हरीश गुप्ता का ब्लॉग: पीके-कांग्रेस के बीच चौथी बार होगी बातचीत?

By हरीश गुप्ता | Published: April 28, 2022 11:17 AM2022-04-28T11:17:50+5:302022-04-28T11:17:50+5:30

हाल में प्रशांत किशोर के सोनिया गांधी से लगातार मुलाकात के बाद कई तरह अटकलें कांग्रेस को लेकर लगाई जा रही थी. हालांकि पीके और कांग्रेस का गठजोड़ होते-होते रह गया पर संकेत ऐसे हैं कि आगे भी दोनों की बातचीत की गुंजाइश बाकी है.

Harish Gupta's blog: Prashant Kishor Congress may hold talks for fourth time | हरीश गुप्ता का ब्लॉग: पीके-कांग्रेस के बीच चौथी बार होगी बातचीत?

पीके-कांग्रेस के बीच चौथी बार होगी बातचीत? (फाइल फोटो)

कांग्रेस और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ पीके के बीच बहुचर्चित गठजोड़ होते-होते रह गया. यह तीसरी बार था जब दोनों ने मेलजोल की कोशिश की. लेकिन कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी. यह इस तथ्य के बावजूद था कि पीके के साथ बातचीत का मौजूदा दौर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के स्तर पर शुरू हुआ और इसमें लगभग पूरा वरिष्ठ पार्टी नेतृत्व शामिल था. 

पता चला है कि इस बार प्रियंका गांधी वाड्रा ने पहल की और पीके के साथ बातचीत शुरू हुई. कांग्रेस पीके को अतिरिक्त छूट देने को भी तैयार थी, हालांकि पार्टी के साथ उनकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है. 2014 में मोदी से अलग होने के बाद, उन्होंने बिहार में भाजपा की हार सुनिश्चित करने के लिए 2015 में नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाया. फिर उन्होंने 2017 में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना में टीआरएस, तमिलनाडु में डीएमके और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को चुनाव जीतने में मदद की. 

इन सफलताओं ने पीके को देश में सबसे अधिक मांग वाला चुनावी रणनीतिकार बना दिया. उन्होंने कांग्रेस के सामने कुछ कठिन शर्तें रखीं जैसे; उन्हें चुनाव अभियान की रणनीति तैयार करने में पूरी छूट दी जाए और उनकी टीम द्वारा किए गए व्यापक क्षेत्र सर्वेक्षणों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया जाए. पीके महासचिव (रणनीति या चुनाव समन्वयक) के रूप में भी नामित होना चाहते थे. 

एक शर्त यह भी थी कि उनकी टीम नेताओं के ट्वीट को हैंडल करेगी, हालांकि आलाकमान के परामर्श के साथ. जाहिर है, 150 साल पुरानी कांग्रेस के लिए इतना कुछ हजम कर पाना संभव नहीं था. लेकिन अच्छी बात यह है कि इस बार की बातचीत कड़वे बयानों से खत्म नहीं हुई है. पीके ने एक नपातुला बयान दिया और कांग्रेस ने भी यह संकेत दिया है कि सबकुछ खत्म नहीं हुआ है. आने वाले महीनों में बातचीत के चौथे दौर की गुंजाइश है.

पीके का भाजपा से क्यों हुआ अलगाव?

पीएम मोदी और पीके के बीच तनातनी के पीछे दिलचस्प कहानी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद, मोदी पीके को उनके बहुमूल्य योगदान के लिए पुरस्कृत करना चाहते थे. आखिरकार, मोदी ने उन सभी को कुछ न कुछ दिया, जिन्होंने उनकी 2014 की जीत सुनिश्चित करने में थोड़ा-बहुत भी योगदान दिया. मोदी अपने दोस्तों को याद रखने के लिए जाने जाते हैं और उन्हें अच्छी तरह से पुरस्कृत करने में विश्वास करते हैं. 

मोदी पीके की क्षमताओं से प्रभावित हुए और आखिरकार 2012 में लोकसभा चुनाव से दो साल पहले उन्हें काम पर रखा. पीके और उनके साथियों को लोकसभा चुनाव की रणनीति बनाने के लिए गांधीनगर में उनके सरकारी आवास में भी जगह दी गई थी. मोदी ने तब पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं किया और अपना चुनाव प्रचार साम्राज्य खुद बनाया. 

हैरानी की बात यह है कि पीके ने मोदी की बड़ी जीत के बाद सरकार में शामिल होने के बजाय भाजपा के लिए काम करने का विकल्प चुना. मोदी ने पीके को अमित शाह के पास जाने को कहा, जो उस समय भाजपा अध्यक्ष थे ताकि वे उनके लिए भूमिका तय कर सकें. लंबे विचार-विमर्श के बाद, जिसे गुप्त रखा गया था, अमित शाह ने उनसे कहा कि भाजपा में ‘चुनाव रणनीतिकार या चुनाव समन्वयक’ का कोई विशेष पद नहीं बनाया जा सकता है. उन्हें यह भी बताया गया कि इस तरह की पोस्ट ‘संघ परिवार’ के ढांचे में फिट नहीं हो सकती. 

जाहिर है, अमित शाह ने पीके को अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में भी देखा. पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी पीके के लिए पद सृजित करने के विचार को पसंद नहीं किया. मोदी लुटियंस दिल्ली के लिए नए थे और उन्होंने इसके लिए जोर भी नहीं दिया. लेकिन मोदी ने उन्हें सरकार में किसी भी पद की पेशकश की जिसे पीके ने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया.

तब से, पीके भाजपा का एक विकल्प बनाने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर एक विश्वसनीय चेहरा और मुद्दों को सामने लाया जाए तो भगवा पार्टी को 2024 में हराया जा सकता है. कांग्रेस असमंजस में है और पीके अपने 2014 के अपमान का बदला लेना चाह रहे थे. कहा जाता है कि पीके मोदी से नहीं बल्कि अमित शाह से नाराज हैं.

निकलता जा रहा है समय

इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के लिए समय निकलता जा रहा है. कांग्रेस को लगभग 350 लोकसभा सीटों पर भाजपा से लड़ने के लिए संजीवनी की जरूरत है और बिना किसी देरी के अब खुद को फिर से गढ़ना है. कांग्रेस राज्य दर राज्य अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है. कांग्रेसियों का राहुल गांधी की कार्यशैली से मोहभंग हो गया है और वे विकल्प तलाशने लगे हैं. ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी ने महसूस किया है कि राहुल गांधी को पार्टी के प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया जा सकता है, कम से कम 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले. 

अब जब पीके का अध्याय खत्म हो गया है, तो गांधी परिवार को खुद का फिर से आविष्कार करना होगा. समस्या यह है कि सोनिया गांधी ने इसे 1999-2004 के बीच सफलतापूर्वक किया और यूपीए-1 बनाने में सफल रहीं. क्या एंपावर्ड एक्शन ग्रुप (ईएजी) 2024 में राहुल गांधी के लिए वह कर सकता है जो सोनिया गांधी ने 2004 में किया था? इस संबंध में मेरा भी वही अनुमान है जो आपका है.

Web Title: Harish Gupta's blog: Prashant Kishor Congress may hold talks for fourth time

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