ब्लॉग: मातृभाषा की उपेक्षा कब तक होती रहेगी!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 21, 2019 08:36 AM2019-02-21T08:36:40+5:302019-02-21T08:36:40+5:30

मातृभाषा के माध्यम से ही मनुष्य का ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में पदार्पण होता है. मां के स्तनपान के साथ-साथ अबोध शिशु जिन ध्वनियों और दुनियावी वस्तुओं से परिचना शुरू करता है

How long will the mother tongue be neglected! | ब्लॉग: मातृभाषा की उपेक्षा कब तक होती रहेगी!

ब्लॉग: मातृभाषा की उपेक्षा कब तक होती रहेगी!

(लेखक-गिरीश्वर मिश्र)

मातृभाषा के माध्यम से ही मनुष्य का ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में पदार्पण होता है. मां के स्तनपान के साथ-साथ अबोध शिशु जिन ध्वनियों और दुनियावी वस्तुओं से परिचना शुरू करता है वह बच्चे को प्रतीकों की नई दुनिया में प्रवेश दिलाता है. यह प्रक्रिया बड़ी सरल और प्रभावी होती है क्योंकि बच्चे के आसपास गुंजरित होते परिवेश में देखते-सुनते इस भाषा में निरंतर अभ्यास चलता रहता है. ऐसे में भाषा की दुनिया का एक सुदृढ़ आधार तैयार होता है जो सहज और स्वाभाविक होने के कारण सरल और सुग्राह्य होता है.

भारत की भाषायी स्थिति अद्भुत है. यहां ऐतिहासिक कारणों विशेषत: औपनिवेशिक परिस्थितियों से उपजे मानसिक अवरोधों के कारण भाषा का नियोजन अंग्रेजी और अंग्रेजियत से इस कदर आच्छादित हो गया कि स्वतंत्रता मिलने के सत्तर साल बीतने पर भी हम किंकर्तव्यविमूढ़ बने बैठे हैं और कोई कारगर भाषायी नीति विकसित नहीं हो सकी है. विकास की सारी कहानी चल रही है परंतु शिक्षा और भाषा जैसे सवाल पृष्ठभूमि में चले गए हैं जबकि दीर्घ काल तक इनकी उपेक्षा बड़ी घातक होगी. 

आज काफी बड़ी संख्या में हम भारतीयों ने आधुनिक सभ्यता और ज्ञान के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य मान लिया है. आम आदमी यह मान बैठा दिखता है कि अंग्रेजी में महारत हासिल होते ही सफलता चरण चूमेगी. अस्वाभाविक होने पर भी अंग्रेजी का हौवा कुछ विलक्षण रूप से सबके दिमाग पर छाया हुआ है. भारत की भाषाएं अंग्रेजी के आगे लाचार दिखती हैं. बहुतों को हिंदी या अन्य भारतीय भाषा के प्रयोग में दीनता और हीनता अनुभव होती है. आखिर अंग्रेजी अंग्रेजी जो  ठहरी ! उसने हम पर राज किया इसलिए राजा की तरह बनना है तो अंग्रेजी से होकर ही उसका रास्ता आगे जाता है.

 हमारी भाषा केवल विचारों को व्यक्त ही नहीं करती  वह विचारों को गढ़ती  है और हमारे मानस को आकार भी देती है. भाषा स्वयं में एक कर्म है और अगणित कर्मो की जननी भी है. इसलिए उसके साथ तटस्थता का रुख आत्मघाती है. आज हिंदी से हिंदी के शब्द बाहर जा रहे हैं और अंग्रेजी के शब्द यदि अंदर आ रहे हैं तो यह भाषा के गठन तक सीमित प्रश्न नहीं है. इसके साथ संस्कृति के निर्माण का प्रश्न भी जुड़ा है, समाज की अस्मिता भी जुड़ी है और सामाजिक अभिव्यक्ति और सहकार भी जुड़ा है. मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है. परिवार और विद्यालय दोनों ही परिवेश जिसमें बच्चा पलता-बढ़ता है, बड़े ही संवेदनशील होते हैं. सांस्कृतिक रूप से संपन्न होने और बच्चों के भाषायी आधार को सुदृढ़ बनाने के लिए मातृभाषा को आदर देना आवश्यक है

Web Title: How long will the mother tongue be neglected!

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