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हिंदी पत्रकारिता का जन्म प्रतिरोध की कोख से हुआ है

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: May 30, 2025 10:25 IST

बड़े मीडिया हाउस में पत्रकारों का शोषण बढ़ा है।

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विवेक दत्त मथुरिया

हम चींख हैं पुकार हैं इस गूंगी बहरी प्रजा की,कलमकार हैं हम, किसी राजा के दरबार नहीं।

कुंवर बेचैन की यह पंक्तियां पत्रकारिता के मकसद को रेखंकित करती हैं। भारत में हिंदी पत्रकारिता की बात की जाए तो इसकी बुनियाद में प्रतिरोध और बलिदान का ईंट गारा लगा था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी पत्रकारिता ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन अखबारों ने जनता को जागृत किया, राष्ट्रीयता की भावना को प्रबल किया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई।

हिंदी पत्रकारिता की शुरूआत कोलकाता से उदंत मार्तंड से हुई।  30 मई, 1826 को प्रकाशित होने वाला पहला हिंदी अखबार था। हालाँकि इसका जीवनकाल बहुत छोटा रहा, लेकिन इसने हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी। 30 मई को "हिंदी पत्रकारिता दिवस" के रूप में मनाया जाता है।

1913 में कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा प्रकाशित प्रताप अखबार स्वतंत्रता आंदोलन में एक मुखर आवाज बना। इसने क्रांतिकारियों को एक मंच प्रदान किया। शहीदे आजम भगतसिंह ने भी बतौर पत्रकार विद्यार्थी जी के साथ काम किया। इस अखबार ने जनता को आंदोलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक जैसे नेताओं ने भी इस अखबार को सराहा।

अभ्युदय मदन मोहन मालवीय द्वारा 1907 में शुरू किया गया यह समाचार पत्र भी भारतीय राजनीति और जनमानस के बीच अपनी जगह बनाने में सफल रहा।

कर्मयोगी यह भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समाचार पत्रों में से एक था। स्वराज्य शांति नारायण भटनागर द्वारा 1907 में शुरू की गई यह साप्ताहिक पत्रिका भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थी। आज 1920 के दशक में प्रकाशित 'आज' ने भी राष्ट्रवादी विचारों को फैलाने में योगदान दिया। कर्मवीर यह भी उस समय के महत्वपूर्ण हिंदी समाचार पत्रों में से एक था। स्वदेश 1921 में प्रकाशित यह समाचार पत्र भी लोगों को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने में सहायक था।

जागरण 1929 में शुरू हुआ 'जागरण' भी स्वतंत्रता संग्राम के समय महत्वपूर्ण रहा। हरिजन महात्मा गांधी द्वारा प्रकाशित यह पत्रिका (यद्यपि यह मुख्य रूप से अंग्रेजी में थी, इसके हिंदी संस्करण भी थे) अहिंसा और सविनय अवज्ञा के उनके विचारों को प्रसारित करने में महत्वपूर्ण थी और स्वतंत्रता आंदोलन के संदेश को व्यापक दर्शकों तक पहुँचाने में सहायक थी। इन अखबारों ने न केवल ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की, बल्कि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई और जनता में राष्ट्रवाद की भावना को प्रज्वलित करने का काम किया।

दैनिक हिंदुस्तान 1932 में शुरू हुआ था और महात्मा गांधी द्वारा उद्घाटित किया गया था। सेंसरशिप का विरोध: 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, "हिंदुस्तान" लगभग 6 महीने तक बंद रहा, जो ब्रिटिश सरकार की सेंसरशिप के विरोध में एक महत्वपूर्ण कदम था।

अखबारों ने स्वतंत्रता के संदेश को जन-जन तक पहुँचाया और लोगों में राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया।अखबारों ने ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों, आर्थिक शोषण और अन्य अन्यायपूर्ण कृत्यों की खुलकर आलोचना की।

इन अखबारों ने आम जनता को तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकताओं से अवगत कराया, जिससे जनमत तैयार हुआ और स्वतंत्रता आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला।  समाचार पत्रों ने स्वतंत्रता सेनानियों और नेताओं के विचारों और संदेशों को लोगों तक पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया।

* आंदोलनों को संगठित करना: कई बार, अखबारों ने विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों के बारे में जानकारी प्रकाशित करके लोगों को एकजुट करने और उन्हें संगठित करने में मदद की। कुछ अखबारों ने क्रांतिकारी विचारों और गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया, जिससे युवाओं में उत्साह और बलिदान की भावना पैदा हुई।

अगर अपवादों की बात छोड़ दी जाए तो मौजूदा दौर की हिंदी पत्रकारिता दलदल में तब्दील हो चुकी है। मुख्यधारा के पत्रकारीय संस्थान सत्ता की पीआर एजेंसी से ज्यादा कुछ नहीं रह गए। जो पत्रकारिता अपने आदर्श रूप में लोकतंत्र में जनता की ओर से स्थाई विपक्ष हुआ करता थीं, अब वह भाड़े का बैंड बन कर रह गई है। बड़े मीडिया हाउस में पत्रकारों का शोषण बढ़ा है। सरोकारों की पत्रकारिता एक रस्मअदायगी भर रह गई है। वर्तमान में पत्रकारों के हालातों को बयां करता यह शेर मौजू है-

बड़ा महीन है अखबार का ये मुलाजिम भी,खुद मेँ खबर है, मग़र दूसरों की छापता है।

कॉरपोरेट मीडिया में खबर को एक उत्पाद के रूप में परोसा जा रहा है, जिसने लोकतंत्र को बुरी तरह बीमार कर दिया है।

झूठ के घटाटोप ने सच के सूरज को ढकने की असफल कोशिश की जा रही है, पर इंटरनेट क्रांति ने सोशल मीडिया के रूप में जन्मे वैकल्पिक मीडिया  झूठ के मीडिया को चुनौती दे रहा है। सोशल मीडिया की राह  में भी कम चुनौतिया कम नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर रात की एक सुबह तय है।

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