अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: संपर्क-भाषा और विश्व-भाषा के बीच फंसी हिंदी
By अभय कुमार दुबे | Published: September 18, 2019 05:37 AM2019-09-18T05:37:02+5:302019-09-18T05:37:02+5:30
पहली बात यह कि जब ताकत न हो, फिर भी उसकी डींग हांकना एक दिमागी विकृति है. दूसरी बात यह है कि हिंदी के विस्तार को इससे जोड़ते ही दुनिया में तो इसका मजाक बनता ही है, भारत में अन्य भारतीय भाषाओं (जो साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदी से अधिक पुरानी और प्रतिष्ठित हैं) के कान खड़े हो जाते हैं.
अपनी हिंदी भाषा के भविष्य को लेकर मैं कुछ चिंतामग्न हूं. इसका कारण यह है कि पिछले तीस साल में तेजी से हुए हिंदी के विस्तार को विश्व में भारत की कथित रूप से बढ़ती हुई ताकत से जोड़ा जा रहा है. यह दावा न केवल झूठ पर आधारित है, बल्कि यह हिंदी को साम्राज्यवादी भाषा की छवि देने वाला है. अगर यह दावा इसी तरह किया जाता रहा, तो देश की अन्य भाषाएं हिंदी के विरोध में खड़ी हो जाएंगी, और अखिल भारतीय संपर्क-भाषा के रूप में हिंदी की प्रखर संभावनाओं को एक बार फिर ग्रहण लग जाएगा. इस विकृत दावेदारी का सबसे ज्यादा लाभ अंग्रेजी को होगा, जो देश की संपर्क-भाषा बनने के लिए अपने अंतर्राष्ट्रीय पैरोकारों और ब्रिटिश व अमेरिकी पूंजी के बेहद प्रभावशाली नेटवर्क के दम पर कमर कसे हुए तैयार बैठी है.
साठ के दशक के उत्तरार्ध में बलदेव राज नायर ने यह जांच की थी कि क्या सरकारी सेंटर के बाहर हिंदी एक अखिल भारतीय संपर्क-भाषा के रूप में विकसित हो सकती है (नायर का लेख अंग्रेजी में ‘हिंदी अ लिंक लैंग्वेज’ शीर्षक से छपा था). उन्होंने 1961 की जनगणना के आंकड़ों पर एक विश्लेषणात्मक निगाह डाली और पाया कि देश में कोई 30.4 फीसदी लोग ऐसे हैं जो हिंदी को अपनी मातृ-भाषा बताते हैं. उन्होंने देखा कि इसमें अगर उर्दू और ¨हिंदुस्तानी के आंकड़े भी जोड़ दिए जाएं तो यह प्रतिशत 35.7 तक पहुंच जाता है. जाहिर है कि ¨हिंदी आधे से ज्यादा भारतवासियों की भाषा नहीं थी, फिर भी उसे बोलने-बरतने वालों की संख्या बहुभाषी नजारे में बहुत अधिक थी.
हिंदीवालों की इस एकमुश्त अधिकता और उसके कारण बने सेवाओं और उत्पादों के विशाल बाजार के आधार पर उन्होंने पहला निष्कर्ष यह निकाला कि व्यापारियों, उद्योगपतियों, श्रमिकों, सिपाहियों, साधु-संतों और मुसाफिरों की सक्रियता के दायरे में हिंदीभाषियों के साथ अन्योन्यक्रिया के पहलुओं को एक तरह के ‘मल्टीप्लायर इफेक्ट’ के रूप में देखा जाना चाहिए. यह इफेक्ट ¨हिंदी को एक संपर्क-भाषा के तौर पर विकसित करने के पक्ष में जाता है.
नायर ने देखा कि हिंदी की साहित्यिक प्रतिष्ठा को भाव न देने वाले गैर-हिंदी साहित्यकार भी अपनी रचनाओं का हिंदी में प्रकाशन करने के लिए साहित्य अकादमी पर दबाव डाल रहे हैं. वे हिंदी-क्षेत्र में बिकना चाहते हैं. अगर कोई मलयालम का एक उपन्यास पंजाबी में छपना चाहता है, तो वह उसके हिंदी अनुवाद का पंजाबीकरण करके वहां के पाठकों तक पहुंच सकता है. कोई बंगाली अगर तमिल कविता के बारे में जानना चाहता है तो वह हिंदी के माध्यम से यह काम आसानी से कर सकता है. इस तरह नायर ने देखा कि ¨हिंदी विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच साहित्यिक विनिमय की एजेंसी बनती जा रही है.
नायर ने दावा किया कि देश के लगभग सभी हिस्सों में हिंदी की मौजूदगी किसी सरकारी आदेश का फल न होकर एक दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है. औद्योगीकरण, शहरीकरण और आव्रजन का बढ़ता हुआ सिलसिला हिंदी का प्रसार कर रहा है. ओडिशा के राउरकेला स्टील प्लांट में काम करने वाले अंग्रेजी न जानने वाले मजदूर आपस में ¨हिंदी में बातचीत करते हैं न कि ओड़िया में. मुंबई की सार्वदेशिकता ने एक भाषा के रूप में हिंदी को अपनाया है. अंडमान में रहने वाले हिंदी, मलयालम, बंगाली, तमिल और तेलुगुभाषी लोगों ने आपसी संपर्क के लिए हिंदी को ही अपनी भाषा बनाया है.
जाहिर है कि नायर ने जो भविष्यवाणी तब की थी, वह आज साकार होते हुए दिखाई पड़ रही है, लेकिन हिंदी के कुछ पैरोकार उदाहरण दे रहे हैं कि जिस तरह यूनानी, लैटिन, फ्रेंच, स्पैनिश और अंग्रेजी का रुतबा अपने-अपने देशों की साम्राज्यवादी शक्ति का परिणाम है, उसी तरह हिंदी का प्रभाव विश्व में भारत के बढ़ते हुए प्रभाव की देन है. भारत का विश्व में सम्मान है, पर उसे प्रभाव की संज्ञा देना एक शेखी ही हो सकती है. न भारत की अर्थव्यवस्था का स्तर किसी साम्राज्यवादी देश जैसा है, न ही उसकी सैन्य शक्ति का. केवल यह कहा जा सकता है कि भारत दक्षिण एशिया यानी पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान और नेपाल के बीच चौधरी की भूमिका निभा सकता है. एशिया में ही वह चीन से बहुत पीछे है. भारत के पास सिर्फ एक बड़ा बाजार है जिसमें निर्यातोन्मुख उत्पादन करने वाली ताकतें मुनाफा कमाने के लिए आती हैं और आना चाहती हैं. भारत में बनी हुई जिंन्सें दुनिया के बाजार में बेहद सीमित महत्व रखती हैं.
पहली बात यह कि जब ताकत न हो, फिर भी उसकी डींग हांकना एक दिमागी विकृति है. दूसरी बात यह है कि हिंदी के विस्तार को इससे जोड़ते ही दुनिया में तो इसका मजाक बनता ही है, भारत में अन्य भारतीय भाषाओं (जो साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदी से अधिक पुरानी और प्रतिष्ठित हैं) के कान खड़े हो जाते हैं. अंग्रेजी के पैरोकार फौरन इस बेचैनी का फायदा उठाते हुए ‘¨हिंदी-साम्राज्यवाद’ की थियरी चलाने लगते हैं.
होना तो यह चाहिए कि संख्यात्मक दृष्टि से देश की सबसे बड़ी भाषा होने के नाते हिंदी सारी भाषाओं को अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ संगठित करे, न कि बेवकूफी भरी दावेदारियां करते हुए अकेली पड़ जाए. हिंदी के ऊपर एक बहुभाषी देश में यूरोपीय किस्म की राष्ट्र-भाषा होने का दावा न करते हुए एक सर्व-स्वीकार्य संपर्क-भाषा बनने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी है. इसे निभाना उसका पहला उद्देश्य होना चाहिए. विश्व-भाषा बनने का सपना देखना न केवल एक नादानी है, बल्कि हिंदी के हित के लिए नुकसानदेह भी है.