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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीति में भाषा के संयम पर ध्यान देना जरूरी

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: October 17, 2019 12:13 IST

सवाल यह उठता है कि हमारे नेता भद्र भाषा में, यानी ऐसी भाषा में जो गलत न लगे, अपनी बात क्यों नहीं कह सकते? मुहावरेदार भाषा बोलना कतई गलत नहीं है, पर सवाल है कि बात कहने के पीछे की नीयत क्या है- आप प्रभावशाली ढंग से अपनी बात कहना चाहते हैं या किसी भी हद तक जाकर अपने विरोधी को नीचा दिखाना चाहते हैं?

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ठळक मुद्देकमान से निकला हुआ तीर और जबान से निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता, यह एक मुहावरा है. मुहावरा यानी प्रभावशाली ढंग से बात कहने का एक ढंग, जो समाज न जाने कब से काम में लेता रहा है. सामान्य बोल-चाल और साहित्य, दोनों में मुहावरेदार भाषा को एक विशेषता के रूप में ही देखा जाता है और यह भी देखा गया है कि मुहावरेदार भाषा अक्सर सही जगह पर वार करती है, असरदार होती है.

कमान से निकला हुआ तीर और जबान से निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता, यह एक मुहावरा है. मुहावरा यानी प्रभावशाली ढंग से बात कहने का एक ढंग, जो समाज न जाने कब से काम में लेता रहा है. सामान्य बोल-चाल और साहित्य, दोनों में मुहावरेदार भाषा को एक विशेषता के रूप में ही देखा जाता है और यह भी देखा गया है कि मुहावरेदार भाषा अक्सर सही जगह पर वार करती है, असरदार होती है.

शायद ऐसा ही असर पैदा करना चाहते थे हरियाणा के मुख्यमंत्री जब उन्होंने एक चुनावी सभा में ‘खोदा पहाड़ और निकली चुहिया’ वाला मुहावरा काम में लिया. बात बनी या नहीं, यह तो वही जानें, पर बात बढ़ जरूर गई है. मुख्यमंत्री ने यह बात कांग्रेस पर हमला करते हुए कही थी. 

उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी तीन महीने तक गांधी-परिवार से अलग किसी अध्यक्ष की तलाश कर रही थी, पर बाद में उसे सोनियाजी की शरण में ही जाना पड़ा. यह कहते हुए उन्होंने मुहावरा काम में लिया था- ‘खोदा पहाड़ और निकली चुहिया’.  फिर उन्होंने चार शब्द और जोड़ दिए- ‘वह भी मरी हुई’. कांग्रेस इसे अपनी अध्यक्ष का अपमान बता रही है और मांग कर रही है कि मुख्यमंत्री महोदय ‘मुंह से निकली बात के लिए क्षमा मांगें’. जबाव में मुख्यमंत्री मुहावरे में कही गई बात का सहारा ले रहे हैं.

सवाल यह उठता है कि हमारे नेता भद्र भाषा में, यानी ऐसी भाषा में जो गलत न लगे, अपनी बात क्यों नहीं कह सकते? मुहावरेदार भाषा बोलना कतई गलत नहीं है, पर सवाल है कि बात कहने के पीछे की नीयत क्या है- आप प्रभावशाली ढंग से अपनी बात कहना चाहते हैं या किसी भी हद तक जाकर अपने विरोधी को नीचा दिखाना चाहते हैं?

यह किसी भी हद तक जाने वाली बात महत्वपूर्ण है. बरसों से हम राजनीति में घटिया तरीकों और घटिया शब्दों का इस्तेमाल होते देख रहे हैं. ‘पप्पू’ और ‘फेंकू’ जैसे शब्दों का गलत लाभ उठाने के उदाहरण बहुत पुराने नहीं हैं. विरोधियों को बेईमान और स्वयं को चरित्रवान बताने-जताने की हर संभव कोशिश करते देखा है हमने अपने नेताओं को. ‘मुहावरों’ और ‘जुमलों’ की इस राजनीति ने हमारी राजनीति की समूची चादर को बुरी तरह मैला कर दिया है- पर हमारे राजनेताओं को सिर्फ दूसरे की चादर ही मैली दिखती है, अपनी चादर के दाग न उन्हें दिखते हैं और न ही वे उन्हें देखना चाहते हैं.

वैसे, तो राजनीति को ‘शैतानों की अंतिम शरणस्थली’ भी कहा गया है, पर हम यह मानकर चलना चाहते हैं कि सभी राजनेता उतने बुरे नहीं हैं जितना उन्हें कहा अथवा समझा जाता है. हम यह मानकर चलना चाहते हैं कि हमारी राजनीति का उद्देश्य समाज को, देश को, बेहतर बनाना है, जीवन-यापन की स्थितियों को सुधारना है, सबको साथ लेकर सबका विकास करना है,  पर जब ये सारी बातें जुमलेबाजी लगने लगें और जब यह लगने लगे कि राजनीति में लगे लोगों की निगाहें सत्ता-सुख पर ही टिकी हुई हैं और इसके लिए वे किसी भी स्तर तक जा सकते हैं तो सवाल उठने लाजिमी हैं. यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि अपने प्रतिपक्षी को नीचा दिखाने के लिए, कथनी और करनी दोनों में, नीचे उतरना क्यों जरूरी समझा जाता है? क्यों हमारे राजनेता शब्दों की मर्यादा को अक्सर भूल जाते हैं?  

मूल सवाल राजनीति में शालीनता का है. जनतंत्र में विरोधी दुश्मन नहीं होता, विरोध विचारधारा का होता है, नीतियों का होता है. क्या शालीन भाषा में विरोध नहीं हो सकता? विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए, या उन्हें कमतर बताने के लिए घटिया शब्दों का इस्तेमाल करना क्यों जरूरी हो? किसी को विदेशी गाय और उसके बच्चों को बछड़े कहकर क्या प्राप्त किया जा सकता है? किसी को चोर घोषित करने से क्या हाथ आएगा? क्यों हमारे राजनेता घटिया भाषा का इस्तेमाल करके अपने ओछेपन का परिचय देते हैं? क्यों उन्हें बार-बार यह कहना पड़ता है कि उनके कहने का वह मतलब नहीं था, जो निकाला जा रहा है? 

जबान फिसल जाने वाली बात समझ में आ सकती है, पर अपने विरोधी को नीचा दिखाने के लिए ही क्यों फिसलती है जबान? ये सारे, और ऐसे ही कई और सवाल उठने चाहिए. स्वस्थ जनतांत्रिक परंपराओं और मर्यादाओं का तकाजा है कि हम अपने नेताओं से पूछें कि उन्हें दूसरों की कथित कमियों को गिनाने के बजाय अपनी अच्छाइयों पर भरोसा क्यों नहीं होता?

वैयक्तिक संबंधों से लेकर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता तक शब्दों और भाषा की मर्यादा का पालन होना ही चाहिए. हम दृष्टिहीन को अंधा नहीं, सूरदास कहना बेहतर समझते हैं, अपंग को दिव्यांग कहकर संबोधित करते हैं. ऐसे में अपने राजनीतिक विरोधियों के बारे में कुछ कहते समय हम भाषा का संयम क्यों नहीं बरत सकते? 

कोई भी राजनीतिक दल यह महसूस नहीं करता लग रहा कि उसे ऊंचे आचरण का उदाहरण सामने रखना है. चुनावी सभाओं में ‘जुमले’ और ‘मुहावरे’ उछाल कर वे तालियां बटोरने में लगे दिखाई देते हैं. यह व्यवहार अपरिपक्व राजनीति का उदाहरण तो है ही, हमारी समूची राजनीतिक संस्कृति को भी बदनाम करने वाला है. भाषा का संयम पहली सीढ़ी है जिस पर चढ़कर हम एक स्वस्थ राजनीति की ओर बढ़ते कदम का उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं. यह बात हमारे राजनेता आखिर कब समझेंगे? 

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