हरियाणा में भाजपा द्वारा की जाने वाली जोड़तोड़ की मजबूरी और महाराष्ट्र में फडणवीस की कुर्सी पर लगने वाला शिवसेना का ग्रहण बताता है कि इन दोनों राज्यों की जीत उतनी अभूतपूर्व नहीं है, जितना भाजपा ने अपने विश्लेषण में दावा किया है. यह कहना गले नहीं उतरता कि महाराष्ट्र और हरियाणा भाजपा के पारंपरिक गढ़ नहीं हैं, इसलिए किसी न किसी प्रकार सत्ता में दोबारा आ जाना एक असाधारण उपलब्धि है.
किसी भी मानक के आईने में देखें, भाजपा का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा है. दोनों राज्यों में उसके कई मंत्री बुरी तरह से चुनाव हारे. दोनों ही राज्यों में उसकी चुनावी रणनीतियों को कामयाब नहीं माना जा सकता. हरियाणा में जाट बनाम गैर-जाट का फंडा फ्लॉप हो गया. महाराष्ट्र में फडणवीस के नेतृत्व में बनाया गया सामाजिक गठजोड़ काम नहीं आया.
वह तो वंचित बहुजन आघाड़ी और ओवैसी की पार्टी ने कांग्रेस-राकांपा के वोट नहीं काटे होते तो भाजपा से पच्चीस के आसपास सीटें और छिन सकती थीं. दोनों ही प्रदेशों में मोदी द्वारा उठाए गए राष्ट्रवादी मुद्दे भी वोटरों को आकर्षित करने में विफल रहे. पहली नजर में ऐसा लगता है कि वोटर भाजपा के मॉडल से कुछ थकान महसूस करने के पहले चरण में पहुंच रहे हैं.
दुष्यंत चौटाला ने मनोहरलाल खट्टर के दूसरे मुख्यमंत्रित्व में हरियाणा के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है. भाजपा के पास अब गोपाल कांडा को छोड़ कर बाकी निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी है, और जजपा का भी. यानी उसके पास पचपन से ज्यादा विधायक हैं. कांग्रेस को अब अकेले ही विधानसभा में विपक्ष की भूमिका निभानी होगी.
दरअसल, नेता के सोचने की गति राजनीतिक समीक्षक से तेज होती है. दुष्यंत अभी तीस साल के भी नहीं हुए हैं, और उन्होंने दिखा दिया है कि राजनीतिक जोड़तोड़ में अपने दादा देवीलाल के भी कान काटते हैं. अब जाहिर हो चुका है कि दुष्यंत शुरू से दोनों तरफ गति कर रहे थे. उन्होंने कांग्रेस से बातचीत के चैनल भी खोल रखे थे, और प्रकाश सिंह बादल से होते हुए अनुराग ठाकुर के जरिये भाजपा से भी. जैसे ही भाजपा गोपाल कांडा की वजह से नैतिक सांसत में फंसी, वैसे ही उसकी दिलचस्पी दुष्यंत में बढ़ गई. भाजपा के सभी जाट नेता चुनाव हार चुके थे.
पार्टी की समझ में आ गया था कि जाट वोटर भाजपाई जाटों को गद्दार की तरह देख रहे हैं. उसे लगा कि दुष्यंत को उपमुख्यमंत्री बना कर वह हरियाणा के जाट समाज में नए सिरे से प्रवेश कर पाएगी, और सरकार मजबूत भी रहेगी. अगर जजपा कोई मुश्किल पैदा करती है तो उसके पास हमेशा ही छह-सात निर्दलीय विधायकों के समर्थन की सुविधा रहेगी ही.
इस तरह कहा जा सकता है कि हरियाणा में बहुमत न जीत पाने के बावजूद भाजपा के पास इस समय दोनों हाथों में लड्डू हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि क्या महाराष्ट्र में बहुमत प्राप्त कर लेने के बावजूद उसके हाथों में इसी प्रकार के लड्डू हैं? मतगणना के दिन मेरे साथ टीवी पर चर्चा करते हुए शिवसेना के एक प्रवक्ता ने दावा किया कि उनकी पार्टी न केवल आदित्य ठाकरे को पहले ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री बनाना चाहेगी, बल्कि भाजपा से पुराना ‘बैकलॉग’ भी वसूलने की कोशिश करेगी.
उनका तर्क था कि अठारह सांसदों के बावजूद मोदी सरकार ने शिवसेना को केवल एक मंत्रलय दिया है, वह भी भारी उद्योग का. यानी अब न केवल देवेंद्र फडणवीस को शिवसेना से बराबर की सत्ता साझा करनी पड़ेगी, बल्कि केंद्र में भी मोदी को शिवसेना के समर्थन का ज्यादा मूल्य चुकाना होगा. शिवसेना अपने इरादों में कितनी सफल होगी, यह नहीं कहा जा सकता.
इन चुनावों में भाजपा का अति-आत्मविश्वास बुरी तरह से पिटा है. पचहत्तर पार और दो सौ बीस पार की शेखी का जम कर मजाक उड़ा. यह मानना उचित नहीं होगा कि भाजपा ने ये नारे सिर्फ कार्यकर्ता पंक्ति को उत्साहित करने के लिए दिए थे. दरअसल, वह राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को एक नया रुख देना चाहती थी.
हरियाणा में पचहत्तर पार और महाराष्ट्र में 220 पार जाने का सीधा मतलब था, दोनों जगह पचास फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करना. जैसे ही मीडिया ने भाजपा की दावेदारियों को दोहराया, वैसे ही पार्टी को लगने लगा कि उसने शायद यह चुनाव मनमाने ढंग से जीत लिया है. और, उसके प्रवक्तागण मीडिया मंचों पर कहने लगे कि भारत के राजनीतिक इतिहास में मोदी की भाजपा अकेली ऐसी पार्टी है जो हर समय पचास फीसदी की दावेदारी सफलतापूर्वक कर सकती है.
ऐसा हो जाने का मतलब था- एक पार्टी का प्रभुत्व नहीं (जैसा कि कभी कांग्रेस का था), बल्कि सिर्फ एक पार्टी का ही शासन (क्योंकि अगर किसी पार्टी को पचास प्रतिशत वोट मिलते हैं तो फिर उसे कोई नहीं हरा सकता, यहां तक कि विपक्ष की एकता भी नहीं). वोटरों ने भाजपा का यह सपना तोड़ दिया है. इसीलिए यह जीत ‘अभूतपूर्व’ नहीं, ‘भूतपूर्व’ है.