हरियाणा विधानसभा चुनावः दबाव की राजनीति और दिग्गजों की कूटनीति ने बदली हरियाणा की चुनावी फिजा

By बद्री नाथ | Published: September 5, 2019 02:13 PM2019-09-05T14:13:46+5:302019-09-05T14:23:31+5:30

Haryana Assembly Elections: महत्वपूर्ण बदलाव ने हरियाणा का राजनीतिक समीकरण ही बदल दिया है। एक तरफ खापों ने मध्यस्थता करके इनेलो जेजेपी के एक होने की कवायद को आगे बढ़ा दिया तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने बड़े बदलाव करके इस राजनितिक रंग को पूरी तरह से बदल दिया है।

Haryana assembly elections: politics of pressure and diplomacy of veterans changed Haryana's electoral fate | हरियाणा विधानसभा चुनावः दबाव की राजनीति और दिग्गजों की कूटनीति ने बदली हरियाणा की चुनावी फिजा

हरियाणा विधानसभा चुनावः दबाव की राजनीति और दिग्गजों की कूटनीति ने बदली हरियाणा की चुनावी फिजा

Highlightsशैलजा की ताजपोशी, तंवर युग की समाप्ति और खापों की सक्रियता ने हरियाणा की राजनीति को बनाया रोचकराजनीति की धुरी माने जाने वाले हरियाणा राज्य की राजनीति अब 2019 में  पूरी तरह से बदल चुकी है।

बदलाव लोकतंत्र की फितरत है। राजनीति की धुरी माने जाने वाले हरियाणा की राजनीति अब 2019 में  पूरी तरह से बदल चुकी है। 2018 तक हरियाणा की राजनीति में 4 चुनावों का विश्लेषण करके आगे की राजनीतिक रणनीति बनाना और गठबंधन करना या फिर सीटों के बंटवारे को तर्कसंगत तरीके से रख पाना काफ़ी आसान था लेकिन 2018 के बाद से होने वाले राजनीतिक बदलावों की पृष्ठभूमि में गठबंधन हो या फिर नेताओं और कार्यकर्ताओं का राजनीतिक दलों से जुड़ाव हो सब कुछ अनिश्चित और अस्थिर होता गया है। पिछले हफ्ते हुए महत्वपूर्ण बदलाव ने हरियाणा का राजनीतिक समीकरण ही बदल दिया है। एक तरफ खापों ने मध्यस्थता करके इनेलो जेजेपी के एक होने की कवायद को आगे बढ़ा दिया तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने बड़े बदलाव करके इस राजनितिक रंग को पूरी तरह से बदल दिया है।

हरियाणा के पोलिटिकल डिस्कोर्स में इस बदलाव  की शुरुआत 2016 के जाट आरक्षण में हुए दंगो के बाद हुई। इसके बाद की पृष्ठभूमि में बीजेपी नॉन जाट समर्थन वाले समुदाय की पार्टी के रूप में स्थापित हुई वहीं बाकी के मुख्य दल कांग्रेस और जेजेपी का आधार जाट वोट बना। इसका उदाहरण जींद उपचुनाव और लोकसभा चुनाव के नतीजों में हम साफ तौर पर देख सकते हैं। नतीजा यह है कि वर्तमान समय में हरियाणा की राजनीति में भजनलाल के जाने के बाद से चल रहा जाट वर्चस्व समाप्त हो गया है।
 
जहां जींद उपचुनाव में दिग्विजय सिंह चौटाला और रणदीप सिंह सुरजेवाला के बीच जाट मतों के विभाजन ने बीजेपी को विजेता बनाया वहीं लोकसभा चुनाव में जाट बाहुल्य सीटों पर बीजेपी को मोदी लहर भी नहीं बचा सकी। इसका स्पष्ट उदाहरण यह हैं कि हरियाणा में बीजेपी सरकार के दो दिग्गज जाट नेताओं कैप्टन अभिमन्यु (वित्त-मंत्री) की नारनौंद और कृषि और पंचायती राज मंत्री ओम प्रकाश धनकर की जाट बाहुल्य सीटों पर लोकसभा में जीत नहीं मिल सकी। जाहिर है सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास का नारा देने और हरियाणा लोकसभा में रिकार्ड 56% वोट हासिल करने वाली बीजेपी की तरफ जाट मतदाताओं का रुझान बीजेपी की तरफ नहीं हो सका है।

कांग्रेस ने क्यों दी हुड्डा को तरजीह?

हुड्डा के द्वारा 18 अगस्त को नई पार्टी के एलान की बिसात बिछा दी गई थी। इधर कांग्रेस अध्यक्ष पर सोनिया गांधी की ताजपोशी के बाद तेजी से बदलाव होने लगे। हुड्डा ने दिल्ली में डेरा जमा दिया और अपने सारी टीम को कांग्रेस के साथ बेहतर बेहतर बारगेनिंग के लिए उतार दिया। उधर ग़ुलाम नबी आजाद और अहमद पटेल ने भी हुड्डा का पूरा समर्थन किया। सत्ता परिवर्तन रैली में फसे तंवर ये भूल गए थे कि कांग्रेस में अब राहुल गांधी का उतना दखल नहीं रह गया है।

इनेलो के विधायक और ढेर सारे नेता यहाँ तक कि प्रवक्ता (अभय चौटाला के करीबी माने जाने वाले परमिंदर ढूल) भी हार मानकर हथियार डाल दिए या फिर बीजेपी के अश्वमेघी रथ के सामने घबराकर बीजेपी में शामिल होना मुनासिब समझे। इन सब परिस्थितियों में भी हुड्डा के नेतृत्व में काम कर रहे सभी 13 विधायक कांग्रेस के साथ बने रहे। इस एपिसोड ने भूपिंदर सिंह हुड्डा को “हुड्डा ही कांग्रेस और कांग्रेस ही हुड्डा” के रूप में उभार दिया।

हैरान करने वाले थे लोकसभा चुनाव के आंकड़े

हरियाणा में वोट प्रतिशत की बात करें लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी को 58.02 प्रतिशत, कांग्रेस को 28.42 प्रतिशत और आईएनएलडी को 1.89 प्रतिशत वोट मिले। बीजेपी ने जहाँ 10 की 10 सीटें जीती वहीँ अन्य दल 0 पर पहुच गए। वहीं, साल 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने 34.8 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ सात सीटें जीती थीं। वहीं इंडियन नेशनल लोकदल को 24.4 फीसदी वोट शेयर के साथ दो सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस 23 फीसदी वोट शेयर के साथ 1 सीट जीतने में सफल हुई थी।
 
वोटों के गणित में होने वाले बदलावों को देखने के बाद यह  साफ जाहिर होता है कि दूसरे दलों को होने वाले नुकसान का अधिकतम फायदा बीजेपी की तरफ शिफ्ट हो रहा है। अंतिम चुनाव के मुकाबले कांग्रेस के वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी तो देखी गई लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस खेमे में हुई गुटबाजी से स्थिति काफी खराब हुई है। बीजेपी ने भले ही नारा 75 पार का दिया है लेकिन अपनी  हारी हुई 11 सीटों को जीतने के लिए बाकायदा मिशन 11 अभियान चला रखा है।
 
लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी कहाँ खड़ी हैं?

लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी और जेजेपी का पहला लिटमस टेस्ट जींद उपचुनाव रहा था जिसमें दोनों दलों ने अपार सफलता हासिल की थी। अच्छी मात्रा में वोट प्राप्त करने वाले ये दोनों नवनिर्मित दल हरियाणा की राजनीति में एक विकल्प के रूप में देखे जाने लगे थे लेकिन मोदी लहर में राजकुमार सैनी के राजनितिक मंसूबे धरे के धरे रह गए।

अभय चौटाला और इनलो कैसे पिछड़े?

पिछले 2 सालों में उत्तर भारत के दो राजनीतिक परिवारों में बंटवारे चर्चित रहे हैं। एक उत्तर प्रदेश का मुलायम कुनबा तो दूसरा देवीलाल की विरासत को भारतीय राजनीती में अग्रसर करने वाला चौटाला परिवार। दिलचस्प बात यह रही कि दोनों मामलों में विरासत की जंग चाचा और भतीजे के बीच लड़ी गई। पार्टी के कब्जे की लड़ाई में एक जगह जहाँ चाचा ने भतीजे को मात दी तो दूसरी जगह भतीजे ने चाचा को मात दी। 

दुष्यंत चौटाला ने पार्टी को कब्जे में लेने में कम जोर लगाते हुए नई पार्टी बनाई और अपने विज़न के साथ लोगों के बीच निरंतर दिखे। नतीजतन इनलो के लोग टूटकर जेजेपी में शिफ्ट होते गए हैं। जींद चुनाव नतीजों ने जेजेपी को इनेलो के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर दिया। फिर लोकसभा चुनाव में भी इनेलों के अवसान का नजारा देखने को मिला है।

बीजेपी ने किए कई बड़े बदलाव

बीजेपी ने शक्ति हासिल करने के बाद पहला कार्य यह किया है कि जहाँ जहाँ वो छोटे भाई की हैसियत में थी अपने बड़े भाइयों को हटाकर (हरियाणा जनहित कांग्रेस) पूरे तन्त्र को अपना बनाया है या फिर बड़े भाइयों को (महाराष्ट्र में शिव सेना) छोटे भाई के दर्जे पर पंहुचा दिया है। बीजेपी के पिछले 5 सालों के घटक दलों के साथ  रिश्तों और घटक दलों के हश्र को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती हैं कि बीजेपी महासागर हैं जिसमें नदियों (छोटे राजनीतिक दल उदित राज की इंडियन जस्टिस पार्टी, कुलदीप विश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस, महाराष्ट्र में शिव सेना,  यूपी में अपना दल, बिहार में जेडीयू) को विलीन हो जाना होगा या फिर बीजेपी के रहमो-करम पर ही राजनीतिक भविष्य की तलाश करनी होगी।

बीजेपी ने या तो बड़े भाई की हैसियत हासिल की है या फिर छोटे दल उन जुवारियों की तरह बीजेपी से जुड़कर दांव लगाए और नतीजे में हाथ झाड़कर घर जाना पड़ता है। हालांकि अभी भी राम विलास पासवान, नीतीश कुमार और प्रकाश सिंह बादल ऊपर वर्णित नियम के अपवाद हैं। यह ध्यान रखना होगा कि इनकी निर्भरता भी मोदी पर बढ़ती जा रही है। 

विधानसभा चुनाव के मद्देनजर संभावनाएँ

वर्तमान परिस्थितियों के मुताबिक आने वाले 45 दिनों में बहुत कुछ बदलने के आसार कमतर होते जा रहे हैं। बीजेपी लोकसभा चुनाव जैसी जीत दोहराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है।  फिलहाल कांग्रेस ने हुड्डा को चुनाव प्रबन्धन की  कमान और शैलजा को प्रदेश अध्यक्ष का पद दे दिया है। इस फैसले के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने की कोशिश की जा रही है। 

बिना मुख्यमंत्री पद के दावेदार के चुनाव में उतरने की रणनीति से कांग्रेस दलित वोटों का नुकसान रोकने की कवायद कर रही है। फिलहाल हुड्डा को चुनाव प्रबंधन की कमान मिलने से खांटी कांग्रेसियों को जोड़े रखने में काफी मदद मिल सकती है। उधर खापों द्वारा चौटाला परिवार को एक करने की कोशिश ने भी बड़े परिवर्तन का इशारा किया है अगर ऐसा होता है तो एकतरफा जीत की और बढ रही बीजेपी कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले में फंस सकती है, और विगत लोकसभा चुनावों में 79 विधान सभा सीटों पर जीत दर्ज करने वाली बीजेपी का  “75 पार का सपना” लाल कृष्ण आडवाणी के 'पीएम इन वेटिंग' जैसा हो सकता है।

Web Title: Haryana assembly elections: politics of pressure and diplomacy of veterans changed Haryana's electoral fate

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