई है. सांसदों के शपथ लेते समय जो कुछ हुआ, उससे लगता है कि मानस के स्तर पर भाजपा अभी भी अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक वाला युद्ध लड़ रही है. हम सब जानते हैं कि हैदराबाद की सीमित राजनीति करने वाले असदुद्दीन ओवैसी की वास्तविक राजनीतिक हैसियत क्या है. टीवी और अन्य मीडिया में वे बातें कितनी भी बड़ी-बड़ी करें, लेकिन ज्यादा से ज्यादा वे एक या दो सीटें जीतने की स्थिति में ही रहते हैं. दूसरे मुसलमान नेताओं की आभा भी मंद पड़ चुकी है.

मुसलमानों के वोटों के दम पर राजनीति करने वाली तथाकथित सामाजिक न्याय की पार्टियां एक के बाद एक चुनाव हारते-हारते बुरी तरह से हांफती हुई दिख रही हैं. भाजपा ने 45 से 50 फीसदी की हिंदू एकता बना कर मुसलमान वोटों की प्रभावकारिता को शून्य कर दिया है. दरअसल, मोदी की जीत बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का आधार बहुत मजबूत हो जाने का प्रतीक है. इसलिए, अब ओवैसी जैसे मामूली हैसियत के नेता का तो भाजपाइयों को नोटिस भी नहीं लेना चाहिए.

लेकिन जिस तरह से ओवैसी के शपथ लेते समय संसद में जय श्रीराम के नारे लगे, उससे स्पष्ट हो गया कि अल्पसंख्यक राजनीति की प्रतीकात्मक उपस्थिति भी भाजपा को पसंद नहीं है. अगर भाजपा को मुसलमान नेता चाहिए तो मुख्तार अब्बास नकवी जैसा. 

भाजपा की विचारधारात्मक बेचैनियों का दूसरा मुजाहिरा उस समय हुआ जब संसद में लगे जय श्रीराम के नारे की एक समझदार टीवी चैनल पर समीक्षा हुई. वहां स्वयं को आंबेडकर का अनुयायी बताने वाले एक मुसलमान प्रवक्ता ने दावा किया कि यह नारा वर्णव्यवस्था को वापस ¨हंदू समाज के शूद्रों और दलितों पर थोपने का प्रयास है. यह सुनते ही भाजपा के एक प्रवक्ता ने तरह-तरह के तर्को से वर्ण व्यवस्था का बचाव करना शुरू कर दिया.

वे कहना यह चाहते थे कि अतीत में शूद्र वर्ण अपने-आप में कोई अपमानजनक वर्ण नहीं रहा है. उनकी बात तथ्यात्मक दृष्टि से सही थी. लेकिन, अगर आज की सामाजिक स्थिति और राजनीतिक स्थिति के आईने में देखा जाए तो आरोप लगाने वाला और उसका जवाब देने वाला, दोनों ही गलती पर थे. एक तरह से दोनों का वक्तव्य स्वयं उनकी ही राजनीति के लिए नुकसानदेह लग रहा था. 

समझने की बात यह है कि भाजपा की मौजूदा जीत का आधार पिछले चार दशकों में हुए इसके ओबीसीकरण का संचित परिणाम है. आज की भाजपा ब्राrाण-बनिया पार्टी नहीं रह गई है. यह सही है कि उसकी सामाजिक राजनीति आंबेडकरवादी शैली में ब्राrाणवाद विरोधी भाषा में संसाधित नहीं होती. संघ परिवार जाति-संघर्ष का हामी नहीं है, इसलिए उसकी राजनीतिक भुजा भाजपा में ब्राह्मणों, ठाकुरों और वैश्यों के हिंदुत्व-समर्थक रुझानों को भी सम्मानजनक जगह प्राप्त होती है.

एक तरह से ये तीनों जातियां पूरे उत्तर-मध्य और पश्चिमी भारत में भाजपा के जेबी वोट-बैंक की भूमिका निभा रही हैं. लेकिन भाजपा केवल इनके वोटों से ही नहीं जीत सकती थी. गैर-यादव शूद्र जातियों और गैर-जाटव दलित जातियों ने भाजपा को जम कर वोट दिए हैं. 

यह प्रोजेक्ट साठ के दशक से ही चल रहा था, लेकिन इसके भीतर जो भी हिचक थी, वह उस समय खत्म हो गई जब संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने 1974 में पुणो के वसंत व्याख्यानमाला के अपने भाषण में वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह से खारिज करते हुए गांधी, आंबेडकर और फुले के संघ के राष्ट्रवादी आख्यान में विनियोग की रणनीति सूत्रबद्ध की. अगर भाजपा और संघ परिवार के विरोधी उसके 1974 से पहले वाले संस्करण से लड़ते रहेंगे तो उनकी ऊर्जा व्यर्थ ही जाने वाली है. 

दूसरी तरफ भाजपा के प्रवक्ता महोदय जिस तत्परता से वर्णाश्रम का बचाव करते दिखे, उससे भी लगा कि इस पार्टी और संघ परिवार में 1974 से पहले के वक्तों का कुछ वैचारिक अंश अभी बाकी है, यद्यपि हिंदुत्व का प्रोजेक्ट व्यावहारिक रूप से इस समस्या से मुक्त हो चुका है. ध्यान रहे कि देवरस ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वर्णाश्रम की व्यवस्था मरणोन्मुख है और उसे ‘ठीक से मर जाने देना चाहिए’.

उन्होंने निर्देश दिया था कि वर्णाश्रम के दार्शनिक बचाव की भी कोई कोशिश नहीं की जानी चाहिए. आज संघ और भाजपा के ध्येय-वाक्य इसी व्याख्यान से निकलते हैं. पर, इस हिदायत के बावजूद हम जानते हैं कि नब्बे के पूरे दशक के दौरान उत्तर भारत में भाजपा के भीतर ऊंची जातियों के नेता पिछड़ी जातियों के नेताओं के खिलाफ गृह युद्ध लड़ते रहे.

आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस गृह युद्ध का निपटारा हो चुका है और पार्टी के भीतरी हलकों में पिछड़ी जातियों, दलित जातियों और ऊंची जातियों के लिए एक मिलाजुला समतल राजनीतिक मैदान उपलब्ध कराने की कोशिश चल रही है. लेकिन, भाजपा प्रवक्ता की बात इस यथार्थ का प्रमाण है कि वैचारिक प्रभावों की व्यावहारिक उम्र काफी लंबी होती है. 

टॅग्स :संसदनरेंद्र मोदीमहागठबंधनआरएसएसअसदुद्दीन ओवैसी
Open in App

संबंधित खबरें

भारतPariksha Pe Charcha 2026: 11 जनवरी तक कराएं पंजीकरण, पीएम मोदी करेंगे चर्चा, जनवरी 2026 में 9वां संस्करण

कारोबारIndiGo Crisis: 7 दिसंबर रात 8 बजे तक सभी यात्रियों को तत्काल पैसा वापस करो?, मोदी सरकार ने दिया आदेश, छूटे हुए सभी सामान अगले 48 घंटों के भीतर पहुंचाओ

भारतPutin Visit India: भारत का दौरा पूरा कर रूस लौटे पुतिन, जानें दो दिवसीय दौरे में क्या कुछ रहा खास

भारत‘पहलगाम से क्रोकस सिटी हॉल तक’: PM मोदी और पुतिन ने मिलकर आतंकवाद, व्यापार और भारत-रूस दोस्ती पर बात की

भारतModi-Putin Talks: यूक्रेन के संकट पर बोले पीएम मोदी, बोले- भारत न्यूट्रल नहीं है...

भारत अधिक खबरें

भारतकथावाचक इंद्रेश उपाध्याय और शिप्रा जयपुर में बने जीवनसाथी, देखें वीडियो

भारत2024 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, 2025 तक नेता प्रतिपक्ष नियुक्त नहीं?, उद्धव ठाकरे ने कहा-प्रचंड बहुमत होने के बावजूद क्यों डर रही है सरकार?

भारतजीवन रक्षक प्रणाली पर ‘इंडिया’ गठबंधन?, उमर अब्दुल्ला बोले-‘आईसीयू’ में जाने का खतरा, भाजपा की 24 घंटे चलने वाली चुनावी मशीन से मुकाबला करने में फेल

भारतजमीनी कार्यकर्ताओं को सम्मानित, सीएम नीतीश कुमार ने सदस्यता अभियान की शुरुआत की

भारतसिरसा जिलाः गांवों और शहरों में पर्याप्त एवं सुरक्षित पेयजल, जानिए खासियत