विनीत नारायण का ब्लॉग: देश में राजनीति की दशा आखिर कैसे सुधरेगी?
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: April 1, 2019 06:33 AM2019-04-01T06:33:38+5:302019-04-01T06:33:38+5:30
समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रुपए उसके पास कभी होंगे ही नहीं.
लोकसभा के चुनावों का माहौल है. हर दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहा है. जो बड़े और धनी दल हैं, वे प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए धन भी देते हैं. कुछ ऐसे भी दल हैं, जो उम्मीदवारी की टिकट देने के बदले में करोड़ों रुपए लेते हैं. पता चला है कि एक उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव में 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ रुपया या फिर इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है. जबकि भारत के चुनाव आयोग द्वारा एक प्रत्याशी द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रु. निर्धारित की गई है.
प्रत्याशी इसी सीमा के भीतर रहकर चुनाव लड़ें, इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत का चुनाव आयोग हर संसदीय क्षेत्न में तीन पर्यवेक्षक भी तैनात करता है जो मूलत: भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के वे अधिकारी होते हैं, जो दूसरे प्रांतों से भेजे जाते हैं. चुनाव के दौरान जिला प्रशासन और इन पर्यवेक्षकों की जवाबदेही किसी राज्य या केंद्र सरकार के प्रति न होकर केवल चुनाव आयोग के प्रति होती है. बावजूद इसके नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं.
इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रुपए उसके पास कभी होंगे ही नहीं. अगर वह व्यक्ति यह रुपया शुभचिंतकों से मांगता है, तो वे शुभचिंतक कोई आम आदमी तो होंगे नहीं. वे या तो बड़े उद्योगपति होंगे या बड़े भवन निर्माता या बड़े माफिया. क्योंकि इतनी बड़ी रकम जुए में लगाने की हिम्मत किसी मध्यम वर्गीय व्यापारी या कारोबारी की तो हो नहीं सकती. ये बड़े पैसे वाले लोग कोई धार्मिक भावना से चुनाव के प्रत्याशी को दान तो देते नहीं हैं.
किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति भी इनका कोई समर्पण नहीं होता. जो सत्ता में होता है, उसकी विचारधारा को ये रातों-रात ओढ़ लेते हैं, जिससे इनके कारोबार में कोई रुकावट न आए. जाहिर है कि इन बड़े पैसे वालों को किसी उम्मीदवार की सेवा भावना के प्रति भी कोई लगाव या श्रद्धा नहीं होती है. तो फिर क्यों ये इतना बड़ा जोखिम उठाते हैं? साफ जाहिर है कि इस तरह का पैसा दान में नहीं दिया जाता बल्कि विनियोग (इनवेस्ट) किया जाता है. पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि चुनाव कोई व्यापार तो नहीं है कि जिसमें लाभ कमाया जाए. तो फिर ये रकम इनवेस्ट हुई है, ऐसा कैसे माना जाए?
उत्तर सरल है, जिस उम्मीदवार पर इतनी बड़ी रकम का दांव लगाया जाता है, उससे निश्चित ही यह अपेक्षा रहती है कि वह पैसा लगाने वालों की लागत से 10 गुना कमाई करवा दे. इसके लिए उस जीते हुए व्यक्ति को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इन धनाढ्यों के जायज-बेजा सभी काम करवाने पड़ते हैं.
इस तरह चुनाव जीतने के बाद एक व्यक्ति पैसे वालों के जाल में इतना उलझ जाता है कि उसे आम जनता के दुख-दर्द दूर करने का समय ही नहीं मिलता. जब जीता हुआ प्रत्याशी पैसेवालों के इस मकड़जाल में फंस जाता है, तो स्वाभाविक है कि उसकी भी फितरत इसी तरह पैसा बनाने की हो जाती है जिससे अपने भविष्य को सुरक्षित कर सके.